जलवायु परिवर्तन का पता कैसे लगा ?
तूफ़ानों की संख्या बढ़ गई है, भूकंपों की आवृत्तियाँ बढ़ गई हैं , नदियों में बाढ़ का विकराल स्वरूप आदि घटनाएँ पहले से कहीं अधिक बढ़ गई हैं|प्राकृतिक घटनाओं में जिस तरह से एकाएक बदलाव आए हैं, वह जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम है |
जलवायु परिवर्तन होने का कारण क्या है ?
मानवीय गतिविधियों और क्रिया-कलापों के कारण दुनिया का तापमान बढ़ रहा है और इससे जलवायु में होता जा रहा है |
जलवायु परिवर्तन होने से नुक्सान क्या होगा ?
जलवायु परिवर्तन अब मानव जीवन के हर पहलू के लिए ख़तरा बन चुका है |आने वाले समय में तापमान इस क़दर बढ़ जाएगा कि मानव जीवन पर संकट आ सकता है, भयावह सूखा पड़ सकता है, समुद्री जल स्तर बढ़ सकता है और इन सब प्राकृतिक आपदाओं के फ़लस्वरूप कई प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं.
अगर तापमान यूं ही बढ़ता रहा तो कुछ क्षेत्र निर्जन हो सकते हैं और खेत रेगिस्तान में तब्दील हो सकते हैं. तापमान बढ़ने के कारण कुछ इलाक़ों में इसके उलट परिणाम भी हो सकते हैं. भारी बारिश के कारण बाढ़ आ सकती है. हाल ही में चीन, जर्मनी, बेल्जियम और नीदरलैंड्स में आई बाढ़ इसी का नतीजा है.
तापमान वृद्धि का सबसे बुरा असर ग़रीब देशों पर होगा क्योंकि उनके पास जलवायु परिवर्तन को अनुकूल बनाने के लिए पैसे नहीं.
कई विकासशील देशों में खेती और फसलों को पहले से ही बहुत गर्म जलवायु का सामना करना पड़ रहा है और ठोस क़दम के अभाव में इनकी स्थिति बदतर हो जाएगी.
जंगलों में लगने वाली आग की संख्या भी बीते सालों में बढ़ी है. गर्म और शुष्क मौसम के कारण आग तेज़ी से फैलती है और इनके बार-बार लगने की भी आशंका बढ़ जाती है.
तापमान वृद्धि का एक बुरा असर यह भी होगा कि साइबेरियाई क्षेत्रों में जमी बर्फ़ भी पिघलेगी जिससे सदियों से अवशोषित ग्रीनहाउस गैसें भी मुक्त हो जाएंगी, जिसका बुरा असर होगा.
तापमान बढ़ने के कारण जीवों के लिए भोजन और पानी का संकट बढ़ जाएगा.
उदाहरण के लिए, तापमान बढ़ने से ध्रुवीय भालू मर सकते हैं क्योंकि जो बर्फ़ उनके लिए आवास है और जहां से वे अपने लिए भोजन प्राप्त करते हैं वह तेज़ी से पिघल रही है.
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इसके अलावा एक हाथी जिसे प्रतिदिन 150-300 लीटर पानी चाहिए, उसके लिए जीवन का संघर्ष बढ़ जाएगा.
वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर समय रहते कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई तो इस सदी में कम से कम 550 प्रजातियां विलुप्त हो सकती है.
दुनिया के हर क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का अलग असर होता है. कुछ स्थानों पर तापमान तुलनात्मक रूप से बढ़ जाएगा, कुछ जगहों पर भारी बारिश होगी और बाढ़ आएगी और कुछ इलाक़ों को सूखे की मार झेलनी होगी.
- अत्यधिक बारिश के कारण यूरोप और ब्रिटेन में बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं. मध्य पूर्व के देशों में भयानक गर्मी पड़ सकती है और खेत रगिस्तान में बदल सकते हैं
- प्रशांत क्षेत्र में स्थित द्वीप डूब सकते हैं
- कई अफ्रीक्री देशों में सूखा पड़ सकता है और भुखमरी हो सकती है
- पश्चिमी अमेरिका में सूखा पड़ सकता है बल्कि दूसरे कई इलाक़ों में तूफ़ान की आवृति बढ़ सकती है
- ऑस्ट्रेलिया भीषण गर्मी और सूखे की मार झेल सकता है
धरती
के तापमान को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय यह है कि दुनियाभर के देश इस
मुद्दे पर एकसाथ आएं. साल 2015 में हुए पेरिस समझौते के तहत दुनिया के
तमाम देशों ने कार्बन उत्सर्जन
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर चर्चा और समाधान खोजने के लिए ब्रिटेन नवंबर महीने में विश्व के नेताओं के एक शिखर सम्मेलन का आयोजन करने वाला है. जिसे COP26 नाम दिया गया है. जहां दुनिया भर के देश साल 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के अपनी योजनाओं पर चर्चा करेंगे.
कई देशों ने साल 2050 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने का लक्ष्य रखा है.
विशेषज्ञों का मानना है कि इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है लेकिन इसके लिए दुनिया भर की सरकारों, उद्यमों और प्रत्येक शख़्स को अपने स्तर पर बदलाव के लिए प्रयास करने होंगे
निजी स्तर पर आप क्या कर सकते हैं-
सरकार को अपने स्तर पर बड़े और नीति-परक बदलाव करने की ज़रूरत है लेकिन बतौर जिम्मेदार नागरिक हम अपने स्तर पर भी इस प्रयास का हिस्सा बन सकते हैं. हमारे छोटे-छोटे प्रयास जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में उपयोगी साबित हो सकते हैं. जैसे -
जलवायु परिवर्तन: आईपीसीसी की रिपोर्ट मानवता के लिए 'ख़तरे की घंटी'
9 अगस्त 2021
आग
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संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग तेज हो रही है और इसके लिए साफ़ तौर पर मानव जाति ही ज़िम्मेदार है. इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पृथ्वी की औसत सतह का तापमान, साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा. ये बढ़ोतरी पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही जाएगी.
रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते तापमान से दुनिया भर में मौसम से जुड़ी भयंकर आपदाएं आएंगी. दुनिया पहले ही, बर्फ की चादरों के पिघलने, समुद्र के बढ़ते स्तर और बढ़ते अम्लीकरण में अपरिवर्तनीय बदलाव झेल रही है.
पैनल का नेतृत्व कर रहीं वैलेरी मैसन-डेलोमोट ने कहा कि कुछ बदलाव सौ या हजारों वर्षों तक जारी रहेंगे, उन्हें केवल उत्सर्जन में कमी से ही धीमा किया जा सकता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि वायुमंडल को गर्म करने वाली गैसों का उत्सर्जन जिस तरह से जारी है, उसकी वजह से सिर्फ दो दशकों में ही तापमान की सीमाएं टूट चुकी हैं.
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इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्तांओं का मानना है कि मौजूदा हालात को देखते हुए इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस शताब्दी के अंत तक समुद्र का जलस्तर लगभग दो मीटर तक बढ़ सकता है.
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लेकिन इसके साथ ही ये उम्मीद जुड़ी हुई है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बड़ी कटौती करके बढ़ते तापमान को स्थिर किया जा सकता है.
संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की 42 पन्नों की इस रिपोर्ट को नीति-निर्माताओं के लिए सारांश के रूप में जाना जाता है.
ये रिपोर्ट, आने वाले महीनों में सिलसिलेवार आने वाली कई रिपोर्ट्स की पहली कड़ी है जो ग्लासगो में होने वाले जलवायु सम्मेलन (COP26) के लिए बड़े मायने रखेगी. साल 2013 के बाद अपनी तरह की ये पहली रिपोर्ट है जिसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े विज्ञान का व्यापक तौर पर विश्लेषण किया गया है.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेश का कहना है कि 'आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप की पहली रिपोर्ट मानवता के लिए ख़तरे का संकेत है.'
संयुक्त राष्ट्र महासचिव का कहना है कि मिल-जुलकर जलवायु त्रासदी को टाला जा सकता है, लेकिन ये रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि इसमें देरी की गुंजाइश नहीं है और अब कोई बहाना बनाने से भी काम नहीं चलेगा.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने विभिन्न देशों के नेताओं और तमाम पक्षकारों से आगामी जलवायु सम्मेलन (COP26) को सफल बनाने की अपील की है.
कड़वी सच्चाई
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इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने तैयार किया है जिसने 14,000 से अधिक वैज्ञानिक काग़ज़ात का अध्ययन किया है.
आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन किस तरह से दुनिया को बदलेगा इस पर यह हाल की सबसे ताज़ा रिपोर्ट है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बहुत बड़ी ख़बर है, लेकिन यह 'उम्मीदों का एक छोटा-सा टुकड़ा है.'
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यूरोप के कई देशों में भारी बारिश और बाढ़ से तबाही
क्यों महत्वपूर्ण है रिपोर्ट?
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारों के लिए उत्सर्जन कटौती को लेकर यह रिपोर्ट 'एक बड़े स्तर पर चेताने वाली' है.
जलवायु परिवर्तन के विज्ञान पर IPCC ने पिछली बार 2013 में अध्ययन किया था और वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने उसके बाद से बहुत कुछ सीखा है.
बीते सालों में दुनिया ने रिकॉर्ड तोड़ तापमान, जंगलों में आग लगना और विनाशकारी बाढ़ की घटना देखी है.
पैनल के कुछ दस्तावेज़ बताते हैं कि इंसानों के कारण हुए बदलावों ने असावधानीपूर्ण तरीक़े से पर्यावरण को ऐसा बना दिया है जो कि हज़ारों सालों में भी वापस बदला नहीं जा सकता है.
IPCC की इस रिपोर्ट का इस्तेमाल नवंबर में ब्रिटेन (ग्लासगो) में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के COP26 (क्लाइमेट चेंज कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ द पार्टीज़) सम्मेलन में भी होगा.
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संयुक्त राष्ट्र का COP26 सम्मेलन वो महत्वपूर्ण लम्हा हो सकता है अगर जलवायु परिवर्तन को नियंत्रण में लाने पर सहमति बन जाए. 196 देशों के नेता मिलकर एक बड़े लक्ष्य के लिए कोशिश करेंगे और किए जाने वाले उपायों पर अपनी सहमति देंगे.
सम्मेलन का नेतृत्व कर रहे ब्रिटेन के मंत्री आलोक शर्मा ने बीते सप्ताह कहा था कि दुनिया विनाश को बचाने के लिए लगभग सारा समय खो चुकी है और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव फ़िलहाल जारी हैं.
लीड्स विश्वविद्यालय के जलवायु परिवर्तन के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर पीयर्स फ़ोर्स्टर कहते हैं कि 'आज जो हम बहुत कुछ महसूस कर रहे हैं उसके बारे में रिपोर्ट काफ़ी कुछ कहने में सक्षम है और रिपोर्ट यह स्पष्ट करने में सक्षम होगी कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कैसे नुक़सान पहुंचा रहा है और ये बेहद ख़तरनाक होने जा रहा है.'
उन्होंने LBC से कहा, "यह रिपोर्ट बहुत सारी बुरी ख़बरों के साथ आएगी जो बताएगी कि हम कहां हैं और कहां जा रहे हैं, लेकिन यह उम्मीदों का एक दस्तावेज़ भी है जो मुझे लगता है कि जलवायु परिवर्तन पर बातचीत के लिए अच्छा है."
आशावादी बने रहने के लिए क्या कुछ कारण सकते हैं? इस पर वो कहते हैं कि 'अभी भी जलवायु परिवर्तन के बीच तापमान को डेढ़ डिग्री सेल्सियस बढ़ने से रोका जा सकता है.
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विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव स्वरूप अगर धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो इसके बेहद गंभीर परिणाम हो सकते हैं. अब तक वैश्विक तापमान औद्योगीकरण पूर्व के स्तर से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है.
2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौते के तहत वैश्विक औसत तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देने का लक्ष्य रखा गया था और कहा गया था कि इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस पार नहीं होने दिया जाएगा.
ग़ैर-लाभकारी सलाहकार समूह एनर्जी एंड क्लाइमेट इंटेलीजेंस यूनिट के रिचर्ड ब्लैक कहते हैं, "COP26 से पहले यह रिपोर्ट सामने आना उन देशों के लिए आंखें खोलने वाला है जिन्होंने अभी तक अगले दशकों के लिए उत्सर्जन में कटौती के लिए कोई वास्तविक योजना नहीं तैयार की है."
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रिपोर्ट से उम्मीदें
कई पर्यवेक्षकों के अनुसार, बीते कुछ सालों में विज्ञान में बहुत महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं.
IPCC की बैठकों में शामिल रहे WWF के डॉक्टर स्टीफ़न कॉर्निलियस कहते हैं, "हमारे मॉडल बेहतर हो गए हैं, हमें भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान की बेहतर समझ है, तो वे अब भविष्य के तापमान परिवर्तन का आकलन करने में सक्षम हैं और बीते कई सालों की तुलना में वे और बेहतर हुए हैं."
"दूसरा परिवर्तन, बीते कुछ सालों में किसी विज्ञान का समर्थन करने वाले कारकों में वृद्धि हुई है. हम अब जलवायु परिवर्तन और बड़ी मौसमी घटनाओं के बीच में संबंध बता सकते हैं."
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2013 में प्रकाशित हुई IPCC की अंतिम रिपोर्ट में कहा गया था कि 1950 के बाद से जलवायु परिवर्तन की 'प्रमुख वजह' इंसान रहे हैं.
आने वाली रिपोर्ट में संदेश और भी अधिक मज़बूत रहने वाला है. इसमें औद्योगीकरण पूर्व के स्तर के वैश्विक तापमान के मुकाबले इसके 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर बढ़ने को लेकर चेतावनी दी जा सकती है.
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होता है तो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बेहद गंभीर हो सकते हैं.
ऐसी उम्मीद है कि इस बार IPCC यह भी बताएगा कि किस तरह इंसानों का प्रभाव समुद्र, वायुमंडल और हमारे ग्रह के अन्य पहलुओं पर पड़ रहा है.
एक और सबसे महत्वपूर्ण चिंता समुद्र का जल स्तर बढ़ने को लेकर है. IPCC के अपने पिछले अनुमानों के हिसाब से यह विवादित विषय रहा है क्योंकि इसको कई वैज्ञानिकों ने ख़ारिज कर दिया था.
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लंदन में यूसीएल के प्रोफ़ेसर आर्थर पीटरसन कहते हैं, "समुद्र का जलस्तर स्तर बढ़ने की ऊपरी सीमा बताने को लेकर पहले वे अनिच्छुक रहे हैं, पर हमें लगता है कि इस बारे में आगाह करने का समय आ गया है."
बीते कुछ महीनों में जिस तेज़ी से जंगलों में आग लगने और बाढ़ के मामले बढ़े हैं, उसके लिए जलवायु परिवर्तन को वजह माना गया है. रिपोर्ट में उन अध्यायों को भी शामिल किया जाएगा जिसमें तापमान बढ़ने से मौसम के भयंकर रूप के मामले सामने आ रहे हैं.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
पर्यावरण विश्लेषक रोजर हैराबिन कहते हैं कि इंटरगवर्नमेंटल पैनल दुनिया के विभिन्न देशों की सरकारों को साथ लाया है जिसने वैज्ञानिकों के शोध का मूल्यांकन किया है. इसका मतलब है कि सभी सरकारें इस शोध में शामिल हैं.
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उन्होंने कहा कि पिछले पैनल ने 2013 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी और शोधकर्ताओं का कहना था कि उसके बाद बहुत कुछ हुआ है.
"उदाहरण के लिए पहले वे यह स्वीकार करनेको तैयार नहीं थे कि लू और मूसलाधार बारिश की तमाम वजहों में से एक वजह जलवायु परिवर्तन भी हो सकती है."
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"जून में अमेरिका में भयंकर गर्मी पड़ी. अब वे इस बात को लेकर बेहद आश्वस्त होंगे कि यह जलवायु परिवर्तन के बिना हो ही नहीं सकता."
"वे कहते हैं कि दुनिया दिन ब दिन और गर्म होती जा रही है. ख़ासतौर से यह उत्तरी यूरीप में अधिक गर्म हो रही है. अगर मौसम चक्र बदलता है तो सूखा बढ़ेगा."
"पैनल के अध्ययन किए गए काग़ज़ात दिखाते हैं कि समुद्र का स्तर सैकड़ों या संभवतः हज़ारों सालों तक बढ़ना जारी रहेगा क्योंकि गर्मी गहरे समुद्र तक पहुंच चुकी है."
"शोध इस बात की पुष्टि भी करता है कि अगर राजनेता औद्योगीकरण पूर्व के समय के वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर पर रोकने में सक्षम हो गए तो भारी तबाही को रोका जा सकता है."
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इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है जिसे जलवायु परिवर्तन के विज्ञान का आकलन करने के लिए 1988 में स्थापित किया गया था.
IPCC सरकारों को वैश्विक तापमान बढ़ने को लेकर वैज्ञानिक जानकारियां मुहैया कराती है ताकि वे उसके हिसाब से अपनी नीतियां विकसित कर सकें.
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1992 में जलवायु परिवर्तन पर इसकी पहली व्यापक मूल्यांकन रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी. इस कड़ी में यह छठी रिपोर्ट आ रही है जो कि चार वॉल्यूम में बंटी हुई है जिसमें पहली जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान पर आधारित है और सोमवार को प्रकाशित होगी.
बाक़ी हिस्सों में इसके प्रभाव और समाधान पर समीक्षा होगी.
195 सरकारों के वैज्ञानिकों और प्रतिनिधियों के अध्ययन और सुझावों के आधार पर इसका सारांश प्रकाशित किया जा रहा है.
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