कोरोना का म्यूटेशन
समूचे विश्व को महामारी ने हिलाकर रख दिया है सरकारें बेवश हैं चिकित्सकमहामारी के बिषय में बिना किसी मजबूत जानकारी के अँधेले में तीर चलाए जा रहे हैं महामारी से संक्रमितों पर जिन औषधियों का प्रयोग जिस लाभ के लिए किया जा रहा है उनसे वह लाभ नहीं मिल पा रहा है संक्रमितों पर उन औषधियों के छोटे बड़े दुष्प्रभाव होते देखे जा रहे हैं |अभी तक चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा इतनी बड़ी महामारी के बिषय में कोई पूर्वानुमान नहीं लगाए जा सके हैं ! महामारी समाप्त कब होगी इसके बिषय में चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा जितने भी पूर्वानुमान लगाने का प्रयास किया गया वे सारे गलत निकलते चले गए जितने भी मॉडल पेस किए गए वे केवल तीर तुक्के सिद्ध हुए उन्हें गलत होना ही था | महामारी स्वभाव क्या है यह पता न लगा पाने के कारण महामारी के प्रभाव लोगों पर पड़ने से किस प्रकार के निश्चित लक्षण प्रकट होते हैं वे पता नहीं लगाए जा सके |हर जगह अँधेरे में तीर चलाए जाते रहे हैं |
जहाँ तक कोरोना के नए वेरियंट या रूप बदलने की बात कही जा रही है उसका सच्चाई इसलिए कोई संबंध नहीं है क्योंकि बदलाव तो प्राकृतिक होते हैं बदलावों को देखकर ही तो समय बीतने का पता लगता है इसीलिए बदलाव तो समय के साथ साथ सजीव निर्जीव आदि सभी में होते हैं लेकिन जिन बदलावों हमें पहले से पता होता है उन बदलावों से हमें कोई समस्या नहीं होती है किंतु जिन परिवर्तनों से हम पहली बार परिचित हो रहे होते हैं उन बदलावों के प्रभाव से पहली बार परिचित हो रहे होते हैं उसके बिषय में हमारा कोई वैज्ञानिक अनुभव अध्ययन आदि नहीं होता है इसलिए परिवर्तन समझ में नहीं आ रहे होते है जिससे उनका हर नयापन आश्चर्य जनक लगता है |हम अपनी अयोग्यता के कारण उस बिषय को समझ पाने के लायक ही नहीं होते हैं किंतु अपनी उस अयोग्यता को हम समाज के सामने स्वीकार नहीं करना चाहते हैं ऐसी परिस्थिति में यह कहने के बजाए कि इन बदलावों को समझने एवं इनके संभावित बदलावों का अनुमान लगाने की हममें योग्यता नहीं हैं हम उनके नए नए वेरियंट गिना रहे होते हैं | वायरस लंग्स में छिपकर बैठ जाता है वो वैक्सीन से बचने का रास्ता खोज लेता है वह अचानक हमला करता है वायरस बहुत धूर्त है | ये सब जनता को भ्रमित करने वाली उसी प्रकार कीसाथी बातें हैं जैसे मौसम धोखा दे गया मानसून समय से नहीं आया या समय से नहीं गया !मानसून चकमा दे गया !आदि ऐसी बातें संबंधित बिषय में दिमागी दिवालियापन प्रदर्शित कर रही होती हैं |
बचपन जवानी बुढ़ापे का बदलाव हर किसी के जीवन में आता है ये तीनों ही तीनों से पूरी तरह अलग होते हैं |तीनों के स्वरूप अलग अलग होते हैं तीनों के गुण दोष अलग अलग होते हैं | बचपन में कफ युवावस्था में पित्त एवं वृद्धापन में वात बढ़ जाता है | सर्दी गर्मी वर्षा आदि ऋतुओं एवं सुबह दोपहर शाम आदि की भी यही स्थिति है | सर्दी की ऋतु और प्रातः काल के समय में कफ का प्रभाव अधिक रहता है | ग्रीष्म ऋतु और दोपहर के समय में पित्त का प्रभाव अधिक रहता है |वर्षाऋतु और सायंकाल में वात का प्रभाव अधिक रहता है| इसी प्रकार से दिन में पित्त एवं रात्रि में कफ की अधिकता रहती है | कुल मिलाकर शरीर ,वर्ष एवं अहोरात्र में होने वाले परिवर्तनों एवं उनके गुण और दोषों के संभावित परिवर्तनों के बिषय में अनुमान भी सभी को पता होता है | किसी बच्चे के बचपन जवानी बुढ़ापा आदि के क्रम से भी सभी परिचित हैं |ऐसे बिषयों में होने वाले पर्याप्त बदलावों को देखकर कभी किसी ने नए वेरियंट की बात नहीं की जो कोरोना के बिषय में बार बार की जा रही है |
छोटा प्रौढ़ एवं पक्व आदि आम के फल में तीन मुख्य बदलाव होते हैं | छोटा कच्चा आम देखने में हरा और स्वाद में खट्टा होता है यह वात और पित्त को उत्पन्न करता है | दूसरा कच्चा आम जो प्रौढ़ (मजबूत) हो चुका होता है वो देखने में कुछ बदला हुआ एवं उसकी त्वचा अधिक मजबूत होती है उसके अंदर गुठली भी मजबूत पड़ चुकी होती है स्वाद की दृष्टि से उसमें अम्लता अधिक होती है प्रभाव की दृष्टि से त्रिदोष अर्थात वात पित्त कफ एवं रक्त दोष को उत्पन्न करता है |तीसरा 'पक्व' वही आम जब पक जाता है तब उसका रंग पीला हो जाता है उसका स्वाद मीठा हो जाता है इसका प्रभाव वात नाशक हृदय के लिए हितकर शीतल सामान्य पित्त जनक तथा जठराग्नि कफ एवं शुक्र को बढ़ने वाला होता है |
इस प्रकार से कोरोना महामारी की तरह ही आम के फल में भी तो बार बार म्यूटेशन हो रहे होते हैं |इसी प्रकार से सारे फलों फूलों समेत समस्त चराचर प्रकृति में ही समय के साथ साथ बार बार म्यूटेशन होते रहते हैं |इसके अतिरिक्त कई बार कुछ आकस्मिक परिस्थितियों से या बाहरी हस्तक्षेप से या कुछ द्रव्यों के मिल जाने से भी म्यूटेशन होने की संभावना रहती है |
जिस प्रकार से पका हुआ आम खाने का जो स्वाद प्रभाव आदि होता है उसी आम को दूध में मिलाकर लिया जाए तो उसका काफी कुछ बदल जाता है वह स्वादिष्ट वातपित्त नाशक रोचक बृंहण वर्ण्य गुरु एवं शीतल हो जाता है |
जिस प्रकार से पके आम में दूध का बाहरी हस्तक्षेप होते ही उसके स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है | ऐसा तो तब होता है जब दूध और आम दोनों के एक साथ मिल जाने से उनके स्वाद और प्रभाव में किस प्रकार का परिवर्तन होगा यह पहले से पता है किंतु यह पता तो इसलिए है क्योंकि आम और दूध दोनों के गुण दोषों को समझने वाले किसी विशेषज्ञ के द्वारा इसके बिषय में पहले कभी कोई रिसर्च किया गया होगा |
कोरोना महामारी के बिषय में किसी को कोई जानकारी ही नहीं है न उसके बिषय में और न ही उसके लक्षण पता हैं | जहाँ एक ओर महामारी के प्रसार विस्तार अंतरगम्यता आक्रमकता एवं इस पर पड़ने वाले मौसम तापमान वायु प्रदूषण आदि के प्रभाव बिषय में किसी को कुछ पता ही नहीं है इसीलिए इसकी कोई औषधि नहीं बनाई जा सकी है | इसके बाद भी महामारी से संक्रमितों पर जिन औषधियों का प्रयोग करके चिकित्सा की जा रही है उन औषधियों का महामारी से संक्रमितों पर अच्छा या बुरा कुछ भी प्रभाव पड़ सकता है इसके बिषय में किसी को कुछ पता तो है नहीं किंतु यह प्रभाव अच्छा पड़ा तो ठीक और यदि बुरा पड़ा और रोगी की हालत अधिक बिगड़ गई या मृत्यु ही हो गई तो इसकी जिम्मेदारी कोई अपने ऊपर तो लेगा इसकी आशा नहीं की जानी चाहिए | इसलिए जैसे ही रोगी की हालत अधिक बिगड़ने लगी या मृत्यु हो गई उसकी जिम्मेदारी कोई ले उससे आसान होता है यह कहना कि महामारी में एक नया म्यूटेशन हुआ है जो बहुत खतरनाक है|अपनी गलतियों को स्वीकार करने के बजाए इस प्रकार की म्यूटेशन संबंधी अफवाहें समाज में फैला दी जाती हैं |
चिकित्सा का सिद्धांत है कि महामारीजनित संक्रमण रोकने के लिए पहले कोई औषधि बनाई जाती है जब उस औषधि का संक्रमितों पर प्रयोग किया जाता है उस दवा के प्रभाव से संक्रमितों को संक्रमण से मुक्ति मिलते देखी जाती है | इस प्रकार से सफल परीक्षण हो जाने के बाद उसे महामारी की औषधि समझकर उसी आधार पर उस महामारी की वैक्सीन बना ली जाती है | हमारी जानकारी के अनुसार अबकी पहली बार ऐसा हुआ है जब महामारी की औषधि बिना बने ही वैक्सीन बना ली गई है कोरोना संक्रमण के कारण स्वास्थ्यजनित अलग अलग प्रकार की परिस्थितियाँ झेल रहे लोगों पर स्वाभाविक है कि अलग अलग प्रकार का प्रभाव पड़ेगा जिस पर अच्छा पड़ा वहाँ तो वैक्सीन की सफलता बताई ही जाएगी किंतु दुर्भाग्यवश जहाँ वैक्सीन लेने के बाद कोई दुर्घटना घटित हुई वहाँ महामारी का नया खतरनाक म्यूटेशन बताने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प बचता ही कहाँ है |
ऐसी परिस्थिति में महामारी का नयाम्यूटेशन बताकर काम निकालने से अच्छा है महामारियों के बिषय में अनुसंधानों की वास्तविक जिम्मेदारी से बचना बंद करके वास्तविक अनुसंधान किए और कराए जाएँ ताकि भविष्य में दोबारा ऐसी परिस्थिति पैदा होने से बचाव हो सके |
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संसार की छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी सभी वस्तुएँ समय बीतने के साथ साथ सबका स्वरूप बदलता जा रहा है | प्रकृति के प्रत्येक अंश में बदलाव होता जा रहा है |मनुष्य समेत सभी जीवों में उनके स्वरूपों स्वभावों में आदि सभी समय के साथ साथ बदलते जा रहे हैं इन बदलावों को चाहकर भी कोई रोककर नहीं रख सकता है समय जनित परिवर्तन हर किसी को स्वीकार करने पड़ते हैं | बच्चे अपने बचपन को रोककर नहीं रख सकते हैं युवा अपनी जवानी को रोक कर नहीं रख सकते !ये समय जनित बदलाव हैं जो हर किसी को स्वीकार करने ही पड़ते हैं |वही बदलाव समय के साथ साथ महामारी में भी हो रहे हैं |वही समय जनित बदलाव कोरोना महामारी में भी हो रहे हैं इसलिए कोरोना अपना स्वरूप स्वयं नहीं बदल रहा है अपितु सभी व्यक्तियों वस्तुओं आदि की तरह ही समय का प्रभाव कोरोना पर भी पड़ रहा है |उसका भी स्वरूप बदल रहा है स्वरूप बदलने के साथ साथ जैसे सभी के लक्षण बदलते हैं वैसे ही कोरोना के भी लक्षण बदल रहे हैं |
जिन बदलावों से हम पहले से परिचित होते हैं वहाँ तो हमें कोई नया वेरिएंट नहीं लगता है किंतु जिन बदलावों से हम अपरिचित होते हैं उनमें समय के साथ होने वाले छोटे छोटे बदलाव भी हमें नया वेरिएंट लगने लगते हैं जिनसे हम परिचित होते हैं उनके संभावित बदलाव से भी परिचित होते हैं इसलिए उन्हें देखकर नया वेरियंट नहीं लगता है |
महामारियाँ हों या प्राकृतिक आपदाएँ जनता का मनोबल हमेंशा से ही तोड़ती ही रही हैंपुराने समय में जब ऐसी आपदाएँ घटित होती थीं तब आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों की दृष्टि से वर्तमान समय की तरह इतने अच्छे संसाधन नहीं थे इतने सहायक उपकरण नहीं थे ! उपग्रह रडार नहीं होते थे सुपर कंप्यूटरों की बात क्या की जाए कंप्यूटर ही नहीं थे !प्राकृतिक वातावरण के परीक्षण के लिए इतने उचित संसाधन नहीं थे | शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं का परीक्षण के लिए अब की तरह इतने अच्छे साधन नहीं थे |वर्तमान वैज्ञानिकों की तरह न उन्होंने विज्ञान पढ़ी होती थी और न ही उनके पास उतना अच्छा वैज्ञानिक दिमाग होता था | कुल मिलाकर आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं की दृष्टि से देखा जाए तो पुराने समय में उपकरणों का अभाव एवं वैज्ञानिक सोच न होने के कारण महामारी आदि बिषयों में अनुसंधान करना संभव नहीं था | वर्तमान समय का विज्ञान अत्यंत उन्नत है अब तो विज्ञान के द्वारा बहुत कुछ प्राप्त कर लेना संभव है ऐसा बताया जाता है |
वर्तमान समय विज्ञान बहुत विकसित है इसलिए जो कर सकता है वो केवल विज्ञान ही कर सकता है इसीलिए कुछ वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक कहते सुना जाता है कि ईश्वर जैसी कोई चीज है ही नहीं जो है वो सब कुछ विज्ञान ही है |
वेदों पुराणों से संबंधित ज्ञान विज्ञान एवं परंपरा से प्राप्त ज्ञान विज्ञान को अंधविश्वास रूढ़िवादिता पिछड़ी सोच आदि न जाने क्या क्या बोलकर विज्ञानवादियों के द्वारा उस प्राचीन ज्ञान विज्ञान एवं उससे प्राप्त अनुभवों की निंदा की जाती रही है और उसे हर संभव अवैज्ञानिक एवं वहम फैलाने वाली विद्या सिद्ध किया जाता रहा है | सरकारें भी प्रायः इसी मत का समर्थन करती दिखती रही हैं | यही कारण है कि वेदों पुराणों से संबंधित ज्ञान विज्ञान एवं परंपरा से प्राप्त ज्ञान विज्ञान से संबंधित अनुसंधानों को प्रोत्साहित करने में झिझकती रही हैं | उन्हें यह भय हमेंशा सताता रहा है कि उन्हें तथाकथित आधुनिकतावादी एवं वैज्ञानिक समूह अंधविश्वास फैलाने वाला या रूढ़िवादी न मान ले !इसलिए सरकारों में सम्मिलित लोग आधुनिक विज्ञान के झूठ को भी सच से अधिक सम्मान देते ,मानते और समाज को भी मानने के लिए विवश करते रहे हैं | दूसरी ओर वेद पुराण एवं परंपरा से प्राप्त ज्ञान विज्ञान से प्राप्त सच को भी नकारते रहे हैं तथा उसकी आलोचना एवं उपेक्षा करते रहे हैं |
सरकारों में सम्मिलित लोगों एवं वैज्ञानिकों की ऐसी हठधर्मिता ने समाज को कई बार गहरे घाव दिए हैं जो सरकारों को दिखाई नहीं पड़ते हैं जनता देखती भी है समझती भी है किंतु कहे किससे सुनेगा कौन !हर कोई अपने अपने मन की बात कहना चाह रहा है ! वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर प्राकृतिक आपदाओं की तरह ही कोरोना महामारी की भयावहता का वास्तविक स्वरूप सरकारों को देखने और समझने ही नहीं दिया गया | वैज्ञानिकों के कल्पित शब्द जाल से सम्मोहित सरकारों के द्वारा उनकी मनगढ़ंत रिसर्चों का अंधानुकरण करती रही हैं जिसकी कीमत कई बार जनता को जान देकर चुकानी पड़ती रही है |
जिन वैज्ञानिकों के द्वारा वेदपुराण एवं परंपरा से पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त ज्ञान विज्ञान को अंधविश्वास रूढ़िवादिता पिछड़ी सोच आदि का प्रतीक बताया जाता रहा है और खुद को सर्वसक्षम वैज्ञानिक बताया जाता रहा है सरकारें भी उन्हीं की सोच में सहमति जताती रही हैं | ऐसे वैज्ञानिकों एवं उनकी बात बात को मंत्र मान कर अनुशरण करने वाली सरकारों से मेरा प्रश्न है वेदपुराण एवं परंपरागत ज्ञान को यदि आप विज्ञान नहीं मानते तो मत मानिए उससे संबंधित अनुसंधानों को करने के लिए सरकारें ऐसी कोई भारी भरकम धनराशि उपलब्ध नहीं करवाती हैं जिसके बदले उनसे इस प्रकार का कोई प्रश्न करने का नैतिक अधिकार हो कि इतनी बड़ी महामारी में आप क्या करते रहे !किंतु जिस आधुनिक विज्ञान से संबंधित वैज्ञानिकअनुसंधानों के लिए सरकारें भारी भरकम धनराशि आवंटित करती हैं उन्हीं से जुड़े वैज्ञानिकों को सरकारें भी वैज्ञानिक मानती हैं वो लोग भी अपने को सर्व सक्षम वैज्ञानिक मानते हैं ऐसी परिस्थिति में उनकी जवाबदेही बनती है कि वे बतावें कि कोरोना महामारी से जूझती जनता को अपने तथाकथित वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा वे कोई मदद क्यों नहीं पहुँचा सके! महामारी जैसी भीषण आपदा से यदि जनता को स्वयं ही जूझना है तो ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों पर उनके द्वारा दिए गए टैक्स का पैसा खर्च करने का औचित्य क्या है ?
वातावरण में विद्यमान वैज्ञानिकों को यह बताना चाहिए कि इतने उपग्रह राडार आदि वातावरण का अध्ययन करने के लिए जगह जगह लगे हुए हैं हवा में पाए जाने वाले विकारों का लगातार परीक्षण किया जाता है ऐसी परिस्थिति में सन 2019 के मध्य में कोरोना वायरस ने जब वातावरण में प्रवेश करना प्रारंभ ही किया था उसी समय यदि इसे वैज्ञानिकों के द्वारा पहचान लिया गया होता तो उसी समय मॉस्क लगाने जैसे उचित उपाय अपनाकर अपना बचाव किया जा सकता था | ऐसा क्यों नहीं किया जा सका ?
वैज्ञानिकों के द्वारा यदि पूर्वानुमान लगाने की विधा विकसित कर ही ली गई है तभी तो मौसम संबंधी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने का दावा किया जाता है |ऐसी परिस्थिति में महामारी के आने के बिषय में पूर्वानुमान लगाना संभव क्यों नहीं हो पाया ?
महामारी का विस्तार कितना है ये कहाँ से कहाँ तक फैली है इसका प्रसारमाध्यम क्या है किस मौसम का असर कोरोना संक्रमितों पर कैसा पड़ेगा आदि बातों के बिषय में समय रहते बिचार क्यों नहीं किया जा सका है |
प्राचीन काल में राजाओं के छोटे छोटे राज्य हुआ करते थे उन्हें उसी अनुपात में जनता से टैक्स मिला करता था उस टैक्स से प्राप्त धन का कितना अंश महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित अनुसंधानों पर खर्च कर पाते रहे होंगे ये किसी को नहीं पता !सत्ता की ओर से ऐसे बिषयों पर अनुसंधान करने की कोई व्यवस्था होती भी थी या नहीं पता नहीं किंतु उस युग के शासकों में एक बड़ी विशेषता यह होती थी कि वे प्रजा के हितों से समझौता नहीं किया करते थे |
महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित ऐसे गंभीर बिषयों में वैज्ञानिक अनुसंधानों पर राजालोग वर्तमान समय की तरह झूठ को प्रोत्साहित नहीं होने देते थे | इसीलिए किसी वैज्ञानिक की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि भविष्यवाणी करने के नाम पर जिसका जो मन आवे सो बोल जाए जब मन आवे तब अपनी बात से पलट जाए जब मन आवे अपना वक्तव्य बदल दे जब मन आवे झूठ बोल जाए वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर इस प्रकार के हल्के आचरण एवं निराधार झूठी मनगढ़ंत अफवाहें फैलाने की छूट किसी वैज्ञानिक को नहीं होती थी |उस समय का वैज्ञानिक जो कुछ बोलता था उसकी सच्चाई प्रमाणित करनी होती थी | भविष्यवक्ताओं अपनी योग्यता को प्रमाणित करने के लिए
उससमय के वैज्ञानिकों के पास डिग्री डिप्लोमा आदि की व्यवस्था नहीं होती थी इसलिए जो भविष्यवाणी वे करते थे यदि वे सही निकल जाती थीं तो वे भविष्यवक्ता मान लिए जाते थे अन्यथा नहीं | इसी क्रम में जो अपने को मौसम भविष्यवक्ता कहता था उसे मौसम संबंधी प्राकृतिक घटनाओं की भविष्यवाणियाँ दो चार महीने या एक वर्ष पहले राजा को लिखकर देनी पड़ती थीं कि अमुक महीने के अमुक दिन में वर्षा आँधी तूफ़ान आदि घटनाएँ घटित होंगी !उन भविष्यवाणियों का राजा परीक्षण करवाता था जिसने प्रतिशत वे भविष्यवाणियाँ सच निकलती थीं उतने प्रतिशत उस भविष्यवक्ता को प्रमाणित मान लिया जाता था |उसी समय उसे जो पद प्रतिष्ठा पुरस्कार आदि देना होता था वो दे दिया जाता था |
उस समय के शासक इतने ईमानदार होते थे कि जनता से टैक्स रूप में लिया गया एक एक पैसा निरर्थक खर्च नहीं होने देते थे | यही कारण है कि उस समय जिस व्यक्ति को जिस काम के लिए नियुक्त किया जाता था उसे वह कार्य करना होता था कार्य नहीं तो वेतन नहीं |
जलवायुपरिवर्तन ग्लोबलवार्मिंग अलनीना लानिना जैसे जितने भी ऐसे घटक हैं जो मौसम संबंधी घटनाओं को प्रभावित करते हैं इनके मौसम संबंधी घटनाओं पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन अनुसंधान आदि करके भविष्यवाणियाँ करने की क्षमतारखने वालों को ही मौसम भविष्यवक्ता माना जाता था !मौसम भविष्यवक्ताओं के नाम पर पद प्रतिष्ठा सैलरी आदि सुख सुविधाओं को लेने का नैतिक अधिकार उन्हीं का माना जाता था !यदि उनकी भविष्यवाणियाँ गलत होने लगती थीं तो राजा उन्हें पद प्रतिष्ठा सैलरी आदि समस्त सुख सुविधाओं से बंचित कर दिया करता था | राजाओं के कठोर अनुशासन का ही परिणाम था कि वैज्ञानिकों के द्वारा उस समय की जाने वाली मौसम संबंधी भविष्यवाणियाँ सही होने के कारण ही विश्वसनीय होती थीं |
वर्तमान समय में भविष्यवाणियों के नाम पर जिसे जो मन आवे सो कह दें उनका कहा हुआ सही निकल जाए सही निकल जाए तो भविष्यवाणी और गलत निकल जाए तो जलवायुपरिवर्तन ग्लोबलवार्मिंग अलनीना लानिना जैसी न जाने कितनी बिना सर पेअर की निरर्थक बातें सुननी पड़ती हैं ऐसे निरर्थक बहाने सुनने का राजाओं के पास समय कहाँ हुआ करता था | उनका तो सीधा कहना होता था कि यदि अपने को भविष्यवक्ता कहते हो तो सही भविष्यवाणियाँ करो अन्यथा चुप बैठो |
युद्ध में सम्मिलित सैनिकों के सामने जो भी समस्याएँ होती हैं उनका अनुमान लगाकर चलना उनकी अपनी जिम्मेदारी होती है इसी वैशिष्ट्य के लिए तो उन्हें सैनिक माना जाता है | राजा तो उससे केवल दो अपेक्षाएँ रखता था कि या तो विजय प्राप्त करके आएगा यदि ऐसा नहीं हुआ तो सैनिक जीवित नहीं लौटता था | इसी प्रकार से भोजन बनाने वाले रसोइया की जिम्मेदारी होती है कि वो सारी समस्याओं का निराकरण स्वयं करता हुआ अच्छा भोजन बनाकर दे | कुलमिलाकर जलवायुपरिवर्तन ग्लोबलवार्मिंग अलनीना लानिना जैसे व्यवधान तो सभी क्षेत्रों में आते हैं उनका निराकरण स्वयं करते हुए अच्छे परिणाम देना ही तो उसकी विशेषज्ञता है |
राजा उस समय अयोग्य लोगों को योग्य पदों पर बैठा कर महिमामंडित नहीं किया करते थे | उस समय के ईमानदार शासक बादलों की जासूसी करने वालों को मौसमवैज्ञानिक नहीं माना करते थे अपितु इसके लिए उन्हें मौसम संबंधी सही एवं सटीक भविष्यवाणियाँ करनी होती थीं |वर्तमान समय में शासकों की लापरवाही का दंड जनता भोग रही है | जो वैज्ञानिक जिस काम के लिए रखे जाते हैं यदि वो अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर पाते हैं तो उन्हें सैलरी किस बात की दी जानी चाहिए |
भूकंप के बिषय में कुछ भी पता न होने पर भी सरकारों के द्वारा जिन्हें भूकंप वैज्ञानिकों जैसी पदप्रतिष्ठा सुख सुविधा सैलरी आदि सबकुछ उसी जनता के दिए टैक्स से प्राप्त धनराशि से भुगतान किया जा रहा होता है जो धन जनता अपने जीवन संबंधी संकटों को कम करने और भूकंप जैसी मुसीबत में मदद करने में सक्षम वैज्ञानिकों पर खर्च करने के लिए देती है |भूकंप जैसे बिषयों में जो वैज्ञानिक अपने कर्तव्य का निर्वहन ठीक से न कर पा रहे हों जिनसे जनता के उद्देश्यों की पूर्ति संभव न हो उस व्यय को न्यायसंगत कैसे माना जा सकता है |
जिस प्रकार से कुत्ते अपनी पूँछ से न मच्छर मक्खियों का निवारण कर सकते हैं और न ही अपने गुप्तांग ढक सकते हैं |इसके बाद भी वह पूँछ उस कुत्ते को ढोनी ही पड़ती है| उसी प्रकार से जिन वैज्ञानिक अनुसंधानों से जनता की कठिनाइयाँ कम करने में कोई सहयोग मिलता है और न ही जनता को सुख सुविधा उपलब्ध करवाने में ही मदद मिल पाती है इस प्रकार वैज्ञानिक अनुसंधानों पर जनता का धन खर्च करने से पूर्व शासक को बिचार अवश्य करना चाहिए |
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महामारियों से संबंधित अनुसंधानों के बिषय में भी चिकित्सा वैज्ञानिकों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी हुआ करती थी उन्हें महामारियों के प्रारंभ होने से पूर्व महामारियों के बिषय में न केवल पूर्वानुमान लगाना होता था अपितु महामारियों से बचाव के लिए प्रभावी औषधियाँ बनाकर महामारियों के आने से पहले ही रख लेनी होती थीं |
प्राचीन समय में चिकित्सा का उद्देश्य रोगी को स्वस्थ करना माना जाता था इसीलिए चिकित्सा के लिए किसी रोगी के लाए जाने पर चिकित्सक सबसे पहले रोगी की आयु का पूर्वानुमान लगाता था और इसके बाद रोगी स्वस्थ होगा या नहीं !साध्य असाध्य कष्टसाध्य बातों का पूर्वानुमान न केवल लगा लिया करता था अपितु रोगी के परिजनों को भी अवगत करा दिया करता था !इससे चिकित्सकाल में रोगी की मृत्यु अचानक होते बहुत कम देखी जाती थी |यदि किसी चिकित्सक की चिकित्सा के समय में किसी रोगी की मृत्यु अचानक हो जाया करती थी तो उस चिकित्सक की योग्यता में कमी मान ली जाती थी क्योंकि उस मृत्यु का पूर्वानुमान लगाने में वह समर्थ नहीं हो सका |चिकित्सक से अपेक्षा होती थी कि जिस रोगी की वह चिकित्सा कर रहा होता था उस रोगी और रोग के बिषय में चिकित्सक को यह पूर्वानुमान पहले से होना चाहिए कि जिस रोगी की चिकित्सा वह प्रारंभ कर रहा है उस रोगी पर उस चिकित्सा का प्रभाव कैसा पड़ेगा | यदि रोगी की मृत्यु की संभावना थोड़ी भी होती थी तो चिकित्सक इस पूर्वानुमान को रोगी के परिजनों को पहले ही बता दिया करता था |उसके बाद यदि रोगी की मृत्यु चिकित्साकाल में भी हो जाती थी तो इस प्रकार के प्रकरण में चिकित्सक की योग्यता में कोई कमी नहीं मानी जाती थी |
वस्तुतः चिकित्सा का उद्देश्य रोगी को स्वस्थ करना होता है न कि शव तैयार करना !इसलिए चिकित्सालयों में चिकित्सा के उद्देश्य से ही सभी व्यवस्थाएँ जुटानी होती हैं न कि किसी अन्य उद्देश्य से !ऐसी परिस्थिति में चिकित्सा कर्म के लिए शवगृहों की कोई आवश्यकता नहीं होती है इसलिए चिकित्सालयों में शवगृहों का क्या काम !प्राचीन काल में वैद्यों के सान्निध्य में रहकर चिकित्सा करवाने वाले रोगियों को प्रायः मरते नहीं देखा जाता था | क्योंकि यह चिकित्सा के उद्देश्य के विपरीत माना जाता है |
वर्तमान समय में रोग महारोग(महामारी) एवं मौसम आदि के क्षेत्रों में पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई वैज्ञानिक विधा नहीं है |ऐसी परिस्थिति में परिणाम विहीन अनुसंधानों का खर्च बहन करने का बोझ प्राचीन काल में राजा अपनी जनता पर डालना पाप समझता था | उस समय शासक चरित्रवान न्यायप्रिय एवं ईमानदार हुआ करते थे जो काम नहीं उसका वेतन कैसा !वर्तमान शासकों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती है | सरकारों से सैलरी लेने वाले जो अधिकारी सरकारी जमीनों पर भू माफियाओं का कब्ज़ा करवाते हैं ऐसे अपराधियों की सैलरी का बोझ भी सरकारें जनता पर डालती हैं ऐसा प्रायः सरकारी सभी विभागों में हो रहा है | इसे न्याय संगत शासन व्यवस्था नहीं कहा जा सकता है |
इस बिषय में कोरोना महामारी ने तो इतना अधिक डरवा दिया है कि अपने जीवन काल में महामारी का डर शायद ही कभी मन से निकले |
एक वर्ष से अधिक का समय बीत रहा है महामारी से मुक्ति दिलाने की तवा महामारी जैसी इतनी बड़ी मुसीबत से जनता बहुत भयभीत है | उससे भी बड़ा दुःख इस बात का है कि महामारी ने न जाने कितने अपनों को छीन लिया है | पहली बार जनता ने अपनी स्वास्थ्य समस्याओं के बिषय में अपने चिकित्सकों को बेबश होते देखा है | जिन वैज्ञानिक अनुसंधानों पर समाज गर्व किया करता है यह कैसा समय आया है वही वैज्ञानिक अनुसंधान आज समाज का सहयोग देने की स्थिति में नहीं हैं | इतनी बड़ी महामारी आने के बिषय में वे कुछ कुछ पता ही नहीं लगा सके
हमारे उन्नत वैज्ञानिक अनुसंधानों पर हमें गर्व है किंतु अत्यंत उन्नत विज्ञान के कारण ही जहाँ एक ओर चंद्रमा तक पहुँचा जा सका !चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत बड़ी प्रगति हुई है एक से एक बड़े और सूक्ष्म आपरेशन करके बहुतों का जीवन बचा लिया जाता रहा है वहीं दूसरी ओर कोरोना जैसी महामारियाँ एवं प्राकृतिक आपदाएँ आज भी विज्ञान के लिए चुनौती बनी हुई हैं |कोरोना जैसी महामारी एवं भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान जैसी प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में वैज्ञानिक अनुसंधान तो हमेंशा ही होते रहे हैं किंतु ऐसे बिषयों में उन अनुसंधान से कुछ काल्पनिक मनगढ़ंत बातों के अतिरिक्त कुछ ऐसा नहीं निकल पाता है जिससे ऐसे अवसरों पर डरी सहमी जनता को कुछ तो मदद मिल सके | अभी तक की स्थिति यह है कि महामारी और प्राकृतिक आपदाओं में कितनी भी जनधन की हानि क्यों न हो जाए वेबश विज्ञान से कोई मदद नहीं मिल पाती है |
पिछले सवा वर्ष में वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं के द्वारा कोरोना महामारी के बिषय में जब जो कुछ कहा जाता रहा है वो सब कुछ गलत ही निकलता रहा है !अब जनता को भी लगने लगा है कि महामारी जैसे कठिन बिषयों पर अनुसंधान करना वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधान प्रणाली के बश की बात नहीं है!या इससे संबंधित वैज्ञानिकों में अनुसंधान क्षमता का अभाव है! या जिस प्रकार के अनुसंधानों से ऐसी घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान लगाए जा सकते हैं वैसे अनुसंधान के लिए सरकार पर्याप्त संसाधन नहीं उपलब्ध करवा पा रही है या कि ऐसे अनुसंधानों पर खर्च करने के लिए सरकार जो धन टैक्स रूप में जनता से लेती है वह पर्याप्त नहीं होता है अर्थात कम पड़ जाता है !
इनमें से ऐसा कौन सा कारण कोरोना जैसी महामारियों के समय या फिर प्राकृतिक आपदाओं के समय जब वैज्ञानिक अनुसंधानों की आवश्यकता जनता को सबसे अधिक होती है तभी वैज्ञानिक अनुसंधान जनता का साथ छोड़ देते हैं | ऐसी बड़ी प्राकृतिक आपदाओं से जनता अकेली जूझती रहती है |इसीलिए कोरोना महामारी से भयभीत जनता का विश्वास वैज्ञानिक अनुसंधानों से पहली बार टूटा है|
सरकारों और वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं को भी यह सोचना चाहिए कि जनता की जिंदगी यदि महामारियों और प्राकृतिक आपदाओं की दया कृपा पर ही जीनी है तो वैज्ञानिक अनुसंधानों के संचालन करने का उद्देश्य ही क्या रह जाएगा | महामारियाँ और प्राकृतिक आपदाएँ यदि जीवन ही निगल जाएँगी तो इतने उन्नत विज्ञान का होगा क्या ?चंद्रमा या मंगल पर पहुँचने में सफलता पाकर भी यदि उसका सुख भोगने के लिए जीवन ही नहीं बचेगा तो ऐसी वैज्ञानिक उन्नति किस काम की !
12 मई 2021 को महामारी की समीक्षा के लिए गठित स्वतंत्र विशेषज्ञों की समिति ने जारी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि कोरोना को विकराल रूप लेने से पहले रोका जा सकता था !मेक इट द लास्ट पैंडेमिक’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट में समिति ने वैश्विक स्तर पर दूसरी महामारी को फैलने से रोकने के लिए डब्ल्यूएचओ में आक्रामक सुधार लाने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत बनाने पर जोर दिया है |खराब समन्वय, देरी और आनाकानी के चलते दुनिया आने वाली
महामारी के चेतावनी संकेतों को नहीं समझ पाई।’भविष्य में ऐसी महामारी के प्रसार पर लगाम
लगाने के लिए वैश्विक चेतावनी प्रणाली को दुरुस्त किया जाना बेहद जरूरी है।
इस रिपोर्ट के संदर्भ में मेरा निवेदन मात्र इतना है कि यदि किसी संभावित महामारी के प्रसार पर लगाम लगाने के लिए महामारी के बिषय में पूर्वानुमान लगाना वैज्ञानिक आवश्यक मानते हैं चेतावनी संकेतों को समझना विज्ञान भी आवश्यक मानता है किंतु वैज्ञानिकों के पास ऐसा है क्या जिसके आधार पर उन्हें ऐसा लगता है कि वे निकट भविष्य में वैश्विक चेतावनी प्रणाली को दुरुस्त करके महामारियों का पूर्वानुमान लगाने में सफलता प्राप्त कर लेंगे |वैज्ञानिक अनुसंधानों की वर्तमान क्षमता देखते हुए मुझे ऐसा होने की संभावना बिल्कुल नहीं लगती है |
इसी प्रकार से तो स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली की भी परिकल्पना है
जनता को भी अब लगने लगा है कि वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं को महामारियों के बिषय में अनुसंधान करने के लिए चार सौ वर्ष तो दिए जा चुके आखिर कितना समय और दिया जाना चाहिए तब वे महामारियों के बिषय में किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे |जनता को भी वैज्ञानिकों की ऐसी मजबूरियाँ पता लगनी चाहिए |
महामारी सन् 1720, फिर 1820, इसके बाद 1920 और अब 2020 में आई है | कुलमिलाकर पिछले चार सौ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि महामारी हर सौ वर्ष बाद आती रही है किंतु महामारियों का पूर्वानुमान लगाने की दृष्टि से जितने हम सन् 1720 में असमर्थ थे उतने ही असमर्थ 2020 में भी हैं | आखिर इन चार सौ वर्षों से जितने भी अनुसंधान किए गए इससे उस जनता को क्या मिला जिससे टैक्स लेकर सरकारें ऐसे अनुसंधानों पर धन खर्च किया करती हैं |सच्चाई यही है कि सन् 1720 में महामारी से जनता अकेले जूझी होगी आज भी जनता ही जूझ रही है उसे ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों से कोई मदद नहीं मिली जो पिछले चार सौ वर्षों से निरर्थक ही चलाए जाते रहे हैं | महामारी से संबंधित पूर्वानुमानों के अनुसंधान कितने कारगर हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है |
इसी प्रकार से ऐसे मौसमविभागकी स्थापना हुए 144 वर्ष हो गए उस समय पश्चिम बंगाल में एक बड़ा हिंसक तूफ़ान आया था और अभी सन 2018 में पूर्वोत्तर भारत में जितने भी बड़े हिंसक तूफ़ान आए न तब पूर्वानुमान लगाया जा सका और न अब !उससे जनता तब भी अकेले जूझी होगी आज भी जनता ही जूझ रही है उसे ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों से कोई मदद नहीं मिली जो पिछले एक सौ चवालीस वर्षों से चलाए जाते रहे हैं |मौसम से संबंधित संबंधित पूर्वानुमानों के अनुसंधान कितने कारगर हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है |ये हमारे मौसम संबंधी वैज्ञानिक अनुसंधानों की 144 वर्षों की उपलब्धि है |
भारत सरकार की और से अब स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली के तहत महामारियों के बिषय में पूर्वानुमान लगाए जाने पर बिचार किया जा रहा है इसमें IMDको भी सम्मिलित किया जा रहा है किन्तु जब उसकी अपनी हालत इतनी पतली है तब वह स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली को सफल बनाने में कैसे मददगार सिद्ध होगा !
प्राकृतिक क्षेत्र में अक्सर यह अनुभव किया गया है कि केवल कोरोना जैसी भयंकर महामारी ही नहीं अपितु भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफान च्रकवात ,बज्रपात या फिर बढ़ता वायु प्रदूषण का बढ़ता स्तर आदि जितने भी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं ने जब जब विकराल स्वरूप धारण किया है तब तब भयभीत जनता बड़ी आशा से मदद पाने की इच्छा लेकर अपने वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं की ओर देखती है किंतु दुर्भाग्य से महामारी प्राकृतिक आपदाओं जैसे कठिन समय में जब जीवन के लिए विज्ञान की जब सबसे अधिक आवश्यकता होती है तब वही अनुसंधान धोखा दे जाते हैं |
ऐसे कठिन बिषयों का वैज्ञानिक अनुसंधान करने में सरकारों के द्वारा लगाए गए लोगों से जब उनकी असफलता का कारण पूछा जाता है तो वो इधर उधर की बातें करने लगते हैं या कुछ ऐसे ऊटपटाँग आंकड़े पेश करके मीडिया को भटका देते हैं जिनका सच्चाई से कोई लेना देना ही नहीं होता है मीडिया उन कल्पित बातों को विज्ञान बता बता कर जनता को भ्रमित किया करता है |
इसी शोर शराबे के बीच वैज्ञानिक एक बार धीरे से कह देते हैं कि मैंने तो सरकार को पहले ही बताया था किंतु सरकार ने सुना ही नहीं ! ऐसी बातें सुनते ही विपक्ष की बाछें खिल जाती हैं यहीं से राजनीति शुरू हो जाती है विपक्ष ऐसी वैज्ञानिक विफलताओं के लिए सरकारों को कटघरे में खड़ा करने लगता है सरकारें सफाई देने लगती हैं लोग मुख्य मुद्दे से भटक जाया करते हैं सत्तापक्ष और विपक्ष के वाद विवाद में मीडिया उलझ जाया करता है आम जनता मीडिया के मुद्दों में रूचि लेने लगती है | उधर महामारी या प्राकृतिक आपदा से जूझ रही जनता बिल्कुल अकेली पड़ चुकी होती है उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता है |
विगत एक दो दशकों में जितनी भी प्राकृतिक आपदाएँ घटित हुईं उनमें से एक आध को छोड़कर अधिकाँश के बिषय में किसी भी प्रकार का कोई पूर्वानुमान वैज्ञानिकों के द्वारा नहीं बताया जा सका था और बाद में कह दिया जाता है कि मैंने तो पहले ही बता दिया था सरकार ने सुना ही नहीं | केदारनाथ ,चेन्नई ,केरल और कश्मीर आदि की बाढ़ में यही हुआ बाद में अपनी आलोचना से आहत होकर उन उन प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने मुख खोलने की हिम्मत की और सच्चाई जनता के सामने सच्चाई रखी कि इस घटना के बिषय में वैज्ञानिकों के द्वारा कोई पूर्वानुमान हमें पहले से नहीं बताया गया था |
कोरोना जैसी महामारी के बिषय में कोई पूर्वानुमान पहले से तो बताया ही नहीं जा सका और जब जब जो जो कुछ बताया जाता रहा वो सब कुछ गलत निकल जाता रहा उसे ढकने के लिए एक नया पूर्वानुमान बोल दिया जाता रहा वो भी गलत निकल जाता रहा था इन दोनों को ढकने के लिए कोई ऐसी डरावनी अफवाह फैलाई जाती रही कि महामारी से डरी सहमी जनता उन दोनों गलत पूर्वानुमानों को भूलकर अब नए उस डरावने पूर्वानुमान को सुन कर सहम गए जो बाद में बोला गया था |
मौसम के बिषय में कोई पूर्वानुमान गलत निकले तो हम सही पूर्वानुमान नहीं निकाल सके इसकी जगह मौसम धोखा दे गया बता दिया जाता है |
मानसून आने जाने के बिषय में कोई पूर्वानुमान कभी सही नहीं निकला तो यह स्वीकार करने के बजाय कि मानसून आने जाने की सही तारीखों का अनुमान लगाने में हम असफल रहे !कहा गया कि मानसून आने जाने का पैटर्न बदल रहा है इसलिए इसके आने जाने की तारीखों में बदलाव किया जा रहा है |
दीर्घावधि मौसम पूर्वानुमान कभी सही नहीं निकला !इसके लिए भी मौसम को धोखेबाज बताया गया अपनी गलती कभी नहीं स्वीकार की गई |
हिंसक आँधी तूफानों के बिषय में पूर्वानुमान न लगाए जाने पर कहा जाता है कि चुपके से चक्रवात आ जाते हैं पता ही नहीं लगता !
कोरोना जैसी महामारियों के समय में भी यही खिलवाड़ होता रहा !कोरोना संक्रमण के बढ़ने घटने आदि के बिषय में कोई पूर्वानुमान बताया जाता रहा उसके गलत निकल जाने पर अपनी गलती स्वीकार करने के बजाय कभी महामारी का म्यूटेशन होने को कभी नया वैरियंट आने को कारण बताकर अपनी कमी को छिपा लिया जाता है |
वस्तुतः कोई सैनिक जब सीमा पर लड़ने जाता है तो वो शत्रु को पराजित करने के लिए जो भी निर्णय लेता है वो शत्रु के सभी संभावित म्युटेशनों एवं नए वैरियंटों को ध्यान में रखकर लेता है तभी वो शत्रु को पराजित कर पाता है | यदि वो ऐसा न करे तो उसकी अपनी थोड़ी भी चूक उसकी अपनी जान पर भारी पड़ सकती है|इसलिए अपनी भी जान का जोखिम सामने देखकर उसे संभावित सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्णय लेना पड़ता है | ये उसकी अपनी जिम्मेदारी होती है |
सैनिकों की उत्साहपूर्ण मजबूत देखकर शत्रु का आधा मनोबल युद्ध प्रारंभ होने से पहले ही टूट टूट जाता है इसलिए युद्ध में बिजय पाना आसान होता है दूसरी ओर प्राकृतिक आपदाओं और महामारियों के कारणों को खोजने की या पूर्वानुमान पता लगाने की जिम्मेदारी जो लोग सँभाल रहे होते हैं वे कुछ भी न करें तो भी उनके अपने लिए न कोई शारीरिक जोखिम होता है और न ही कोई आर्थिक !इसीलिए संबंधित बिषय में जब जो मन आता है बोल दिया जाता है उसके गलत हो जाने पर कुछ और बोल दिया जाता है | इतनी स्वछंदता जिस भी विभाग या क्षेत्र में होगी उससे अपक्षित परिणामों की आशा किसी को नहीं करनी चाहिए |
प्राकृतिक आपदाओं या महामारी से संबंधित अनुसंधानों के बिषय में जब जब आपदाएँ आई हैं तब तब उनका पूर्वानुमान लगाने में विज्ञान असफलहुआ है | ऐसे समय में आवश्यकता इस बात की थी कि इस संकल्प के साथ कमियों को खोजा जाता कि ऐसी परिस्थिति भविष्य में दोबारा पड़ने पर इस प्रकार की असफलता न मिले किंतु आज भूकंप संबंधी असफलता मिलने पर कुछ गहरे गड्ढे खोजकर उसमें कोई मशीन फिट कर के भूकंपों को खोजने का रिसर्च यह जानते हुए शुरू कर दिया जाता है कि इससे कोई परिणाम नहीं निकलेगा | मौसम के बिषय में ऐसी परिस्थिति आने पर कुछ उपग्रह रडार आदि और अधिक लगाने की बात कर दी जाती है | कुछ सुपर कंप्यूटर खरीदने आदि का संकल्प ले लिया जाता है | यह सब देख सुन कर उस समय तो लगता है कि अब भविष्य में हमारा विज्ञान कभी इस प्रकार से असफल नहीं होगा किंतु फिर वही होता है |हर बार संसाधनों की कमी और रिसर्च की आवश्यकता बता कर आगे बढ़ जाया जाता है |
सरकारों से लेकर महामारियों के बिषय में अनुसंधान करने वालों तक को यह सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए कि महामारियों के बिषय में हमारे द्वारा कोई ऐसी तैयारी करके नहीं रखी जा सकी थी जिससे महामारियों को समझने में उनका पूर्वानुमान लगाने में संक्रमितों की संख्या घटने बढ़ने का कारण समझने में या इसका पूर्वानुमान लगाने में थोड़ी भी मदद मिल सकी होती जिससे महामारी से भयभीत जनता को थोड़ी भी मदद पहुँचाई जा सकी होती |ऐसी कोई भी तैयारी पहले से करके नहीं रखी जा सकी थी |
केवल भारत में ही नहीं अपितु इटली अमेरिका आदि उन्नत चिकित्सा पद्धतियों की दृष्टि से इतने सक्षम देश भी इस एक कमजोरी के कारण इतना नुक्सान उठाने पर विवश हुए | चिकित्सा की दृष्टि से भारत के चिकित्सकों ने भी अपनी जान जोखिम में डालकर अपने परिवारों का मोह त्यागकर जो समर्पण दिखाया है उनके परिजनों अभिभावकों ने ऐसी बिषम परिस्थिति में असहाय भयभीत जनता की मदद करने हेतु चिकित्सकों को उनके कर्तव्यपथ पर डटे रहने का संबल दिया है इस सबके आगे श्रद्धा से सिर झुक जाना स्वाभाविक है |मुझे विश्वास है कि चिकित्सा से संबंधित अनुसंधानों से भी समय रहते यदि कुछ भी मदद मिली होती तो संभव है उन चिकित्सकों का भी बहुमूल्य जीवन बचा लिया जाता जनता की जीवन रक्षा यज्ञ में जिन्होंने अपने प्राणों की आहुतियाँ दी हैं |
सीधे सीधे यह न कहकर कि ये सब बहुत कठिन है ऐसे कठिन बिषयों पर अनुसंधान करना मेरे बश का नहीं है मैं यह नहीं कर पाऊँगा ये जिम्मेदारी किसी अन्य सक्षम वैज्ञानिक अनुसंधान प्रणाली को दीजिए जो ऐसे बिषयों पर इस बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतर सके |
की बातें करने लगते हैं | तो दुःख होता है मुझे नहीं आता है ये बहुत कठिन है ये
इसके बाद फिर कुछ अन्य यंत्रों संसाधनों की आवश्यकता इस अंदाज में बता दी जाती है कि ये ख़रीदा जाएगा वो लाया जाएगा वो लगाया जाएगा तब ये सब पता लगाने में आसानी होगी | ऐसा लगता है जब ऐसा कर लिया जाएगा तब सबकुछ ठीक हो जाएगा किंतु दोबारा फिर धोखा मिलता है फिर कुछ अन्य डिमांड रख दी जाती है | इस प्रकार से अनुसंधान मौके पर कभी काम नहीं आ पाते हैं |
जिनकी अनुसंधान प्रक्रिया का सारा खर्च जनता उठाती है | अनुसंधान हेतु आवश्यक संसाधन जुटाने से लेकर उन पर खर्च होने वाला संपूर्ण धन टैक्स रूप में जनता ही तो सरकारों को देती है जिसे सरकारें ऐसे अनुसंधानों पर खर्च किया करती हैं |
महामारी एक खोज !
महामारियों के निर्मित होने का वास्तविक कारण समय का बिगड़ना होता है समय बनता बिगड़ता कभी दिखाई नहीं पड़ता है और न ही अच्छे या बुरे समय का देखा जाना संभव नहीं है सूर्यादि ग्रहों नक्षत्रों में आकाश पृथ्वी में एवं प्राकृतिक वातावरण में होने वाले अच्छे या बुरे परिवर्तनों को देखकर इस बात का अनुमान लगा लिया जाता है कि कब कैसा समय चल रहा है | समय के धरातल पर ये बहुत सूक्ष्म संकेत होते होंगे जिन्हें समझना सामान्य बात नहीं है इसका अनुभव केवल समयसाधक ही कर सकते हैं |
समय का सबसे पहला प्रभाव सूर्यादि ग्रहों नक्षत्रों एवं आकाश आदि पर पड़ता है जिससे उनका रंग रूप आकार प्रकार आदि में उस प्रकार के परिवर्तन होते हैं जैसा समय चल रहा होता है किंतु इसे देखकर इसके आधार पर भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान लगा पाना भी बहुत कठिन काम है इसलिए इसे केवल सूर्यादि ग्रहों नक्षत्रों एवं आकाशीय परिवर्तनों से प्राप्त संकेतों के बिषय में अनुसंधान करने वाले साधक ही समझ सकते हैं |
ग्रहनक्षत्रों एवं आकाशीय परिस्थितियों को प्रभावित करता हुआ समय का यह प्रभाव इसीक्रम में क्रमशः मौसम संबंधी प्राकृतिक वातावरण को प्रभावित करने लगता है उसके प्रभाव से मौसम संबंधी अच्छी या बुरी घटनाएँ घटित होने लगती हैं जिन्हें मौसम संबंधीपरिवर्तनों पर लगातार अनुसंधान करते रहने वाले प्रकृतिसाधक ही समझ पाते हैं | इसप्रकार से ग्रह नक्षत्रों एवं मौसमसंबंधी गतिविधियों को प्रभावित करता हुआ अच्छे या बुरे समय का यह प्रभाव इसी क्रम में तालाबों नदियों समुद्रों ग्लेशियरों पहाड़ों आदि पर पड़ने लगता है और उनके आकार प्रकार स्वरूप स्वभाव आदि में अच्छे बुरे समय के अनुशार ही परिवर्तन होने लगते हैं ऐसे परिवर्तनों का विशेष अनुभव वही लोग कर सकते हैं जो ऐसे बिषयों पर अनुसंधान आदि के उद्देश्य से लंबे समय से लगे हुए हैं अथवा अन्य जो लोग भी जिस किसी भी कारण से ऐसे प्राकृतिक प्रतीकों के सान्निध्य में अधिक समय को बिताते हुए इन परिवर्तनों पर नजर बनाए रहते हों वही इनके बिषय में अनुभव कर सकते हैं |
इसके बाद समय का यह अच्छा बुरा प्रभाव पेड़ पौधों बनस्पतियों फूलों फलों फसलों आदि पर इसी रूप में पड़ने लगता है समय प्रभाव से पेड़पौधों बनस्पतियों फूलों फलों फसलों आदि में उसीप्रकार के बदलाव आने लगते हैं जिनका अनुभव उन्हीं बनस्पति विद्वानों मालियों किसानों आदि उन लोगों को होते हैं जिनका अधिकाँश समय प्रकृति के इन्हीं अंगों के सन्निकट रहकर इन्हीं के बिषय में अनुभव किया करते हैं |
इसीक्रम में इसके बाद समय का प्रभाव क्रमशः पशुओं पक्षियों समेत समस्त जीव जंतुओं आदि पर पड़ने लगता है जिसके कारण उनके स्वभाव स्वाद आहार बिहार रहन सहन सोने जगने आदि में उस प्रकार के बदलाव आने लग जाते हैं उन बदलावों का विशेष अनुभव उन्हीं लोगों के पास होता जो जिस प्रकार के जीव जंतुओं के सान्निध्य में जितना अधिक समय बिताते हैं |
सभी जीव जंतुओं के साथ साथ अच्छे और बुरे समय का यह प्रभाव मनुष्यों पर भी पड़ने लगता है उनके सोच बिचार स्वभाव स्वाद आहार बिहार रहन सहन सोने जागने एवं स्वास्थ्य आदि में उसी प्रकार के बदलाव आने लग जाते हैं और समय के उस प्रभाव से वे सभी प्रभावित होने लग जाते हैं |
कोरोना महामारी भी बुरे समय का ही परिणाम है जिसमें सारा विश्व परेशान है लाखों लोगों की मृत्यु हो चुकी है अधिकांश लोगों का व्यापार बर्बाद हो चुका है और भी सभी प्रकार से नुक्सान हो चुका है इसे किसी अच्छे समय का परिणाम तो नहीं ही माना जा सकता है |
महामारियाँ भी बुरे समय के प्रभाव से ही पैदा होती हैं उस बुरे समय का संचार प्रारंभ होने के बाद भी मनुष्यों तक पहुँचते पहुँचते वर्षों का समय बीच में यूँ ही बीत जाता है अपने अवतरण के क्रम में ये जब जहाँ पहुँच पाती हैं समस्त पड़ावप्रतीकों में महामारियों के लक्षण प्रकट होते हैं जिसे उन उन पड़ावप्रतीकों को समझने वाले विद्वान साधक लोग उनका अनुभव करके उनके आधार पर निकट भविष्य में संभावित महामारी जैसी घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान भी लगा लिया करते हैं |महामारियों के पड़ाव प्रतीकों से हमारा अभिप्राय उन प्रतीकों से है जिनसे गुजरते हुए महामारियाँ मनुष्यों तक पहुँच पाती हैं |
समय के प्रभाव से ही पैदा होने वाली महामारियाँ ग्रह नक्षत्रों से होती हुई वर्षा आदि मौसम संबंधी घटनाओं को प्रभावित करने लगती हैं उसके परिणाम स्वरूप मौसमी घटनाओं में विकृति आने लगती है वे जैसी हमेंशा से घटित होती रही होती हैं उसी के अनुशार उनसे जिस समय जहाँ जैसे जब घटित होने की अपेक्षा रखी जाती है वैसी न घटित होकर प्रत्युत ऐसा हिंसक स्वरूप धारण कर लिया करती हैं कि वर्षा के नाम पर बाढ़ आती है या सूखा पड़ता है या वर्षा के साथ साथ हिंसक बिजली गिरती है बार बार बादल फटने की घटनाएँ घटने लगती हैं | सामान्य आँधी की जगह भीषण हिंसक तूफान आने लगते हैं |बार बार भूकंप आने लगते हैं | बड़े बड़े पहाड़ एवं हिमखंड टूटने लगते हैं | भारी मात्रा में वायु प्रदूषित होने लगती है | ऐसी और भी बहुत सारी प्राकृतिक परिस्थितियाँ अप्रत्याशित रूप से बिगड़ने लगती हैं | यह सब मौसम पर पड़ने वाला महामारी का प्रभाव ही होता है | इससे अनुमान लगता है कि महामारी अब पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश कर चुकी है | इसके बाद भी मनुष्यों तक पहुँचने में वर्षों का समय लग जाता है |
महामारियों प्रभाव से प्रभावित बिगड़े हुए मौसम संबंधी प्राकृतिक वातावरण का प्रभाव पेड़ पौधों बनस्पतियों बनौषधियों आदि पर पड़ता है उससे फूलों फलों पत्तों एवं खेतों में बोई गई फसलों के आकार प्रकार स्वभाव स्वरूप गुणों लक्षणों में न केवल विकृति आने लगती है अपितु ये सब दूषित होने लगते हैं इन्हें खाने पीने से मनुष्य भी रोगी होने लगते हैं !कुलमिलाकर महामारियों से प्रभावित वातावरण में साँस लेने से मनुष्य आदि सभी प्राणी महामारियों से प्रभावित होने लगते हैं |सुदूर आकाश से लेकर गहरे पाताल तक महामारियों का विस्तार होता है महामारियों का बिषैलेपन से वातावरण में विद्यमान हवा बिषैली हो चुकी होती है उसी में साँस लेनी पड़ती है महामारियों में अंतरगम्यता इतनी इतना अधिक होती है कि महामारियों का बिषैलापन शाक सब्जियों फूलों फलों के अंदर प्रवेश करके उन्हें संक्रमित कर देता है | यह बिषैलापन पहाड़ों में प्रवेश करके उतने समय के लिए बड़े बड़े पहाड़ों का रंग बदल देता है उनकी परछाईं में अप्रत्याशित परिवर्तन होते अनुभव किए जाते हैं |
महामारियों से युक्त वायु इतनी अधिक शक्तिशाली हो जाती है कि बड़े बड़े पहाड़ों हिमखंडों आदि में प्रवेश करके उन्हें विदीर्ण करने लगती है जिससे उनके अतिविशाल खंड टूट टूट कर गिरने लगते हैं | यह शक्तिशाली वायु पृथ्वीके अंदर सुदूर गहराई तक प्रवेश करके पृथ्वी में बार बार कंपन पैदा करने लगती है | इस वायु के बादलों में प्रवेश करते ही बादल फटने की घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं| इसके सामान्य हवाओं से टकराते ही बज्रपात जैसी हिंसक घटनाएँ घटित होने लगती हैं | महामारी से संपन्न हवाएँ समुद्र में प्रविष्ट होकर सुनामी जैसी बड़ी हिंसक घटनाओं को जन्म देते अनुभव की जाती हैं |
महामारीजनित प्रभाव से जीव जंतुओं का स्वभाव आहार विहार स्वाद आदि बदलने लगता है उनमें भी बेचैनी बढ़ने लगती है टिड्डियों पक्षियों और चूहों का प्रजनन अधिक होने से इनकी संख्या अचानक बहुत अधिक बढ़ जाती है जो महामारी को प्रसारित करने में सहायक होती है यह अतिरिक्त संख्या तभी तक रहती है जब तक महामारी का समय रहता है महामारी समाप्त होने के साथ ही अतिरिक्त संख्या वाले जीव समय प्रभाव से स्वतः समाप्त होते देखे जाते हैं |
महामारीजनित प्रभाव सभी जीव जंतुओं की तरह ही मनुष्यों पर भी पड़ता है मनुष्यों में सभी प्रकार के ऐसे शारीरिक रोगों की संभावना पैदा कर देता है जिससे मनुष्य शरीर संक्रमित होकर अनेकों प्रकार के ऐसे रोगों से संक्रमित होने लगते हैं जिन्हें लक्षणों के आधार पर पहचान पाना संभव नहीं होता है | महामारी जनित प्रभाव से ऐसे रोगों में लाभ पहुँचाने वाली प्रायः सभी औषधियाँ गुण रहित एवं निर्वीर्य हो जाती हैं जिससे महामारी में होने वाले रोगों से मुक्ति दिलाने की क्षमता समाप्त हो जाती है |
महामारी जनित प्रभाव के कारण मनुष्यों में मानसिक समस्याएँ बढ़ने लग जाती हैं बेचैनी घबड़ाहट उत्तेजना उन्माद की भावना पनपने लगती है जिसके कारण कई देश आपस में एक दूसरे से युद्ध के लिए उतावले हो उठते हैं कुछ देशों में अकारण भी आपसी तनाव पैदा होते देखा जाता है तरह तरह की आतंकी घटनाओं बमविस्फोटों तथा सामाजिक दंगों एवं आंदोलनों से अपने ही शासकों के विरुद्ध षड्यंत्र रचे जाने लगते हैं | ऐसे समय में किसी का मन स्थिर नहीं होता है उनके मन में चेतना का ह्रास होने लगता है | इस प्रकार से बहुत बड़ी संख्या में लोग महामारियों के प्रकोप से पीड़ित होते देखे जाते हैं !
ब्यभिचार और भ्रष्टाचार प्रधान लोग एवं देश प्रदेश शहर आदि अन्य लोगों की अपेक्षा महामारियों के प्रकोप से अधिक पीड़ित होते हैं | सात्विक उचित एवं अनुकूल आहार बिहार संयम सदाचार ब्रह्मचर्य पूर्वक ईश्वर का आराधन करके महामारियों के प्रकोप से अपना बचाव करने में काफी मदद मिलती है |
ऐसी परिस्थिति में सभी प्रकार के प्रकृति में उभरने वाले लक्षणों एवं सभीप्रकार की प्राकृतिक परिस्थितियों का अनुसंधान करके महामारी जैसी घटनाओं का पूर्वानुमान महामारियों के प्रारंभ होने के काफी पहले लगाया जा सकता है | कोरोना महामारी भी समय के संचार से ही संबंधित है बुरे समय के प्रभाव से महामारी जब प्रारंभ होनी होगी तब इसका भी प्रभाव सबसे पहले ग्रहों नक्षत्रों आदि आकाशीय परिस्थितियों पर ही पड़ा होगा उससे इनमें भी उस प्रकार के महामारी को जन्म देने योग्य लक्षण उभरे होंगे | जिसे उससे संबंधित विशेषज्ञ लोग ही समझ पाए होंगे इसके बाद बुरे समय के प्रभाव से मौसमसंबंधी गतिविधियाँ प्रभावित हुई होंगी उन्हें मौसम संबंधी विद्वान ही समझ पाए होंगे |
ऐसी परिस्थिति में महामारियों के बिषय में किसी को कोई अनुसंधान करना ही होगा तो इसका अनुसंधान समय के परिवर्तन से प्रारंभ करना होगा क्योंकि महामारियों के पैदा होने का सबसे बड़ा कारण बुरे समय का संचार होता है | महामारी को वहाँ यदि नहीं पकड़ा जा सका तो ग्रहों नक्षत्रों आदि खगोलीय परिवर्तनों में महामारी का प्रभाव देखते ही महामारी को वहाँ पर पकड़ लिया जाना चाहिए | यदि वहाँ भी ऐसा कर पाना संभव न हो तो महामारी जब प्राकृतिक वातावरण में सम्मिलित होकर मौसम संबंधी अनेकों प्रकार के प्राकृतिक उपद्रव करने लगे प्राकृतिक आपदाएँ घटित होने लगें उन सभी प्राकृतिक घटनाओं का सम्मिलित अनुसंधान करके महामारियों का आगमन हो चुका है ऐसा पता लगा लिया जाना चाहिए | यदि वहाँ भी महामारियों का चिन्हित कर पाना संभव न हो तो पेड़पौधों फूलों फलों एवं फसलों आदि में उभरने वाले सूक्षम परिवर्तनों के आधार पर महामारी की उपस्थिति का अनुमान लगा लिया जाना चाहिए | यदि ऐसा न हो तो पशु पक्षियों एवं कीट पतंगों के स्वभाव विरुद्ध व्यवहार को तथा मनुष्यों में अकारण बढ़ने वाले बेचैनी उत्तेजना उन्माद आंदोलन भावना सामजिक दंगे बम विस्फोट आदि आतंकी घटनाओं बढ़ते भ्रष्टाचार एवं बढ़ते ब्यभिचार के आधार पर महामारियों के आगमन के बिषय में पूर्वानुमान लगा कर प्रतिरोधक उपाय प्रारंभ कर लिए जाने चाहिए |
महामारियों को यदि यहाँ तक भी पकड़ा नहीं जा सका तो इसके बाद मनुष्यों के हाथ से सब कुछ निकल चुका होता है अर्थात मनुष्य के करने लायक कुछ बचता ही नहीं है फिर तो महामारियाँ जो करती हैं वही होता है | महामारियाँ जहाँ एक ओर प्राकृतिक वातावरण को अपने अनुकूल बना लेती हैं वहीं खाने पीने वाली सभी वस्तुओं को अपनी सहायक बना लेती हैं यहाँ तक कि समस्त औषधियों आदि पर महामारियों का प्रभाव इतना अधिक होता है कि महामारियों से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से जो औषधियाँ महामारी से पीडित रोगियों को दी जाती हैं वे रोगियों के शरीरों में पहुँचकर उनके उन्हीं रोगों को बढ़ाने में सहायक होने लगती हैं |
ऐसी परिस्थिति में वे औषधियाँ यदि लाभप्रद हो भी जाएँ और महामारी से संक्रमितों को रोगमुक्ति दिलाने भी लगें तो जब खाने पीने की वस्तुएँ वही रहेंगी वातावरण में व्याप्त हवा वही रहेगी जिसमें साँस लेना होता है तो एक बार रोग मुक्ति पाकर भी दोबारा पुनः उसी प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं |
कुलमिलाकर महामारियों के एकबार प्रारंभ हो जाने के बाद उनसे बचाव के लिए किए जाने वाले प्रयासों का अच्छा प्रभाव लगभग नहीं ही पड़ता है महामारियों के बिषय औषधियों और चिकित्सकों की भूमिका लगभग शून्य हो जाया करती है | वर्षों से चली आ रही महामारियों की इतनी बड़ी व्यूहरचना के बिषय में इतने कम समय में कोई मनुष्य कैसे समझ सकता है | जो लोग महामारियों के बिषय में इस प्राकृतिक क्रम को समझते और मानते ही न हों उनके लिए महामारी को समझ पाना लगभग असंभव होता है | इसीक्रम में महामारियाँ अपने संपूर्ण समय तक रहकर मनुष्यों को पीड़ित किया करती हैं और जब बुरा समय बीत जाता है एवं अच्छा समय प्रारंभ हो जाता है तब महामारियों का प्रकोप धीरे धीरे समाप्त होने लगता है और रोगी बिना किसी औषधि के रोगमुक्त होने लगते हैं |
ऐसे समय में जो औषधियाँ आदि भी ली या दी जा रही होती हैं अच्छे समय के प्रभाव से वे अपने मूल भाव में वापस लौट आती हैं और अपने रोगमुक्ति दिलाने वाले गुणों से संपन्न हो जाती हैं इसीलिए रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम हो जाती हैं |
अच्छे समय के प्रभाव से पुनः प्राकृतिक वातावरण शुद्ध एवं स्वास्थ्य कर होने लगता है और समस्त प्राकृतिक उपद्रवों का प्रशमन होकर अच्छे समय के प्रभाव से सबकुछ ठीक होने लग जाता है|यह प्रभाव इसी क्रम में क्रमशः प्राकृतिक वातावरण पर पड़ जाता है और उससे प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तित समय के अनुशार ही अच्छे परिवर्तन होने लग जाते हैं |
महामारियों की इस वैज्ञानिकविधा का परीक्षण !
महामारियों के बिषय में मैं पिछले लगभग तीस वर्षों से अनुसंधान कार्यकरता आ रहा हूँ मेरे जीवन में महामारियाँ कभी आयी नहीं थीं इसलिए इनका परीक्षण करने का कभी अवसर मुझे नहीं मिल सका था यही कारण है कि अपने अनुसंधान के आधार पर महामारियों के बिषय में निश्चित तौर पर कुछ कह पाना मेरे लिए संभव न था | यद्यपि प्राकृतिक परिवर्तनों एवं मौसमी घटनाओं का अत्यधिक असंतुलन महामारियों की ओर इशारा करता आ रहा था | इसके आधार पर मुझे किसी महामारी के आने का अँदेशा सन 2008 से ही था उसके आधार पर मैं प्राकतिक परिस्थितियों पर लगातार नजर बनाए हुए था | सन 2016 से मैं इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने लगा था कि प्राकृतिक वातावरण को अपने आगोश में लेती जा रही महामारी आगामी तीन से चार वर्षों में मानवजाति को अपनी चपेट में ले लेगी अपने अनुसंधान के आधार पर मेरा ऐसा अनुमान था किंतु अपनी बात को भारत सरकार तक पहुँचाने के लिए मैंने वे संपूर्ण प्रयास किए जहाँ तक मैं प्रयत्न पूर्वक पहुँच सकता था | जिम्मेदार अनुसंधानकर्ता होने के नाते मैं मीडिया के किसी माध्यम को महामारी के आगमनसंबंधी यह डरावनी बात बताकर मैं आत्मीय समाज को पहले से भयभीत नहीं करना चाहता था | इसलिए मेरा उद्देश्य था कि सरकार के जिम्मेदार लोगों से मिलकर अपनी बात उन तक पहुँचाऊँ जो इस बिषय में कुछ प्रभावी कदम उठा सकते हों |
इसी क्रम में सरकारी तंत्र यह कहकर टाल देता रहा कि तुम्हारी बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है मैं जो आधार दे भी रहा था उनकी जानकारी के अनुशार उन्हें वे वैज्ञानिक नहीं लग रहे थे ! क्योंकि वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधान प्रणाली की महामारी तक पहुँच संभव ही नहीं है | इसलिए सरकारी तौर पर जिसे विज्ञान के रूप में स्वीकार किया गया है उसमें महामारी को समझने की क्षमता नहीं है और जिस वैज्ञानिक अनुसंधानप्रणाली के द्वारा महामारी के रहस्य को समझा जा सकता है उसे वे विज्ञान नहीं मानते !उन्हीं के पास सरकारों ने ऐसे बिषयों पर निर्णय लेने के अधिकार दे रखे हैं फिर भी जिस किसी भी तरह से भारत सरकार के विभिन्न विभागों तक मैंने अपनी बात पहुँचाई | कुछ सांसदों मंत्रियों मुख्यमंत्रियों तक पहुँच बनाकर अपनी बात पहुँचाने का प्रयास किया !डॉक से कुछ पत्र प्रधान मंत्री जी को भी भेजे किंतु वहाँ से भी कोई उत्तर नहीं आया ! भारत सरकार में प्रधानमंत्री जी तक अपनी बात पहुँचाने के लिए मैंने इंटरनेट के लगभग सभी माध्यमों का उपयोग किया किंतु वहाँ से भी कोई सदाशयता नहीं दिखाई गई और न ही मेल पर भेजे गए मेरे अनेकों पत्रों में से किसी एक का भी उत्तर देने की आवश्यकता ही समझी गई |
इसी बीच सन 2019 में चीन में महामारी का प्रवेश पहचाना जा चुका था जबकि अन्यदेशों में सामान्य लक्षणों के के कारण उनकी पहचान नहीं की जा सकी थी वे इसे मनुष्यकृत मानकर चीन की ओर ही ताकते रहे तब तक उनके अपने अपने देश कोरोना संक्रमण की चपेट में आने लगे | महामारी के विषय में वैज्ञानिक अनुसंधानों की दृष्टि से संपूर्ण विश्व की स्थिति इतनी बदतर थी कि महामारी के बिषय में विशेषज्ञ माने जाने वाले किसी को कुछ पता ही नहीं था !
कुलमिलाकर अत्यंत उन्नत विज्ञान के इस युग में समाज जिन वैज्ञानिकों पर आँख मूँदकर भरोसा करता रहता है वही समाज महामारी जैसी आपदाओं पर लगातार अनुसंधान करने वाले अपने वैज्ञानिकों की ओर बड़ी आशा भारी दृष्टि से देख जा रहा था कि इतनी बड़ी महामारी के अकस्मात् आगमन पर हमारे वैज्ञानिक क्या कहते हैं किंतु वैज्ञानिक समुदाय या तो मौन था या फिर जो बोल रहा था उसका आधार न तो वैज्ञानिक था और न ही तर्कसंगत था | वैज्ञानिक समुदाय महामारी के बिषय में कुछ भी बता पाने में असमर्थ था केवल अँधेले में तीर तुक्के लगाए जा रहे थे | असहाय जनता महामारी से अकेली जूझ रही थी |जनता अपने वैज्ञानिकों से जानना चाहती थी - "महामारी प्रारंभ कैसे हुई कहाँ हुई क्यों हुई होने का कारण क्या था इसके लक्षण क्या हैं विस्तार कितना है प्रसार माध्यम क्या है विस्तार कितना है अंतरगम्यता कितनी है ये कम कब होगा समाप्त कब होगा संक्रमण से खतरा अधिक किस को है संक्रमण से बचाव करने के लिए क्या किया जाना चाहिए !महामारीजनित संक्रमण पर तापमान घटने एवं बढ़ने का क्या प्रभाव पड़ेगा !वर्षाऋतु में इसका स्वरूप कैसा होगा ?वायु प्रदूषण बढ़ने का प्रभाव इस पर क्याअसर होगा ? महामारीसे बचने के लिए क्या खाना हितकर होगा कैसे रहना हितकर होगा !आदि आदि "
महामारी के बिषय में केवल आशंकाएँ व्यक्त की जा रही थीं | एक से एक पढ़े लिखे लोग विज्ञान के नाम पर महामारी के बिषय में तरह तरह की अफवाहें फैलाए जा रहे थे |
सर्दी गर्मी और हवा या कफ पित्त वात के संतुलित संचार पर ही संपूर्ण प्रकृति और जीवन आश्रित है जीवन प्रकृति के अधीन है इसलिए मनुष्य जीवन का भी प्राकृतिक परिस्थितियों से प्रभावित होना स्वाभाविक ही है |बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार से सर्दी गर्मी और हवा के संतुलित संचार से ही मनुष्य शरीर स्वस्थ रह पाते हैं | बाह्य से अभिप्राय उस प्राकृतिक वातावरण से है शरीर के बाहर का वह प्राकृतिक वातावरण जिसमें हम साँस लेते और छोड़ते हैं और आंतरिक से अभिप्राय शरीर के अंदर जहाँ तक हमारा स्वाँस बिना किसी रुकावट के आसानी से जाता और आता रहता है | शरीर के बाहर का प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने का प्रभाव बहुत लोगों पर एक जैसा पड़ने से बहुत लोग एक जैसे रोगों से पीड़ित होने लगते हैं यदि यह बिगाड़ बहुत बड़े पैमाने पर होता है तो एक जैसे बड़े रोगों से बहुत बड़ी संख्या में लोग पीड़ित होते देखे जाते हैं यह महामारियों के समय ही होता है |इसके अतिरिक्त शरीर के अंदर का आतंरिक वातावरण बिगड़ने से केवल वही व्यक्ति रोगी होता है जिसके अपने शरीर के अंदर का वातावरण बिगड़ता है |
विशेष बात यह है कि बाह्य प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने के प्रभाव से महामारी फैलने लग जाती है उस महामारी का सामान्य प्रभाव तो सभी लोगों पर एक समान पड़ता है उसके प्रभाव से सामान्य रोग तो उस क्षेत्र में रहने वाले प्रायः सभी लोगों को होते हैं जबकि अधिक पीड़ित केवल वही लोग होते हैं जिनका अपना व्यक्तिगत आतंरिक वातावरण बिगड़ा होता है जिनका जिस अनुपात में बिगाड़ा होता है वे उसी अनुपात में पीड़ित होते देखे जाते हैं !महामारी से पीड़ित होकर भी कुछ पीड़ित होकर आसानी से स्वस्थ हो जाते हैं कुछ के लिए बिशेष चिकित्सकीय प्रयास करने पड़ते हैं तब स्वस्थ हो पाते हैं |जिनका आतंरिक वातावरण बहुत अधिक बिगड़ा होता है उन्हें बड़े बड़े चिकित्सकीय प्रयास करके भी बचाना संभव नहीं हो पाता है और उनकी मृत्यु होते देखी जाती है |
प्रकृति क्रम से इनका आपसी अनुपात थोड़ा बहुत कम या अधिक होता है तब तक तो मनुष्य शरीर सहते रहते हैं किंतु जब इसमें अधिक अंतर आ जाता है तब शरीर रोगी होने लगते हैं जब यह अंतर बहुत अधिक हो जाता है तब इस असंतुलन का प्रभाव वातावरण में विद्यमान वायु पर पड़ता है जिससे वह वायु शरीरों के लिए हितकर नहीं रह जाती है इसलिए शरीर सामूहिक रूप से रोगी होने लग जाते हैं | इसी सर्दी गर्मी और हवा का आपसी अनुपात जब बहुत अधिक असंतुलित होने लग जाता है तब वातावरण में विद्यमान वायु का बहुत कम अंश ही शरीरों के लिए हितकर रह जाता है उससे बहुत अधिक मात्रा में वायु का अहितकर अंश इसी वायु मंडल में तैर रहा होता है !जीवन के लिए हानिकर होने के कारण ही ऐसे अहितकर अंश को बिषाणु(वायरस) आदि नामों से लोग पहचानने लगे हैं |वातावरण में विद्यमान ऐसी बिषैली हवा में सांस लेने के लिए मनुष्य विवश हो जाता है यह बिषाणु संपन्न हवा ही शरीरों को रोगी बनाने लगती है यह जानते हुए भी उसी में सॉंस लेने के अतिरिक्त मनुष्य के पास और कोई दूसरा विकल्प होता ही नहीं है | चूँकि सभी लोग लगभग एक जैसी हवा में सांस लेते हैं इसलिए अधिकाँश लोग एक जैसे रोगों से पीड़ित होते चले जाते हैं | इस बिषैली वायु का प्रभाव जितना मनुष्य शरीरों पर पड़ रहा होता है उतना ही प्रभाव पशु पक्षियों पर पड़ता है |
वातावरण का यह बिषैला प्रभाव वृक्षों बनस्पतियों समेत समस्त खाने पीने की वस्तुओं पर भी उसी अनुपात में पड़ रहा होता है !चूँकि कुछ न कुछ खाना पीना तो पड़ेगा ही इसके बिना रहना संभव नहीं होता है ऐसी परिस्थिति में सामूहिक रूप से शरीरों का रोगी होना स्वाभाविक ही है | प्रदूषित वायुमंडल का यह प्रभाव उन सभी वृक्षों बनस्पतियों वस्तुओं औषधियों आदि पर भी पड़ रहा होता है इसलिए वे केवल गुणरहित ही नहीं होती हैं अपितु रोगकारक भी होते देखी जाती हैं !यही कारण है जो औषधियाँ बनस्पतियाँ आदि जिन रोगों से पीड़ित लोगों को लाभ पहुँचाने के लिए जानी जाती रही होती हैं बिषैले वातावरण से प्रभावित होने के कारण वही औषधियाँ बनस्पतियाँ आदि शरीरों के लिए हानिकर होने लग जाती हैं |
सर्दी गर्मी और हवा या कफ पित्त और वात का आपसी संतुलन बिगड़ने का कारण क्या है ?
सर्दी गर्मी और हवा या कफ पित्त वात के संतुलित संचार से ही संपूर्ण प्रकृति और जीवन स्वस्थ एवं सुरक्षित है! सर्दी गर्मी और हवा का आपसी अनुपात बिगड़ते ही प्राकृतिक वातावरण और मनुष्यादि प्राणियों का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है | ऐसी परिस्थिति में प्रश्न उठता है कि सर्दी गर्मी और हवा का आपसी अनुपात बिगड़ने का कारण क्या है ?
अपने आतंरिक कारणों से हवा में विकार आना संभव नहीं होता है हवा तो संयोग पाकर अपने को बदल लिया करती है ठंड का संयोग पाकर हवा ठंडी हो जाती है और गर्म का संयोग पाकर गर्म होते देखी जाती है | प्राकृतिक वातावरण में शीतलता(ठंड)चंद्रमा के कारण संभव हो पाती है और गर्मी सूर्य से मिलती है |ऐसी परिस्थिति में प्राकृतिक वातावरण में शीतलता और उष्णता के अनुपात में समता और बिषमता घटने बढ़ने का कारण चंद्र और सूर्य ही हैं |
इसमें भी प्राकृतिक वातावरण को शीतलता प्रदान करने में चंद्रमा स्वतंत्र नहीं है वह सूर्य के आधीन है चंद्रमा न केवल प्रकाश सूर्य से लेता है अपितु वातावरण को शीतल बनाने के लिए शीतलता भी उसे सूर्य से ही मिलती है क्योंकि वातावरण से सूर्य जब अपना उष्णप्रभाव कम करेगा तभी प्राकृतिक वातावरण को शीतलता मिल पाएगी जिसका कारण चंद्र है | ऐसी परिस्थिति में ठंड और गर्मी दोनों का मूल कारण सूर्य हुआ !इसलिए प्राकृतिक वातावरण में कब कितनी गर्मी बढ़ेगी और कब कितनी ठंड बढ़ेगी यह सब सूर्य के द्वारा निर्धारित होती है क्योंकि सर्दी और गर्मी का आपसी अनुपात बिगड़ते ही प्राकृतिक वातावरण और मनुष्यादि प्राणियों का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है | जिस गुण की अधिकता होती है हवा तो उसी का साथ देने लगती है | हवा सूर्य से प्रभावित होकर केवल गरम ही नहीं होती है अपितु उसकी गति भी बढ़ जाती है और हवा के ठंडी होने से उसकी गति भी धीमी हो जाती है |
इस प्रकार से चंद्रमा की तरह ही हवा भी सूर्य के ही आधीन है | शीतलता उष्णता एवं वायु ये तीनों ही इस प्राकृतिक वातावरण को सूर्य से मिल पाते हैं |यही शीतलता उष्णता एवं वायु आदि को चिकित्साशास्त्र में कफ पित्त वात के नाम से जाना जाता है | इन्हीं कफ पित्त और वात का आपसी अनुपात किसी व्यक्ति के शरीर में बिगड़ने से शरीर रोगी होता है और इन्हीं कफ पित्त और वात का आपसी अनुपात के प्राकृतिक वातावरण में बिगड़ने से महामारियों का जन्म होता है | ऐसी ही परिस्थिति में भूकंप वर्षा बाढ़ आदि बड़ी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ भी जन्म लेती हैं प्राकृतिक वातावरण में बड़ी बड़ी प्राकृतिक आपदाओं महामारियों के घटित होने का कारण सूर्य ही है | यही कारण है कि जब जिस अनुपात में जिस प्रकार की महामारी घटित होनी होती है उसी प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ उस समय घटित होने लगती हैं कोरोना महामारी के समय जितनी अधिक संख्या में भूकंप आए उस तरह हमेंशा तो नहीं आते हैं |
इस प्रकार से जिस कफ पित्त बात आदि का आपसी संतुलन बिगड़ने से भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि अनेकों प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं जब इन तीनों का आपसी अनुपात बहुत अधिक असंतुलित हो जाता है तो कोरोना जैसी बड़ी महामारियाँ जन्म लेती हैं जिनसे बहुत लोग एक जैसे रोगों से ग्रसित हो जाते हैं | वह कफ पित्त बात आदि वातावरण पर पड़ने वाले सूर्य के न्यूनाधिक प्रभाव की ही तो तीन अवस्थाएँ हैं ये तीनों सूर्य से ही तो संचालित होते हैं इसलिए इनका मूल कारण तो सूर्य ही है किंतु सूर्य ऐसा करने के लिए कितना स्वतंत्र होता है इसे भी समझा जाना आवश्यक है |
सूर्य किसके द्वारा संचालित है ?
सूर्य के संचार में समय की बहुत बड़ी भूमिका होती है समय के अनुशार सूर्य के संचार में बदलाव होते रहते हैं उन बदलावों से ही ऋतुओं का जन्म होता है समय के अनुशार ही सभी ऋतुएँ अपने अपने समय से आती जाती रहती हैं | समय के अनुशासन के कारण ही तो प्रातः काल का समय होने पर सूर्य को उगना पड़ता है और सायंकाल का समय होने पर सूर्य को अस्त होना पड़ता है | कुल मिलाकर समय के साथ साथ समय के अनुशार ही सूर्य को भी बदलना पड़ता है | समय जैसे जैसे समय बीतता जाता है सूर्य के स्वभाव प्रभाव स्वरूप आदि में वैसे वैसे परिवर्तन होते देखे जाते हैं |
यहाँ तक कि सूर्य चंद्र ग्रहण जैसी घटनाएँ भी अपने निर्धारित समय पर ही घटित होती हैं उनके घटित होने का वर्ष मॉस दिन आदि सभी कुछ आदिकाल से ही सुनिश्चित होता है तभी तो सूर्य ग्रहण अमावस्या में और चंद्र ग्रहण पूर्णिमा में घटित होता है किंतु किस अमावस्या और पूर्णिमा में सूर्य और चंद्र ग्रहण घटित होंगे किसमें नहीं होंगे यह भी समय के द्वारा ही निश्चित होता है | कौन ग्रहण कितने बजकर कितने मिनट पर प्रारंभ होगा और कितने बजकर कितने मिनट पर समाप्त होगा यह भी समय के आधार पर ही सुनिश्चित होता है | कौन ग्रहण सूर्य या चंद्र के कितने भाग को ढकेगा !पृथ्वी के कितने भूभाग पर कौन ग्रहण दिखाई देगा !कुलमिलाकर सूर्य को कब कितने बजे कहाँ पहुँचना है उसमें कब किस प्रकार के परिवर्तन होने हैं यह सब सृष्टि बनने के समय से ही समय के आधार पर निश्चित हो चुका होता है |
समय कभी एक सा कभी नहीं रहता है उसके बीतने के साथ साथ उसमें बदलाव होते चलते हैं समय के साथ साथ इस चराचर संसार का सबकुछ बदलता रहता है समय के साथ साथ सूर्य भी बदलता है सूर्य के साथ सारा ग्रह नक्षत्र मंडल बदलता है उसका प्रभाव वातावरण पर पड़ता है जिससे संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण बदलता है मौसम बदलता है ऋतुएँ बदलती हैं दिन बदलते है दिनों में भी अलग अलग समय आता है उसके अनुशार सब कुछ बदलता रहता है पेड़ पौधे बनस्पतियाँ मनुष्यादि सभी जीवजंतुओं में बदलाव होते देखा जाता है उनके स्वभाव बदलते हैं उनकी अवस्था स्वरूप भावनाएँ संबंध स्वाद पसंद नापसंद स्वास्थ्य सुख दुःख संयोग वियोग आदि सबकुछ समय के साथ साथ बदलता चलता है |महामारी के समय में भी समय के अनुशार ही संक्रमण बढ़ता और घटता है | समय के अनुशार ही लोग स्वस्थ एवं अस्वस्थ होते हैं | समय के साथ ही महामारियाँ जन्म लेती हैं और समय के साथ ही महामारियाँ समाप्त होती हैं कुलमिलाकर समय ही समस्त परिवर्तनों की जड़ है |
समय के संचार को समझकर ही उसी के आधार पर वेदवैज्ञानिक लोग जिस प्रकार से किसी ग्रहण के बिषय में हजारों वर्ष पहले पूर्वानुमान लगा लिया करते हैं उसी प्रकार से भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि अनेकों प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में उसी समय के संचार के अनुशार पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | इसके अतिरिक्त सभी परिवर्तनों की तरह ही समय के अनुसार घटित होने वाली कोरोना जैसी महामारियों के बिषय में भी पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |महामारी से संबंधित संक्रमण कब कितना बढ़ेगा कब कितना घटेगा एवं महामारी समाप्त कब होगी !समय के बदलाव के आधार पर ही ऐसी आवश्यक बातों का पूर्वानुमान लगाना संभव हो सकता है |
कुलमिलाकर संसार में दिखने वाले सभी बदलाव समय के आधार पर ही होते हैं किंतु बीतता हुआ समय किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा होता है इसीलिए उसमें कब किस प्रकार के बदलाव हो रहे हैं वह भी नहीं दिखाई पड़ते हैं जबकि किसी बिषय का पूर्वानुमान लगाने के लिए इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि समय के संचार में कब किस प्रकार के बदलाव होने की संभावना है उन बदलावों का अच्छा या बुरा प्रभाव प्रकृति और जीवन पर कैसा पड़ेगा उसके प्रभाव से प्रकृति और जीवन में कब किस प्रकार के बदलाव होते दिखाई पड़ेंगे उसके प्रभाव से कब कैसी घटनाएँ घटित हो सकती हैं ऐसी सभी बातों का पूर्वानुमान समय के आधार पर लगाया जा सकता है किंतु समय के संचार को ऐसे प्रत्यक्ष रूप से समझ पाना मनुष्य के बश की बात नहीं है |
इसलिए समय के बदलाव के आधार पर सूर्य चंद्रादि ग्रहों में जिस प्रकार के बदलाव आते हैं उन बदलावों के प्रभाव से प्राकृतिक वातावरण में कितने समय बाद किस प्रकार के परिवर्तन हो सकते हैं उनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | प्राकृतिक वातावरण पर पड़ने वाले सूर्य के न्यूनाधिक प्रभाव को समझना यदि संभव हो तो भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि अनेकों प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के साथ साथ कोरोना जैसी महामारियों के बिषय में भी मध्यावधि पूर्वानुमान लगाए जा सकते हैं ,क्योंकि सूर्य मंडल में या उसके संचारक्रम में होने वाले बदलावों का प्रभाव प्राकृतिक वातावरण पर पड़ने में एवं उसे मौसम संबंधी प्राकृतिक घटनाओं या महामारी आदि जीवन संबंधी घटनाओं के रूप में परिवर्तित होने में कुछ दिन महीने वर्ष आदि तो लग ही जाते हैं |यदि सूर्य में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर यदि भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि अनेकों प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं या महामारी आदि जीवन संबंधी घटनाओं के बिषय में कुछ दिन महीने वर्ष आदि पहले भी पूर्वानुमान लगा पाना संभव हो पाया तो इससे भी मानवता की सुरक्षा की दृष्टि से बहुत मदद मिल सकती है |
गणितागत पूर्वानुमान !
विज्ञान में गणित की महत्ता बताते हुए आईआईटी कानपुर के कंप्यूटर साइंस एंड इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर मणींद्र अग्रवाल जी गणितविज्ञान के साथ प्रकृति के सजीव संबंध को स्वीकार करते हुए कहते हैं -
"हमारी प्रकृति कुछ इस प्रकार से बनी है कि गणित के जो फार्मूले हैं जो कि कागज़ पेन से लिखे जाते हैं वे प्रकृति के कई सारे नियमों को वे ठीक तरीके से पकड़ लेते हैं और वो कागज़ पेन से की गई कैलकुलेशन वो प्रकृति में क्या हो रहा है ये बता देते हैं | इसका कारण क्या है इसे कोई भी पूरी अच्छी तरीके से नहीं समझता है लेकिन ये हर जगह देखा गया है | चाहें न्यूटन के लॉ हों आइंस्टीन के लॉज हों सिंपल क्वेश्चंस हैं लेकिन वो कागज़ पेन से की हुई चीजें वास्तविक प्रकृति में क्या हो रहा है बड़ी बड़ी चीजें कैसे हो रही हैं वो बता देती हैं | "
इसी प्रकार से एक वैज्ञानिक कहते हैं -"गणित में आंकड़ों की प्रधानता है और विज्ञान में तत्वों की और ये दोनों प्रकृति से जुड़े हुए है।वैसे गणित का उपयोग प्राचीन समय से ब्रम्हांड में तारा एवम् ग्रहों की दूरी के लिए कर रहे है।"
एक वैज्ञानिक कहते हैं -"विज्ञान
में हम सिद्धांतों की बात करते है और गणित के द्वारा ही उन सिद्धान्तों को
सूत्रों में बदला जाता है।साफ़ तौर पर कहें तो विज्ञान ‘क्यों’ का उत्तर
देता है और गणित ‘कब’ और ‘कितना’ का उत्तर देती है।"
एक वैज्ञानिक कहते हैं - "गणित विभिन्न नियमों, सूत्रों, सिद्धांतों आदि में संदेह की संभावना नहीं रहती है।"
गैलिलियो के अनुसार, “गणित वह भाषा है जिसमे परमेश्वर ने सम्पूर्ण जगत या ब्रह्माण्ड को लिख दिया है।”
एक वैज्ञानिक कहते हैं -"गणित के नियम, सिद्धांत, सूत्र सभी स्थानों पर एक समान होते हैं जिससे उनकी सत्यता की जांच किसी भी समय तथा स्थान पर की जा सकती है।गणित ज्ञान का आधार निश्चित होता है जिससे उस पर विश्वास किया जा सकता है।
एक वैज्ञानिक कहते हैं -"गणित के ज्ञान का आधार हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।"
कुलमिलाकर प्राकृतिक बिषयों में गणित के बिना विज्ञान अधूरा होता है | किसी प्राकृतिक घटना के घटित होने के बिषय में विज्ञान के द्वारा यदि यह पता लगा भी लिया जाता है कि ऐसी घटना घटित होने की संभावना है|तो प्रश्न उठता है कि कब घटित होगी उसके लिए गणित की आवश्यकता होती है | इसलिए गणित और विज्ञान दोनों मिलकर ही प्राकृतिक रहस्यों को सुलझा सकते हैं |
भारत की जो प्राचीन पारंपरिक ज्ञान की पद्धति थी उस विज्ञान का गणित ही मूल था उस गणित के बलपर वे बड़ी बड़ी घटनाओं के रहस्यों को सुलझा लिया करते थे | इसीलिए उन्हें इस प्रकार से यंत्रों पर आश्रित नहीं होना पड़ता था |
सूर्य चंद्र -तापमान
आज के हजारों वर्ष बाद में घटित होने वाली प्राकृतिक अथवा जीवन संबंधी घटनाओं के बिषय में हजारों वर्ष पहले पूर्वानुमान लगा पाना केवल गणित के द्वारा ही संभव है इसीलिए गणित के द्वारा लगाए जाने वाले पूर्वानुमान ही सर्वश्रेष्ठ होते हैं |
सैद्धांतिक रूप से पूर्वानुमान होते ही वही हैं जो किसी बिषय में बहुत पहले पता लगा लिए जाते हैं और उनके गलत निकलने की संभावना बहुत कम होती है|सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के बिषय में जो पूर्वानुमान हजारों वर्ष पहले लगा लिए जाते हैं उनका एक एक मिनट सही घटित होता है | ऐसे पूर्वानुमानों की अपेक्षा केवल गणित विज्ञान से ही की जा सकती है |
कुल मिलाकर जिस प्रकार से सूर्य चंद्र पृथ्वी के आपसी संयोग से सूर्य चंद्र ग्रहण घटित होते हैं उसी सूर्य चंद्र पृथ्वी आदि के आपसी तारतम्य से मौसमसंबंधी भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती हैं |
ऐसी परिस्थिति में जिस गणितविज्ञान के द्वारा सूर्य चंद्र ग्रहणों के बिषय में हजारों वर्ष पहले जो पूर्वानुमान लगा लिए जाते हैं
संबंधित जो पूर्वानुमान जिस गणित विज्ञान के द्वारा हजारों वर्ष पहले पता लगा लिए जाते हैं और वे पूरी तरह सही एवं सटीक निकलते हैं | उसी गणित विज्ञान के आधार पर उसी सूर्य चंद्र के प्रभाव से घटित होने वाली महामारी एवं भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में सैकड़ों हजारों वर्ष पहले यदि पूर्वानुमान लगा लिया जाए तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है ?
इसमें संशय नहीं होना चाहिए कि गणित विज्ञान के द्वारा उस सूर्य के बिषय में बहुत सारी जानकारी जुटाई जा सकती हैं जो समस्त प्राकृतिक एवं जीवन संबंधी घटनाओं का प्रत्यक्षतौर पर मूल कारण है | वैसे तो विज्ञान की जिस किसी विधा से ऐसी संभावित परिस्थितियों का पूर्वानुमान लगाना संभव हो सके उसी के आधार पर लगा लिया जाना चाहिए किंतु मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ कि गणितागत पूर्वानुमान ही सबसे अधिक सही एवं सटीक घटित होता है |
अधिकाँश प्राकृतिक घटनाएँ भी समय के द्वारा निर्धारित कालखंड में ही घटित होती हैं | महामारियों को ही देखा जाए तो पिछली कुछ सदियों से अपने निर्धारित समय पर अर्थात लगभग सौ वर्ष बाद घटित होते देखी जा रही हैं |
ऐसी परिस्थिति में जब महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाएँ जब समय के एक निश्चित अंतराल में घटित होते देखी जा रही हैं | ऐसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने के लिए तो गणित विज्ञान ही सर्व श्रेष्ठ साधन है |
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