समय विज्ञान
प्रकृति और जीवन दोनों साथ साथ चलते हैं |प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों से जीवन प्रभावित होता है |प्रकृति में गर्मी सर्दी अधिक होती है तो उसका प्रभाव शरीरों पर भी पड़ता है | कई बार शरीर सर्दी गर्मी के उस वेग को नहीं सह पाते हैं इसलिए रोगी होते देखे जाते हैं | प्रकृति का प्रभाव शरीरों पर न पड़ता होता तब तो ऐसा होते नहीं देखा जाता |
सर्दी गर्मी का प्रभाव शरीर पर पड़ने के चार कारण होते हैं जो मनुष्यों को
रोगी बना सकते हैं | पहला कारण सर्दी और गरमी से संबंधित ऋतुएँ होती हैं
जिनके सर्द गर्म प्रभाव से मनुष्य जीवन को प्रभावित होता है| ऋतुओं के आने
और जाने का कारण समय का संचार होता है समय के क्रमिक बदलाव से ऋतुओं का
जन्म होता है | ये प्रतिवर्ष अपने अपने समय पर आती और समय से चली जाती हैं |
इनका सबकुछ प्रायः सुनिश्चित होता है|जो शरीरों के सहने लायक होता है |
कई बार समय में होने वाले आकस्मिक परिवर्तनों के प्रभाव से ऋतुओं के स्वभाव से अलग तापमान में कुछ आकस्मिक परिवर्तन होते हैं जिनसे ऋतुओं का संतुलन बिगड़ता है उससे प्रकृति प्रभावित होती है|जिससे शरीर रोगी होते हैं | ऐसा कब होने लगेगा ! प्राकृतिक संतुलन किस सीमा तक बदलेगा !यह कितने अंतराल में होने लगेगा !ये किस वर्ष बदलेगा और किस वर्ष नहीं बदलेगा आदि बातों में कुछ भी निश्चित नहीं होता है | ऐसा कभी भी होने लग सकता है |कितना भी कम या अधिक हो सकता है |उसके प्रभाव से उसी प्रकार के रोग या महारोग आदि होने लग सकते हैं |
सभीप्रकार के रोगों ,महारोगों (महामारियों) के पैदा होने में प्राकृतिक परिवर्तन बड़े कारण होते हैं |ऐसे ही प्रकृति में होने वाले सभीप्रकार के बदलावों में समय की प्रमुख भूमिका होती है |यदि हम प्रकृति में होने वाले उन बदलावों को अच्छी प्रकार से समझना चाहते हैं या उनके विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना चाहते हैं तो इसके लिए समय के संचार को ही समझना पड़ेगा ! इसके अतिरिक्त प्राकृतिक बदलावों को समझने का या रोगों ,महारोगों (महामारियों) आदि के पैदा होने के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए और कोई दूसरा वैज्ञानिक विकल्प नहीं है |
समय के संचार को समझने के लिए भारत के परंपरागत प्राचीनविज्ञान में गणितीय पद्धति है जिसके आधार पर सूर्य और चंद्रमा में घटित होने वाले ग्रहणों की गणना हजारों वर्ष पहले कर ली जाती रही है और वे बिल्कुल सही समय पर घटित होते रहे हैं| इससे यह प्रमाणित भी हो जाता है कि गणितविज्ञान के द्वारा समय के संचार को ठीक ठीक प्रकार से न केवल समझा जा सकता है अपितु उससे संबंधित अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जा सकते हैं | इसके आधार पर प्रकृति में होने वाले सभीप्रकार के परिवर्तनों (बदलावों ) के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सकता है| उसी के आधार सभीप्रकार के रोगों ,महारोगों (महामारियों) आदि के पैदा होने एवं घटने बढ़ने के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सकता है |
समयविज्ञान और प्राकृतिकघटनाएँ !
वर्षा बाढ़ जैसी घटनाएँ प्रायः वर्षाऋतु में घटित होती हैं !आँधी तूफ़ान जैसी घटनाएँ प्रायः गर्मी की ऋतु में घटित होती हैं |कोहरा पाला जैसी घटनाएँ प्रायः वर्षा ऋतु में ही घटित होती हैं | ऐसी बहुत सारी प्राकृतिक घटनाओं का संबंध ऋतुओं से जुड़ा हुआ है | ऋतुएँ समय का ही तो एक लघुखंड हैं | प्रत्येक ऋतु का समय आते ही ऋतुएँ अपना अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं |उसी समय ऋतुओं से संबंधित घटनाएँ घटित होने लगती हैं | इनका समय क्रम स्वभाव प्रभाव आदि सब कुछ सुनिश्चित होता है |
इनसे अलग हटकर बहुत सारी ऐसी प्राकृतिकघटनाएँ होती हैं जो कभी भी घटित
होती देखी जाती हैं| बादल कभी भी आते और बरसने लग जाते हैं जबकि उस समय
वर्षा ऋतु का समय नहीं होता है फिर भी वर्षा होते देखी जा रही होती है |
ऐसे ही आँधी तूफ़ान कभी भी घटित होने लगते हैं | इनका समय और क्रम ऋतुओं की
तरह से निश्चित नहीं होता है | ये तो कभी भी घटित होते देखी जाती हैं |
ऐसी घटनाएँ देखने में भले ही अनिश्चित या अचानक घटित होती सी लगें
किंतु ये अनिश्चित होती नहीं हैं और न ही अचानक घटित हो रही होती हैं
अपितु आकस्मिक सी घटित होती दिखने वाली वाली ऐसी घटनाओं के घटित होने का
समय भी निश्चित होता है जिसे गणित विज्ञान के द्वारा ही समझा जा सकता है और
उसी के द्वारा ही ऐसी घटनाओं के घटित होने के विषय में अनुमान पूर्वानुमान
आदि लगाया जा सकता है |
इसीप्रकार से भूकंप बज्रपात उल्कापात जैसी घटनाएँ भी समय से ही संबंधित होती हैं | ग्लेशियरों का बनना बिगड़ना समय से ही संबंधित होता है |पृथ्वी में या पृथ्वी पर तथा समुद्रों में, वायुमंडल में या अंतरिक्ष में जितनी भी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती हैं वे सभी अपने अपने समय पर ही घटित हो रही होती हैं |समय के संचार को न समझ पाने के कारण वे अचानक घटित होती सी लग रही होती हैं |
जिस प्रकार से किसी स्थान पर आपको बुलाया गया हो और किसी दूसरे को भी
बुलाया गया हो वो सदस्य भी वहाँ आकर उपस्थित हो जाए | ऐसी स्थिति में उसका
आना आपको भले ही आकस्मिक लगे जबकि वो अपने निर्धारित समय पर ही पहुँचा
होता है | उसका आगमन आपको केवल इसलिए आकस्मिक लग रहा होता है क्योंकि आपको ये पता नहीं है कि उस समय उसे भी बुलाया गया है |उसको भी बुलाए जाने के विषय में आपको
जैसे ही पता लग जाएगा तो आपका यह भ्रम टूट जाएगा कि वह अचानक आया है |
इसीप्रकार से सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ आपदाएँ तभी तक अचानक घटित हुई सी लगती हैं जब तक उनके विषय में हमें पता नहीं होता है उनके विषय में पता लगते ही ऐसा भ्रम होना बंद हो जाएगा !
ऐसी घटनाओं के विषय में भी समय संचार के आधार पर सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि गणितविज्ञान के द्वारा लगाया जा सकता है |
समयविज्ञान और पेड़ पौधे !
जिसप्रकार से अपनी अपनी ऋतुओं के आगमन पर पेड़ पौधों में फलफूल लगते देखे
जाते हैं |समय आने पर ही वृक्षों में पतझड़ होते देखा जाता है |प्रायः सभी
प्रकार के पेड़ों पौधों में इसप्रकार के ऋतुनियमों का पालन होते देखा जाता
है | ये सुनिश्चित घटनाएँ हैं इसलिए ऐसा होते हमेंशा ही देखा जाता है |
इनके विषय में सबको आगे से आगे पता रहता है |
इनसे अलग हटकर कुछ पेड़ पौधे ऐसे भी होते हैं जिनमें प्राकृतिकनियमों का पालन कभी कभी इसप्रकार से होते नहीं देखा जाता है | इसीलिए उनकी अपनी ऋतु आने पर भी उन वृक्षों में फूल फल नहीं फूलते फलते हैं |कुछ वृक्ष ऐसे भी होते हैं जो कभी कभी अपनी ऋतु न होने पर भी फूलते फलते देखे जाते हैं | ये उन पेड़ पौधों के अपने अपने निजी कारण होते हैं |जो उनके जन्म के समय में सम्मिलित हुए समयजनित गुण दोषों के कारण इसप्रकार की परिस्थिति पैदा हो जाती है |
उन पेड़ पौधों में समय के कारण इसप्रकार की घटनाएँ घटित हो रही होती हैं |पेड़ पौधों में घटित होने वाली
ऐसी सभीप्रकार की घटनाओं को ठीक ठीकप्रकार से समझने एवं उनके विषय में
अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए गणित विज्ञान ही एक मात्र विकल्प है
|
समयविज्ञान और मनुष्यजीवन !
वर्तमान समय में सामाजिक पारिवारिक दाम्पत्यिक तथा मित्रता संबंधी संबंध बिगड़ते जा रहे हैं |इससे समाज बिखर रहा है परिवार टूट रहे हैं | प्रत्येक व्यक्ति को एक दूसरे के विषय में यह शिकायत है कि हम जो कहते हैं उस बात को वो मानता नहीं है | इसलिए वे उसे दोषी मान कर संबंध तोड़ लिया करते हैं | जो गलत है |
इसमें बसे बड़ा कारण यह है कि जो जिसे अपनी बात मनवाना चाहता है वो उसकी बात तभी मान सकता है जब उन दोनों का समय एक जैसा चल रहा होता है | यदि उन दोनों का समय बुरा चल रहा होता है तो वे दोनों एक दूसरे की बुरी बातों से सहमत हो सकते हैं अच्छी बातों से नहीं | यदि दोनोंका समय अच्छा चल रहा होता है तो दोनों एक दूसरे की अच्छी बातों से सहमत हो सकते हैं बुरी बातों से नहीं | बुरे समय से पीड़ित किसी व्यक्ति को यदि कोई अच्छी बात समझाने के लिए प्रयत्न किया जाए तो वो तब तक नहीं समझेगा जब तक उसका अपना बुरा समय चलता रहेगा | ऐसे लोगों को कोई बात समझाने के लिए उनका अच्छा समय आने का इंतजार करना पड़ेगा ! इसके बाद अच्छा समय आते ही उसे वह बात समझ में आ जाएगी |अच्छा समय आने तक उस संबंध को धैर्य पूर्वक सँभालकर रखना होगा | जिनमें इतना धैर्य नहीं होता है वो संबंध बिगाड़ लिया करते हैं वैवाहिक जीवन में तलाक ले लिया करते हैं |
कई बार समझाने वाले का अपना ही बुरा समय चल रहा होता है | ऐसे समय में वह
जो सोच या समझ रहा होता है वह हितकर नहीं होता है |जिसका उसे स्वयं नुक्सान
उठाना पड़ तहा होता है इसके बाद भी वह बड़े बुजुर्ग होने के नाते दूसरे को
समझाए जा रहा होता है जबकि उस समझ से उसका भी नुक्सान हो सकता है जिसे वह
समझा रहा होता है |ऐसी परिस्थिति में उसे यह हठ करना ठीक नहीं है कि उसकी
बात मानी ही जानी चाहिए |
इसीलिए प्राचीन काल में लोग शास्त्र अध्ययन,बड़े बूढ़ों की संगति एवं महापुरुषों के सत्संग से सदाचरण आदि का इतना अभ्यास किया करते थे कि यदि उनका बुरा समय समय आवे तो भी उनकी रूचि राय पसंद आदि बुरे बिचारों से प्रभावित न हो इससे बुरा समय आने पर उनका अपना नुक्सान तो होता था किंतु वे अपनी वाणी बिचारों आदि का वजन बनाए एवं बचाए रखते थे |
व्यापारिक कार्यों में भी बड़े धैर्य की आवश्यकता होती है कोई सफल या असफल व्यक्ति किसी को कुछ समझाना चाहता है वो उसे पसंद तभी आता है जब वो उसकी अपनी सोच के अनुरूप होता है|उसकी उस प्रकार की सोच तभी बनती है जब उसका अपना उस प्रकार का समय चल रहा होता है |
इसके दो कारण होते हैं यदि उसका समय हमसे अच्छा चल रहा होता है तो उसे हमारे बिचार पसंद ही नहीं आते हैं | यदि बुरा चल रहा होता है तो उसे हमारे बिचारों में कोई रूचि नहीं होती है | यदि उसका समय न अच्छा और न बुरा होता है अर्थात मध्यम होता है | उस समय हमारा समय अच्छा चल रहा होता है तब तो वो हमारे बिचारों से सहमत होकर हमारी बात मान लिया करता है |
कोरोना महामारी जैसी घटनाओं में जहाँ जिन परिस्थितियों में जैसे रह रहे
कुछ लोग संक्रमित हो जाते हैं उनमें से कुछ लोग मृत्यु को भी प्राप्त हो
जाते हैं| वहाँ उन्हीं परिस्थितियों में रहते खाते पीते सोते जागते हुए भी
बहुत सारे लोग संक्रमित तक नहीं होते पूरी तरह स्वस्थ बने रहते हैं क्योंकि
उनका अपना व्यक्तिगत समय स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा चल रहा होता है |
कोरोना काल में ऐसा होते बहुत बार देखा गया है |
प्राचीनकाल में ऋषिमुनि ध्यान चिंतन मनन आदि तो महानगरों में एक से एक सुविधा संपन्न परिवारों में रहकर भी कर सकते थे ईश्वर तो वहाँ भी होता है भगवद्भक्ति वहाँ भी की जा सकती थी फिर भी ऋषिमुनि लोग ध्यान चिंतन मनन आदि के लिए जंगलों में ही अपने आश्रम इसीलिए बनाया करते थे |
वस्तुतः जब जैसा समय आता है तब तैसे परिवर्तन समस्त प्राकृतिक वातावरण में प्रकट होने लगते हैं |आकाश से लेकर पाताल तक जल थल वृक्षों बनस्पतियों कृषिक्षेत्रों एवं जीव जंतुओं में उस प्रकार के बदलाव होते देखे जाते हैं | पशु पक्षियों समेत समस्त जीव जंतुओं में उनके खानपान बोली व्यवहार आदि में किसी एक ही प्रकार के बदलाव होने लगते हैं | फलों का स्वाद फूलों की सुगंध में सूक्ष्म परिवर्तन होते देखे जाते हैं | ऐसे सूक्ष्म परिवर्तनों का अनुभव करने के लिए उसी वातावरण में रहना आवश्यक होता था | प्राकृतिक वातावरण में प्रकट होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को पहचानना तभी संभव है जब प्रतिदिन उन्हें देखा सुना जाता रहा हो |
राजालोग ऋषियों मुनियों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहा करते थे ऐसी परिस्थिति में जंगलों में भी ऋषि मुनियों के रहने के लिए सब सुख सुविधा संपन्न एक से एक दिव्य आश्रम बनाए जा सकते थे किंतु इससे उन्हें पशु पक्षी आदि जीव जंतुओं समेत समस्त प्राकृतिक वातावरण से कुछ दूरी बनाकर रहना पड़ता |जिससे उनमें होने वाले वाले सूक्ष्म परिवर्तनों का अनुभव करने में व्यवधान होता |
राजाओं के द्वारा की जाने वाली व्यवस्था के तहत जंगलों में तरह तरह के मेवामिष्ठान्न पूड़ी पकवान आदि उपलब्ध करवाए जा सकते थे किंतु इससे तत्कालीन प्राकृतिक परिवर्तनों का अनुभव किया जाना संभव न था !ऐसे तुरंत के लिए हुए ताजे कंद मूल फल आदि लाकर कच्चे ही खाने से उनके आदि में होते सूक्ष्म परिवर्तनों का अनुभव किया जाना स्वाभाविक था|पूजा के लिए प्रतिदिन ताजे पत्र पुष्प आदि लेने होते थे | इनके विषय में प्रतिदिन की पहचान होने के कारण उनमें उभरने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों का भी अनुभव किया जाना संभव था | समुद्रों नदियों तालाबों के समीप रहने से उन्हीं जलों का नित्य उपयोग करने से जल में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों का अनुभव किया जा सकता है |
प्राचीनकाल में ऐसे अनुसंधानों को करने के लिए ऋषिमुनियों को संपूर्ण रूप से बनाश्रित व्रती अत्यंत तपस्वी जीवन जीना पड़ता था तब प्रकृति एवं प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों को समझना संभव हो पाता था | जिनसे राजाओं समेत समस्त समाज को आगे से आगे सचेत कर दिया जाता था |
जिस प्रकार से पानी में उतरे बिना तैरना सीखना संभव नहीं होता है उसी प्रकार से प्रकृति के सन्निकट रहे बिना प्रकृति एवं प्राकृतिक घटनाओं को समझना संभव नहीं है | ऋषि मुनि महात्मा तो वर्तमान समय में भी हैं किंतु प्रकृति की पहचान वही कर पाते हैं जो जितने प्रकृति के समीप रहते हैं |महानगरों में सुख सुविधा पूर्ण जीवन जीते हुए न तो प्रकृति को समझना संभव है और न ही प्राकृतिक परिवर्तनों को समझ पाना संभव है और न ही मौसम संबंधी पूर्वानुमान लगा पाना ही संभव है |
कुल मिलाकर प्रकृति से दूर रहकर मौसम आदि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में जो पूर्वानुमान लगाए जाते हैं उनका सही न निकलना स्वाभाविक है | इसके लिए कोई जलवायुपरिवर्तन ग्लोबलवार्मिंग आदि काल्पनिक आशंकाओं को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है |
प्राचीन प्रकृति वैज्ञानिक लोग उन प्राकृतिक परिवर्तनों के अभिप्राय को समझने के लिए समय समय पर होने वाले परिवर्तनों का परीक्षण करके अच्छे बुरे समय की पहचान किया करते थे | पेड़ों पौधों बनौषधियों जीव जंतुओं आदि में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों का अत्यंत गंभीर अध्ययन अनुसंधानादि किया करते थे | इसके आधार पर भविष्य में घटित होने वाली प्रकृति तथा जीवन से संबंधित घटनाओं के विषय में आगे से आगे पूर्वानुमान लगा लिया करते थे |
ऐसे प्राकृतिक अनुसंधानों को करने के लिए अच्छे बुरे समय की पहचान पहले गणित योग आदि पद्धतियों के द्वारा की जाती थी फिर उनका मिलान प्राकृतिक लक्षणों एवं जीव जंतुओं में स्वभाव में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों के साथ मिलान करके अच्छे बुरे समय की पहचान कर लिया करते थे |
प्रकृति से अलग होते ही रोगी होने लगते हैं शरीर !
समय के परिवर्तन क्रम में कई बार सामयिक ऊर्जा के स्तर में परिवर्तन होता है यह प्रकृति क्रम है इन परिवर्तनों को वही शरीर सह पाते हैं जो ऐसी भिन्न भिन्न प्रकार की सामयिक परिवर्तित परिस्थितियों को सहते रहने के अभ्यासी होते हैं | जो नहीं सह पाते हैं वे रोगी होने लग जाते हैं |
वास्तव में तो इसका अर्थ यह निकाला जाना चाहिए कि वे शरीर ही इतने दुर्बल रहे हैं जो समय के परिवर्तन को पचा नहीं पाए इसीलिए रोगी हो गए हैं | यदि ऐसा न होता और वास्तव में महामारी जैसी कोई ऐसी बिषैली चीज होती जिससे संक्रमित होकर लोग रोगी हुए होते तो उसका दुष्प्रभाव कुछ लोगों पर ही क्यों पड़ता वह तो सभी प्रकार के व्यक्तियों पर पड़ना चाहिए उससे कुछ लोग ही क्यों संक्रमित होते |
जिस प्रकार से हमेंशा वातानुकूलित भवनों में रहने वाले लोग अचानक यदि सर्दी या गरमी के खुले वातावरण में बाहर निकल जाएँ तो वे उस प्रकार की सर्दी गरमी लू आदि को पचा नहीं पाते हैं और रोगी होते देखे जाते हैं यदि उनके शरीर ऐसे वातावरण के निरंतर अभ्यासी होते तो उन्हें ऐसे वातावरण में निकलने से कोई परेशानी नहीं होती | किसानों गरीबों ग्रामीणों बनबासियों या श्रमिक वर्ग के लोगों को इसीलिए ऐसी परिवर्तित परिस्थिति जन्य समस्याओं से कम जूझना पड़ता है | उन्हें करना जैसी महामारी से भी बहुत कम जूझना पड़ा है क्योंकि वे ऐसी वैसी सामयिक ऊर्जा पचाने के निरंतर अभ्यासी बने रहते रहे हैं |
प्रकृति प्रभाव को क्रमशः सहना पड़ता है | सर्दी या गरमी की ऋतु के प्रारंभ पहले से व्यक्ति खुले प्राकृतिक वातावरण में रहना प्रारंभ करदे तो जैसे जैसे सर्दी या गर्मी बढ़ती जाएगी वैसे वैसे उस तापमान को अशरीर अभ्यासी होता चला जाएगा और उस प्रकार के वातावरण में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं यही कारण है कि भीषण सर्दी में भी लोग गंगा आदि पवित्र नदियों में स्नान करते रहते हैं उन्हें कोई शारीरिक परेशानी नहीं होती है किंतु उसी समय कोई अभ्यासी व्यक्ति गंगा जी में डुबकी लगावे तो उसे कई रोग होने की है इसका आशाय यह तो निकाला जाना चाहिए कि गंगाजल से स्नान करने से रोग होते हैं |
जो लोग शारीरिक श्रम व्यायाम आदि करते हैं उनके अंगों में लचक बनी रहती है इसलिए उनके हाथ पैर यदि अचानक थोड़े बहुत मुड़ भी जाएँ तो ऐसे लोग सह जाते हैं उनके अंगों को नुक्सान नहीं पहुँचता है | दूसरे जो ऐसा नहीं करते हैं उनके साथ वैसा होने पर उन्हें झटका लग जाता है जो कई दिन तक दर्द करता है | ये दोष हमारे अभ्यास छोड़ देने का है |
जिस प्रकार से किसी ट्रेन पर कोई यात्री बैठ जाए उसके बाद ट्रेन की गति धीरे धीरे बढ़ती जाती है तो वह यात्री उसमें बैठा चला जाता है ट्रेन कितनी भी तेज क्यों न चलने लगे ,किंतु यदि कोई व्यक्ति एक बार ट्रेन पर चढ़ चल दे जैसे ही गति बढ़ने लगे तो वह उससे कूद जाए | इसके बाद दौड़कर यदि उसी तीव्रगतिगामिनी ट्रेन को पकड़ कर चढ़ना चाहे तो उसे चोट लगने की पूरी संभावना रहती है |
इसीप्रकार से ऋतुएँ बदलती हैं उसी समय खुले वातावरण में रहना प्रारंभ कर दिया जाए तो हमारा शरीर खुला प्राकृतिक वातावरण सहने का आदी हो जाता है किंतु यदि उससे एक बार अलग हो जाता है और पुनः उसी में सम्मिलित होना चाहता है तो शरीर के रोगी होने की पूरी संभावना रहती है |
ऐसी परिस्थिति में प्राकृतिक वातावरण की सभी परिस्थितियों में यदि हम रहने के अभ्यासी हो जाएँ तो वातावरण में बदलाव आने पर भी हम स्वस्थ बने रह सकते हैं |
हमारी स्वास्थ्य समस्या हम स्वयं ही हैं !
पाठ्यक्रम की पुस्तकों में अक्सर देखा जाता है कि विद्यार्थियों को सीखने के लिए कुछ सवाल हल किए हुए मिलते हैं उसके बाद कुछ ऐसे सवाल दिए जाते हैं जो अपने को हल करके दिखाने होते हैं | वे सवाल जितने प्रतिशत सही निकलते हैं वही उस विद्यार्थी की योग्यता होती है |उस विद्यार्थी को उतने प्रतिशतअपने लक्ष्य के साधन में सफल मान लिया जाता है |
नारी जीवन भी उसी प्रकार का होता है वह जिस परिवार में पैदा होती हैउसे माता पिता भाई बहन बंधु बांधव आदि स्नेहपूर्ण संबंध मिलते हैं इसके आधार पर ससुराल रूपी परीक्षा हाल में ससुरालीजनों के रूप में जो प्रश्नपत्र मिलता है उन लोगों को अपना बनाने की बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह करना ही उनकी परीक्षा होती है |ससुराल के संबंधों को सँभालकर चलने में वे जितने प्रतिशत सफल हो जाती हैं वही उनकी वास्तविक योग्यता होती है इसी के आधार पर ससुरालीजनों के बीच उनकी योग्यता इतनी अधिक बढ़ जाती है वे उस परिवार की आफीसर बन जाती हैं अर्थात पूरा परिवार छोटे बड़े का भेदभाव भूलकर उनकी सलाह के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता है |
शुरू में तो संघर्ष सभी जगह करना पड़ता है बड़े बड़े डॉक्टर इंजीनियर आदि बनने के लिए या प्रशासनिक अधिकारी आदि बनने के लिए क्या कम संघर्ष करना पड़ता है क्या वहाँ परीक्षाएँ आसान होती हैं क्या वहाँ प्रश्नपत्र अपनी इच्छा के अनुशार मिल जाता है |वहाँ तो प्रश्नपत्र बनाने वाले लोग एक से एक कठिन टेढ़े मेढ़े भ्रमित कर देने वाले अत्यंत कठिन प्रश्न पत्रों का निर्माण करते हैं |यही उनकी सफलता होती है | उन्हें समझकर जो छात्र उत्तर लिखकर उत्तीर्ण हो जाता है यही तो उसकी योग्यता होती है | यदि परीक्षा इतनी कठिन न होती तो उसका महत्त्व ही उतना नहीं होता |
जो विद्यार्थी कम पढ़े लिखे होते हैं उन्हें अपनी शैक्षणिक कमजोरी के कारण प्रश्नपत्र ही समझ में नहीं आता है ऐसे लोग अपने ससुराल में निर्वाह न कर पाने का दोष वहाँ के सदस्यों को देने वाली स्त्रियों की तरह अपनी अयोग्यता पर ध्यान न देते हुए प्रश्न पत्र में दिए गए प्रश्नों में ही कमियाँ निकालने लगते हैं | प्रश्न बहुत कठिन हैं कई बार तो घबड़ाकर तलाक लेने वाले स्त्री पुरुषों की तरह परीक्षा ही छोड़कर भाग खड़े होते हैं |
कई बार अपने द्वारा सही समझकर लगाया गया सवाल भी गलत निकल जाता है | कई बार उसकी लिखावट आदि बिगड़ जाने से परीक्षक उसके भी नंबर काट लेता है | ऐसे समय परीक्षक का व्यवहार बुरा अवश्य लगता है किंतु यह उसका विशेषाधिकार होता है | पठनशील विद्यार्थी ही एक दिन अधिकारी बनते हैं वे भी वही करते हैं जो उनके साथ किया जा रहा होता है | ऐसे ही बहुएँ भी सास बनकर वही करती हैं |
ऐसे ही ससुराली जन कई बार नव विवाहिता बधुओं के द्वारा किए गए अच्छे कार्यों का श्रेय भी उन्हें नहीं देते हैं अपितु उसमें भी कमियाँ निकालकर उन्हें दोषीसिद्ध करते हैं किंतु जिस प्रकार से द्वारा काटे हुए नंबरों पर क्रोध न करके उसे चुनौती समझकर अगली बार वह कमी भी ठीक कर लेने का निर्णय करके अगली बार अधिक नंबरों से पास होते देखे जाते हैं | जिसका उन्हें अतिरिक्त सम्मान मिलता है | इसी प्रकार से जो स्त्रियाँ ससुराली जनों के द्वारा निकली गई कमियों को सुधार लेती हैं वह उनकी अतिरिक्त योग्यता में सम्मिलित हो जाता है |
विवाह के बाद कन्या ससुराल जाती है वह घर उसके लिए पराया होता है वहाँ के लोग पराए होते हैं |उन्हें अपना बनाने की विशाल जिम्मेदारी उन पर होती है उन्हीं की सहनशीलता एवं
अपने घर में अत्यंत दुलार प्यार में पली बढ़ी कन्या जब ससुराल जाती है तो उसे बहुत कुछ सहना पड़ता है सुख दुःख स्वस्थ अस्वस्थ आदि सभी अपनी पीड़ाओं को सहकर दूसरों की सेवा सुश्रूषा आदि करनी पड़ती है |उसके बदले में उलाहने ताने आरोप प्रत्यारोप अपने माता पिता भाई बहन आदि अत्यंत प्राणप्रिय पारिवारिक जनों की बुराइयाँ सुन सहकर भी उन परायों को अपना बनाने का प्रयत्न किया करती है |अपने माता पिता आदि प्रिय परिवार से दूर वह अकेली कन्या अपनी इच्छाओं को दबाकर वहाँ का सबकुछ सहती है | विवाह के दिन से ही ससुराल के रीति रिवाज रहन सहन खान पानआदि को अपनाने लगती है उस घर की बुराइयों में भी अच्छाइयाँ खोजने लगती है प्रतिकूलता में भी अनुकूलता खोजकर अपने को प्रसन्न रखने का प्रयास करने लगती है | अपनी ईमानदारी सेवाभावना परिश्रमशीलता आदि से वालों के रहन सहन आहार व्यवहार आदि अपनाकर धीरे धीरे उस परिवार को इतना अधिक अपना बना लिया करती है कि उस घर में उसे इतना अधिक अच्छा लगने लगता है कि उतना कहीं और दूसरी जगह अच्छा नहीं लगता है |धीरे धीरे वहाँ सभी लोगों से अपनापन मिलने लगता है | वहाँ वह बहुत अधिक सुखी रहने लगती है | उसी परिवार के सभी सदस्य अपने लगने लगते हैं |
ऐसी परिस्थिति में यदि उस कन्या ने उस परिवार के स्वाभाविक वातावरण से पूरी तरह समझौता करके वहाँ रहना स्वीकार न किया होता तो उस परिवार में उसका निर्वाह होना अत्यंत कठिन हो जाता | यदि वह कन्या ससुराल के पारिवारिकजनों से अलग हटकर अपने लिए कुछ अच्छा अच्छा रहन सहन खान पान आदि का इंतिजाम कर लिया होता और अपने को प्रसन्नता देने वाले लोगों से मिलना जुलना उनके साथ घूमना फिरना आदि स्वतंत्र रूप से अपना लिया होता तो कन्या को उस घर में दुखी होकर कलहपूर्वक जीवन जीना पड़ता |ससुराल का स्वाभाविक वातावरण न सह पाने के कारण ही कई बार तो विवाह विच्छेद जैसी दुखद परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है |
कन्या की ससुराल की तरह ही प्रत्येक प्राणी को इस संसार में आना पड़ता है और उसका जिस जगह जन्म होता है वहाँ के प्राकृतिक वातावरण को धैर्यपूर्वक सहना पड़ता है|जिस प्रकार से कन्या को ससुराल की सभी परिस्थितियों को सहना पड़ता है उसी प्रकार से प्राकृतिक वातावरण में कभी अधिक तीव्र सर्दी गरमी वर्षा आदि प्राकृतिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है | ये प्रतिकूलताएँ कई बार बहुत अधिक बिचलित कर दिया करती हैं फिर भी इन्हें स्वीकार कर लेने में ही भलाई होती है | ऐसी परिस्थितियों से घबड़ाकर कई बार सुख भोग की भावना से सर्दी से बचाव के लिए हीटर गीजर आदि प्रयोग करके एवं गर्मी से बचाव के लिए वातानुकूलित भवनों में रहकर तत्काल तो सुखी हो लिया करते हैं किंतु वास्तविकता यह है कि ऐसे बचाव कार्यों से हम प्राकृतिक वातावरण से अपने को अलग कर लिया करते हैं इससे प्रकृति हमसे उसी प्रकार से प्रकुपित होने लगती है जिस प्रकार से ससुराल में रहती हुई कन्या उस परिवार में रहती हुई वहाँ की परिस्थितियों से अलग हटकर अपने लिए अलग से सुख सुविधाओं का इंतिजाम कर लेने पर ससुराली लोगों के क्रोध का कारण बनती है |
प्रकृति और जीवन
ग्रीष्म ऋतु में जहाँ एक ओर गर्म गर्म हवाएँ चल रही होती हैं पेड़ पौधे समेत समस्त प्राकृतिक वातावरण गर्मी से झुलस रहा होता है समस्त जीव जंतु गर्मी से व्याकुल हो रहे होते हैं | गर्मी से कष्ट तो उन सभी को हो रहा होता है किंतु वे अत्यंत धैर्य के साथ गर्मी को सहते हैं उनसे प्रकृति उसी प्रकार से प्रेम करने लगती है जिस प्रकार से कोई कन्या सुख सुविधापूर्ण मायका होने पर भी अपनी ससुराल वालों के कठिन समय में या मुसीबत में पड़ जाने पर मायके की शरण न लेकर ससुराल के लोगों के साथ धैर्य के साथ डटी रहकर उनका साथ देती है | वह ससुराल में सभी को प्यारी लगने लगती है और वहाँ के सभी लोग उससे स्नेह करने लगते हैं | इसी प्रकार से प्रकृति की दुखप्रद लगने वाली परिस्थितियों को सहकर भी जो प्राणी बिचलित न होकर उसे ही स्वीकार करते हैं और उसी से समझौता करके उसी में जीवनयापन करते हैं उनके शरीरों में प्रतिरोधक क्षमता एवं प्राकृतिक प्रकोपों को सहने की सामर्थ्य अधिक होती है | उन पर प्राकृतिक रोगों का प्रभाव भी उतना अधिक नहीं पड़ता है | ऋतु परिवर्तन होने पर या अचानक मौसम बदलने पर अथवा महामारी के आने पर प्रकृति ऐसे लोगों का साथ अधिक देकर इन लोगों का रोगों से अधिक बचाव अधिक करती है | जो लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रकृति का साथ छोड़कर उनसे अलग हटकर हीटर गीजर ए सी आदि से संपन्न सुख सुविधा पूर्ण जीवन जीने लगते हैं | उस प्रकार की परिस्थितियाँ पैदा होने पर प्रकृति भी उनका साथ उतना अधिक नहीं दे पाती है और वे लोग आसानी से रोगी होते जाते हैं | प्राकृतिक कठिनाइयों से घबराकर जो जितने प्रतिशत उससे अलग हटकर जीवन जीने का अभ्यासी हो जाता है वह उतने प्रतिशत कमजोर हो जाता है इसलिए उसे उतने प्रतिशत रोगों का खतरा अधिक रहता है | सुख दुःख हर स्थान पर प्रत्येक परिस्थिति में प्रत्येक समय उपस्थित रहते हैं | हमें उन दोनों के साथ जीना पड़ता है | जिस गाड़ी पर चलने का आनंद हम लेते हैं उसके धचके भी तो हमें ही सहने पड़ेंगे |
इसलिए हमें अपने शरीरों को प्रकृति की प्रत्येक परिस्थिति में जीने का अभ्यासी बनाना चाहिए| इससे हम निरंतर प्रकृतिमित्र बने रह सकते हैं | इससे विपरीत यदि ग्रीष्म(गर्मी) ऋतु आने पर वातानुकूलित ठंडे वातावरण में रहकर और ठंडा पानी पीकर अपने को तत्कालीन प्राकृतिक वातावरण से अलग कर लेते हैं | इसके बाद घर बाहर निकलते ही हमें पुनः उसी मुक्त प्राकृतिक वातावरण में निकलना पड़ता है | गंतव्य पर पहुँचकर हम फिर वातानुकूलित ठंडे वातावरण में बैठते और ठंडा पानी पीते हैं | इस प्रकार से फिर प्राकृतिक वातावरण से अलग हो जाते हैं |
जिस प्रकार से बिजली के बल्व को बार बार जलाने बुझाने से बल्ब खराब होने का डर रहता है | ऐसे ही चलती हुई ट्रेन में बार बार चढ़ने उतरने से चोट लगने का डर बना रहता है | ठीक इसी प्रकार से प्राकृतिक वातावरण में बार बार सम्मिलित होने और बार बार उससे अलग हटने से शरीर के रोगी होने की पूरी संभावना बनी रहती है
ऐसी परिस्थिति में बल्ब के बार बार जलने बुझने के लिए हम बिजली को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं | चलती हुई ट्रेन में बार चढ़ने उतरने वाला यदि गिर कर घायल जाए तो इसके लिए ट्रेन को दोषी कैसे कहा सकता है | मानसून आने और जाने की तारीखों का पूर्वानुमान यदि हम नहीं लगा सके तो इसके लिए मानसूनका क्या दोष ?प्राकृतिक आपदाओं को पूर्वानुमान हम नहीं लगा सके तो दोषी हम हैं इसमें जलवायु परिवर्तन कहाँ से आ गया ?
जीवन संबंधित घटनाओं में समय की भूमिका
समय की परोक्ष भूमिका को समझे बिना स्वास्थ्य ,सम्मान,संपत्ति ,सुख दुःख एवं पद प्रतिष्ठा का घटना बढ़ना ,मित्रों शत्रुओं की संख्या घटना बढ़ना ,मित्रों शत्रुओं में मित्रता एवं शत्रुता की भावना का घटना बढ़ना आदि समय के प्रभाव से घटित होने वाली घटनाओं के लिए हम कुछ वस्तुओं, परिस्थितियों ,व्यक्तियों एवं उनके अच्छे बुरे व्यहार को जिम्मेदार मानकर उनसे ईर्ष्या द्वेष आदि करने लगते हैं जबकि उनका वास्तविक कारण समय होता है |
स्वास्थ्य पर चिकित्सा का प्रभाव न पड़ना ,पतिपत्नी के स्वस्थ होने के बाद भी संतान न होना आदि | प्रयत्न करने के बाद भी कार्य क्षेत्र में सफल न होना आदि |
किसी रोगी की चिकित्सा के लिए अत्यंत उन्नत तकनीक, उत्तम औषधियों एवं योग्य चिकित्सकों की मदद के बाद भी कई बार रोगी के स्वस्थ न होने का कारण समय का प्रतिकूल प्रभाव होता है | इसी प्रकार से जंगलों के सुदूर गाँवों में जहाँ न उन्नत तकनीक ,न उत्तम औषधियाँ न योग्य चिकित्सक होते हैं इसके बाद भी समय के सहयोग से वहाँ के रोगी भी होते देखे जा रहे होते हैं | कोरोनामहामारी के समय अच्छी प्रकार से कोरोना नियमों का पालन करते हुए उत्तम चिकित्सा व्यवस्था से संपन्न होने पर भी समय के असहयोग के कारण कई लोग संक्रमित होते देखे जा रहे होते हैं| इनके अतिरिक्त कुछ दूसरे जिन्होंने कोरोना नियमों का पालन बिल्कुल नहीं किया कोई सावधानी नहीं बरती चिकित्सा की भी अच्छी व्यवस्था नहीं रही ,बचपन से खानपान भी पौष्टिक नहीं रहा ,इसके बाद भी समय के सहयोग से स्वस्थ बने रहे |
सम्मान,संपत्ति ,पद प्रतिष्ठा एवं व्यवसाय आदि के लिए कार्यक्षेत्र में कुछ लोग समर्पित भावना से बहुत प्रयास करके भी समय का सहयोग न मिलने के कारण सफल नहीं हो पाते हैं जबकि कुछ दूसरे लोग बहुत कम प्रयास करके भी समय का सहयोग पाकर सफल होते देखे जाते हैं |
समय के सहयोग से मित्रों की संख्या बढ़ती है मित्रों में मित्रता की भावना बढ़ती है इसलिए ऐसे समय में जिनसे शत्रुता चली आ रही होती है वे भी मित्र भावना से भावित होने लगते हैं |समय के प्रभाव से कुछ ऐसे लोग जिनसे बहुत पहले संबंध छूट चुके होते हैं वे पुनः आकर मिलने लगते हैं !संबंध विच्छेद करके वर्षों से अलग अलग रह रहे पतिपत्नी आदि भी ऐसे समय पुरानी बातें भूलकर एक साथ प्रेम पूर्वक रहने लग जाते हैं |
इसी प्रकार से समय का सहयोग न मिलने पर अकारण शत्रुओं की संख्या बढ़ने लगती है |इसी के साथ ही ऐसे समय शत्रुओं में शत्रुभावना अधिक तेजी से बढ़ते देखी जाती है |
इसीप्रकार से जीवन में और भी बहुत सारी ऐसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं जिनके घटित होने का कारण समय होता है जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं पड़ रहा होता है|इसलिए वास्तविक कारण केअभाव में उसके आस पास की चीजों को ही हम वास्तविक कारण मान लिया करते हैं|उन्हीं कल्पित कारणों को आधार बनाकर अनुसंधान किया करते हैं | ऐसी भूलें अक्सर हुआ करती हैं जिससे हम वास्तविक कारण तक नहीं पहुँच पाते हैं |
समय शक्ति से अनजान लोग कई बार ऐसा कहते सुने जाते हैं कि लक्ष्य कितना भी बड़ा क्यों न हो यदि सच्चे मन से उसके लिए प्रयत्न किया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है ऐसी बातों पर विश्वास करके बहुत लोग अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं फिर भी समय का सहयोग न मिलने के कारण वे सफल नहीं हो पाते हैं |असफलता के कारण तनाव के शिकार होकर कई बार नशा या अन्य प्रकार के अपराध आदि में संलिप्त होते देखे जाते हैं | कर्म पर विश्वास करके किसी प्रेमिका को पाने के लिए सभी प्रकार के प्रयत्न करके थक हार चुका कोई असफल व्यक्ति उस लड़की को चोट पहुँचाने के प्रयत्न में लग जाता है | इसमें उस लड़की का कोई दोष नहीं किंतु उस अपराध का शिकार वो होती है | वस्तुतः इस प्रयास में सफलता न मिलने का कारण समय का साथ न देना ही था | उस कार्य में उसके प्रवृत्त होने का कारण ये कहावत थी -"सच्चे मन से प्रयत्न किया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है|"
एक कहावत ऐसी भी सुनी जाती है कि किसी पत्थर को तोड़ने की क्रिया में सौवीं चोट में पत्थर टूटे इसका मतलब यह नहीं कि निन्यानबे चोटें ब्यर्थ चली गई हैं उनका भी इस कार्य में योगदान रहा होता है |
समय वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो इस प्रक्रिया में उन चोटों का यही योगदान माना जा सकता है कि किस प्रहार या प्रयास को समय का समर्थन प्राप्त होगा यह पता न होने के कारण लगातार चोट करना ही होगा ताकि इस पत्थर के टूटने का समय आने पर पत्थर टूट जाएगा उस समय यह बहाना नहीं बनेगा कि पत्थर टूटने का समय आने पर चोट नहीं मारी जा सकी |
कुलमिलाकर प्रत्येक घटना में प्रयत्न का महत्त्व अवश्य होता है किंतु प्रयत्न सफल वही होते देखे जाते हैं जिनमें समय का सहयोग मिलता है |
घटनाओं के घटित होने के कारण का महत्त्व !
महामारी,भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं बादलों के फटने,ओलेगिरने,तापमान अचानक अधिक बढ़ने-घटने तथा अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं के लिए जिम्मेदार कुछ प्रत्यक्ष कारण दिखाई पड़ते हैं कुछ परोक्ष कारण ऐसे होते हैं जिनके सहयोग से इसप्रकार की घटनाएँ घटित हो रही होती हैं किंतु वे दिखाई नहीं पड़ रहे होते हैं |
जिसप्रकार से किसी कारखाने में बड़ी बड़ी विशालकाय मशीनें चल रही होती हैं | उन मशीनों में लगे छोटे छोटे पुर्जे भिन्न भिन्न प्रकार की भूमिका अदा कर होते हैं |ऐसी मशीनों के चलने के कारण जो शोर हो रहा होता है | उस शोर को बंद करने के लिए मशीनों का बंद होना आवश्यक लगता है |
कारखाने में प्रत्यक्ष तो मशीनें ही चलते दिखाई पड़ रही होती हैं किंतु मशीनें कब तक चलेंगी इसका पूर्वानुमान नहीं पता होता है और मशीनों को पकड़ कर तो बंद नहीं किया जा सकता है |ऐसी परिस्थिति में मशीनों को बंद किया जाना उसीप्रकार से असंभव सा लगता है जिसप्रकार से महामारी,भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं बादलों के फटने,ओलेगिरने,तापमान अचानक अधिक बढ़ने-घटने तथा अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं को रोकना असंभव माना जाता है |
मशीनों को चलने की ताकत देने वाली ऊर्जा जिस पावर हाउस से आ रही होती है |वह कितना भी दूर क्यों न हो वहीं बैठे बैठे कारखाने में आने वाली बिजली की सप्लाई बंद करके यहाँ चल रही मशीनों को रोका जा सकता है |इस प्रकार से मशीनों को बार बार चलाया और बंद किया जा सकता है |
जिसप्रकार से ऊर्जा को पावरहाउस से मशीनों तक आते जाते कोई नहीं देख पाता है उसी प्रकार से महामारी,भूकंप, सुनामी, आँधीतूफ़ान चक्रवात बज्रपात जैसी बड़ी प्राकृतिक घटनाओं को मिलने वाली ऊर्जा को को भी देख पाना असंभव होता है |महामारी,भूकंप, सुनामी, आँधीतूफ़ान चक्रवात बज्रपात जैसी इतनी बड़ी बड़ी प्राकृतिक घटनाओं को घटित होने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है | वह ऊर्जा कहीं न कहीं से तो मिल ही रही होती है और जहाँ कहीं भी इस ऊर्जा का पावरहाउस है यदि उसे यदि खोज लिया जाए तो उसके आधार पर ऐसी घटनाओं एवं उनके वेग के विषय में पूर्वानुमान लगाना आसान हो सकता है |
कुल मिलाकर किसी मशीन को चलाने के लिए ऊर्जा कहाँ से मिलती है उस ऊर्जास्रोत को खोजना होगा उसकेबाद ऊर्जा स्रोत को रोकने की प्रक्रिया खोजनी होगी यदि ऊर्जा स्रोत रोकना संभव न भी हो तो भी उस ऊर्जा के आवागमन के आधार पर इस बात का पूर्वानुमान लगाना आसान हो जाएगा कि मशीनों से निकलने वाला शोर बंद कब होगा |
इसीप्रकार से महामारी, भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं बादलों के फटने,ओलेगिरने,तापमान अचानक बढ़ने-घटने तथा अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं को घटित होने के लिए आवश्यक ऊर्जा की आपूर्ति कहाँ से होती है उस ऊर्जा स्रोत को खोजकर ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |प्राकृतिक घटनाओं को घटित होने की ताकत देने वाली वास्तविक ऊर्जा समय है | जिस प्रकार से जब तक ऊर्जा मिलती रहती है तब तक मशीनें चलती रहती हैं उसी प्रकार से जब तक समय का साथ मिलता रहता है तब तक प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती रहती हैं और समय का साथ मिलना बंद होते ही सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं की गति रुक जाया करती है |
समय ही होता है प्राकृतिक घटनाओं के लिए ऊर्जा स्रोत !
जिस प्रकार से मशीनों के चलने न चलने के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान लगाने के लिए ऊर्जास्रोत के विषय में जानकारी होनी आवश्यक होती है उसीप्रकार से महामारी, भूकंप, सुनामी, आँधीतूफ़ान चक्रवात आदि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान लगाने के लिए समय संबंधी जानकारी होना आवश्यक होती है | समय के संचार को समझने के लिए सूर्य के संचार को समझना अत्यंत आवश्यक है और सूर्य के संचार को समझने के लिए पूर्वजों ने गणितीय अनुसंधान प्रक्रिया खोज रखी है जिसके आधार पर सूर्य चंद्र आदि ग्रहों एवं ग्रहणों से संबंधित विषयों में पूर्वानुमान लगा लिए जाते हैं | उसी गणितीय अनुसंधान प्रक्रिया के आधार पर महामारी, भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं बादलों के फटने,ओलेगिरने,तापमान अचानक बढ़ने-घटने तथा अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाता है |
महामारी, भूकंप, सुनामी आदि समस्त प्राकृतिक घटनाओं का निर्माण समय की गति से निबद्ध है वह लाखों वर्ष पहले निर्धारित प्राकृतिक प्रक्रिया का अंग है |ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए परोक्षविज्ञान की समझ होनी आवश्यक होती है |इसके अभाव में जिसप्रकार से किसी कारखाने की चलती हुई मशीनों को देखकर हम उनके विषय में न तो यह अनुमान लगा सकते हैं कि इनके चलने का कारण क्या है अथवा इन्हें चलने ऊर्जा कहाँ से मिल रही है और न ही यह जान सकते हैं कि ये मशीनें कब तक चलेंगी | इस प्रकार का कोई भी अनुमान नहीं लगा सकते हैं |
ऐसी परिस्थिति में केवल बादलों को एवं आँधीतूफानों को उपग्रहों रडारों की मदद से देखकर उनके विषय में कोई अनुमान या पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है | सच्चाई ये है कि प्रकृति और जीवन से संबंधित घटनाओं का वास्तविक कारण खोजने या पूर्वानुमान पता लगाने के लिए अभी तक कोई वैज्ञानिक विधा विकसित नहीं है | जिस परोक्ष विज्ञान के द्वारा ऐसी घटनाओं को समझना एवं इनके विषय में अनुसंधान पूर्वक पूर्वानुमान लगाना संभव है उस परोक्षविज्ञान के वैज्ञानिकों का अभाव है जिसके कारण महामारी समेत समस्त प्राकृतिक घटनाओं के वास्तविक कारण को खोजना एवं उसके विषय में पूर्वानुमान लगाना अभी तक असंभव ही बना हुआ है |
घटनाओं के घटित होने के लिए जिम्मेदार कारणों की पहचान
डेंगू जैसे रोग का प्रसार जिन मच्छरों से होता बताया जाता है वे मच्छर साफ पानी में होते हैं ऐसा भी कहा जाता है | इससे बचाव के लिए कूलर गमलों आदि में संचित पानी हटाने की सलाह दी जाती है | ऐसी परिस्थिति में नियमतः तो इस प्रकार का पानी समाप्त होने से पहले डेंगू जैसे रोगों से मिलने की आशा की जानी चाहिए किंतु होता ऐसा नहीं है पानी भी बना रहता है और मच्छरों की उपस्थिति में ही डेंगू समाप्त होने लगता है | इस प्रकार से जिस वर्ष जब जब डेंगू जोर पकड़ता है तब तक इस प्रकार की साफपानी वाले मच्छरों की बातें की जाती हैं किंतु डेंगू समाप्त होते ही मान लिया जाता होगा कि अब न तो उसप्रकार के मच्छर बचे होंगे और न ही उस प्रकार का साफ पानी ही बचा होगा तभी तो डेंगू समाप्त हुआ होगा |
ऐसी परिस्थिति में यदि डेंगू के लिए साफ पानी वाले मच्छरों को जिम्मेदार माना गया तो तर्कों के आधार पर यह प्रमाणित भी होना चाहिए !
इसीप्रकार से महामारी, भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात बादलों का फटना ओले गिरने , अचानक तापमान बढ़ने या घटने ,अतिवृष्टि एवं अनावृष्टि के जैसी अधिकाँश प्राकृतिक आपदाओं के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार बताया जाता है | जलवायु परिवर्तन होने के लिए जीवाश्म ईंधन (जैसे, कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस) को जलाने के कारण पृथ्वी के वातावरण में तेजी से बढ़ती ग्रीनहाउस गैसों को जिम्मेदार बताया जाता है ।ग्रीनहाउस प्रभाव और वैश्विक तापन को मनुष्य की क्रियाओं का परिणाम माना जा रहा है जो औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्य द्वारा उद्योगों से निःसृत कार्बन डाई आक्साइड आदि गैसों के वायुमण्डल में अधिक मात्रा में बढ़ जाने का परिणाम बताया जा रहा है ।
ऐसी परिस्थिति में जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार जो मनुष्यकृत कारण बताए जाते हैं नियमतः तो जब उस प्रकार का औद्योगिक विकास नहीं हुआ था | उस समय ऐसी घटनाएँ नहीं घटित होनी चाहिए थीं किंतु ऐसी घटनाएँ तो हमेंशा से घटित होती रही हैं | दूसरी बात ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ यदि जलवायु परिवर्तन के कारण घटित होती हैं | तो जलवायु परिवर्तन तो औसत मौसमी दशाओं के पैटर्न में ऐतिहासिक रूप से बदलाव आने को कहते हैं। सामान्यतः इन बदलावों का अध्ययन पृथ्वी के इतिहास को दीर्घ अवधियों में बाँट कर किया जाता है।
इस दीर्घावधि का मतलब ये दीर्घकालीन बदलाव है ये ऐसा नहीं कि किसी वर्ष होगा और किसी वर्ष नहीं होगा किंतु व्यवहार में ऐसा देखा जाता है कि कई बार कुछ वर्षों तक ऐसी घटनाएँ घटित होती दिखाई देती हैं कई बार दशकों तक नहीं घटित होती हैं महामारी की आवृत्तियाँ तो सौ वर्ष में होती बताई जाती हैं |
विशेष बात है कि ऐसी दुर्घटनाओं का कारण यदि मनुष्यकृत कर्मों से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन को माना जाए तब मनुष्यकृत औद्योगिक क्रांति कभी रुकती तो है नहीं वह तो दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है इसका मतलब तो यह हुआ कि ऐसी प्राकृतिक दुर्घटनाओं को हमेंशा बढ़ते ही जाना चाहिए किंतु ऐसा होते हमेंशा तो देखा नहीं जाता है | दूसरी बात ऐसी दुर्घटनाएँ तो हजारों वर्ष पहले भी घटित हुआ करती थीं तब मनुष्यकृत ऐसे औद्योगिककारण तो बिल्कुल नहीं थे | उस समय ऐसी दुर्घटनाओं के घटित होने का कारण क्या रहा होगा |
वस्तुतः वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर महामारी के दुष्प्रभाव को रोकने में सक्षम यदि कोई कोविड नियम जैसी प्रभावी प्रक्रिया थी तो महामारी जिस किसी भी कारण से जहाँ कहीं पैदा हुई उस समय जिस किसी एक देश में दिखाई पड़ी तो इसका पता लगते ही बाकी देशों प्रदेशों को संयम का परिचय देते हुए कोविड नियमों का कठोरता पूर्वक पालन करते हुए अपने अपने देश वासियों को महामारी संक्रमण से बचाना उनका पहला कर्तव्य बनता था |ऐसा क्यों नहीं किया जा सका यह चिंतन का विषय अवश्य है |
महामारी सबसे पहले जिस देश में पैदा हुई या पता लगी इसकी जानकारी समस्त विश्व को हुई उन उन देशों के शासकों प्रशासकों ने सभी प्रकार से महामारी पर अंकुश लगाने के प्रभावी प्रयास किए इसके बाद भी महामारी की गति रोकी नहीं जा सकी और धीरे धीरे संपूर्ण विश्व में फैलती चली गई | सभी देश बेचारे विवश होकर महामारी का यह तांडव सहते रहे | महामारी रोकने के लिए किए गए सभी वैज्ञानिक प्रयास निरर्थक होते चले गए |
घटनाओं के कारणों की खोज में भ्रम एवं निवारण के उपायों में संशय !
कुल मिलाकर प्रत्येक प्राकृतिक घटना देखने में भले अचानक घटित हुई लगे या उसके घटित होने के लिए भ्रमवश कोई न कोई जिम्मेदार कारण दिखाई दे किंतु प्राकृतिक घटनाएँ कभी किसी कारण से नहीं घटित हुआ करती हैं ऐसी घटनाओं को पूर्व निर्धारित निश्चित समय पर घटित होना होता है जिनका टाला जाना संभव नहीं होता है |प्रकृति की प्रत्येक घटना घटित होने का परोक्ष कारण समय होता है जिसे केवल समय वेत्ता ही समझ पाते हैं | प्राकृतिक घटनाओं के परोक्ष कारण को समझने में असमर्थ लोग वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर प्रत्यक्ष कारणों की कल्पना कर लिया करते हैं और उसी कल्पित प्रत्यक्ष कारण को प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने के लिए जिम्मेदार मान लिया करते हैं | उन्हें लगता है कि यदि ऐसा न हुआ होता तो वो प्राकृतिक घटना नहीं घटित हुई होती जबकि उस घटना के लिए जिसको कारण समझकर जिस घटना के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है उस प्रकार के कारण तो अक्सर देखे जाते हैं किंतु हर बार उस प्रकार की घटनाएँ तो नहीं घटित हुआ करती हैं | इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह घटना घटित होनी निश्चित थी उसके लिए परोक्ष को न समझपाने की असमर्थता से हम प्रत्यक्ष को कारण मान लिया करते हैं |
प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु उसकी आयु पूरी होने के कारण होती है जबकि उसके लिए भी कोई न कोई कारण मान लिया जाता है |जो व्यक्ति जहाँ कहीं जिस किसी भी परिस्थिति में होता है जो कुछ भी खाया पिया होता है जो कुछ भी कर रहा होता है आयु का क्षण पूरा होते ही उसकी मृत्यु हो जाती है | आयु का क्षण पूरा होते समय यदि वह प्रत्यक्ष रूप से किसी दुर्घटना का शिकार होता है तब तो उसकी मृत्यु का कारण उसी दुर्घटना को मान लिया जाता है अन्यथा उसके आस पास जो जो कुछ हुआ या होता दिखता है जो कुछ खाया पिया पता लगता है उसी को उस व्यक्ति मृत्यु का कारण मान लिया जाता है जबकि ये सही नहीं होता है | तेल की समाप्ति हो जाने से यदि कोई दीपक बुझ जाता है | पेट्रोल समाप्त होने से यदि कोई गाड़ी रास्ते में रुक जाती है तो इसके लिए किसी दूसरे प्रत्यक्ष कारण की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं होती | जीवन में आयु भी तो ईंधन ही है आयु समाप्त होते जीवन को समाप्त होना ही है |
किसी भूकंप महामारी या मार्ग दुर्घटना की चपेट में आकर हुई किसी की मृत्यु के लिए उस दुर्घटना को इसलिए जिम्मेदार नहीं जा सकता है क्योंकि उसी परिस्थिति में फँसे कुछ अन्यलोग जीवित भी तो बचे होते हैं दुर्घटना तो उनके साथ भी घटित हुई किंतु उनकी आयु अवशेष थी इसलिए दुर्घटना से प्रभावित होकर भी वे जीवित बच गए जिनकी मृत्यु हुई उनकी आयु ही पूरी हो चुकी थी | इसका मतलब मृत्यु तो आयु पूरी होने के कारण हुई है दुर्घटना तो मात्र एक बहाना बनती है जो प्रत्यक्ष दिखने के कारण भ्रम हो रहा होता है |परोक्ष कारण को पहचानने की क्षमता होती तो प्रत्यक्ष कारण का भ्रम नहीं होता |
बहुत ऐसे मनीषी महर्षि तपोनिष्ठ लोग हुए हैं जो अपनी आयु समाप्त होने पर आसन लगाकर सहज भाव से ईश्वर का चिंतन करते हुए निर्धारित मृत्यु का समय उपस्थित होने पर अपने शरीर का बिसर्जन कर दिया करते हैं उस समय मृत्यु का परोक्ष कारण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ रहा होता है | परोक्ष कारण कारण न होता तो वहाँ भी कोई न कोई प्रत्यक्ष कारण खोज लिया गया होता |
काशी में कोई व्यक्ति प्रतिदिन बिना नागा 40 वर्ष से गंगा नहाने जा रहे थे | जिस समय उसकी आयु पूरी हुई उस समय भी गंगा नहा रहे थे | सर्दी का समय था | उसी समय उनकी पूर्व निर्धारित मृत्यु तो होनी ही थी इसलिए हो गई | उसके मृत्यु को प्राप्त हो जाने के बाद लोग प्रत्यक्ष कारण खोजने लगे गंगा नहाने थे ठंड लग गई होगी | डुबकी लगाने से साँस फँस गई होगी | ऐसा जानते कि तो गंगा नहाने न जाते घर में गर्म पानी करके नहला दिया जाता आदि आदि जाने प्रत्यक्ष कारणों की कहानियाँ गढ़ ली गईं और वास्तविक कारण की जानकारी के अभाव में सर्दी में गंगा नहाने से लगी ठंड को मृत्यु का कारण मान लिया गया |
प्रकृति से लेकर जीवन तक ऐसी असंख्य घटनाएँ घटित हुआ करती हैं जिनके घटित होने के लिए जिम्मेदार जो वास्तविक कारण होते हैं वे केवल परोक्ष विज्ञान से ही समझे जा सकते हैं परोक्ष विज्ञान से अनभिज्ञ लोग प्रत्येक घटना का कोई न कोई प्रत्यक्ष कारण खोजकर अज्ञानवश उस घटना को टालने के सपने देखने लगते हैं |उदाहरण के तौर पर प्रयास पूर्वक जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाया जा सकता है और ऐसा होते ही सभी प्रकार की प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटित होनी कम हो सकती हैं | मच्छरों को समाप्त करके डेंगू से मुक्ति पा लेने के सपने देखे जाते हैं | भ्रमवश कोविड नियमों का पालन करके महामारी से बच लेना चाहते हैं क्योंकि अज्ञान वश हमने ऐसा भ्रम पाल लिया है कि महामारी पैदा होने का कारण एक दूसरे के संपर्क में आने से होने वाली छुआ छूत है किंतु सभी के संपर्क में बड़ी बड़ी भीड़ में हम हमेंशा से रहते रहे महामारी तो अभी आई है | इसलिए महामारी का कारण छुआ छूत न होकर अपितु इसका वास्तविक कारण कुछ और है जिसे केवल परोक्ष विज्ञान से समझा जा सकता है उसके अभाव में ही ऐसे भ्रम पाल लिए जाते हैं |
समय के प्रभाव को समझे बिना होता है जलवायुपरिवर्तन का भ्रम !
वर्षाऋतु एक स्वतंत्र समय खंड है जो प्रत्येक वर्ष एक निश्चित समय के लिए अपने समय पर आते जाते दिखाई देता है यह एक स्वतंत्र घटना है | अलनीनो ला-निना जैसी स्वतंत्र समुद्री घटना है | इन दोनों को एक साथ जोड़कर देखने का औचित्य ही क्या है और इनका आपस में संबंध कैसे सिद्ध होता है | इसीलिए इसके आधार पर वर्षा संबंधी दीर्घावधि पूर्वानुमान तथा मानसून आने जाने संबंधी भविष्यवाणियाँ एवं तापमान बढ़ने घटने के विषय में बताए गए पूर्वानुमान प्रायः गलत निकलते रहे हैं |
घटनाओं के घटित होने में समय की भूमिका को समझे बिना कई बड़े संशय पैदा हो जाते हैं |मई जून के अधिक गर्मी वाले दिनों की अपेक्षा क्रमशः तापमान कम होता चला जाता है और दिसंबर आदि महीनों में तापमान बहुत कम हो जाता है | इसका यह मतलब तो नहीं है कि इसी अनुपात में तापमान घटता ही चला जाएगा इसी क्रम में आगे के कुछ महीनों वर्षों में तो और अधिक घटता ही चला जाएगा | इस प्रकरण में समय के संचार को समझने के कारण ही तो हमें पता है समय क्रम में कितने महीनों तक तापमान कम होता चला जाएगा और उसके बाद बढ़ना प्रारंभ होगा शिखर पर पहुँच कर फिर कम होना प्रारंभ हो जाएगा | तापमान के घटने बढ़ने की यह प्रक्रिया प्रत्येक वर्ष में दोबार प्रत्येक महीने में महीने में चार बार और प्रत्येक दिन में दो बार घटित होती है |ये उसका अपना क्रम है |
मौसम संबंधी दीर्घावधि गतिविधियों को देखा जाए तो कुछ दशकों में वर्षा बहुत हुई होती है कुछ दशकोंमें सामान्य तो कुछ दशकों में कम होती है | किसी एक दशक को लिया जाए तो कुछ वर्षों में अधिक वर्षा हुई होती है कुछ में सामान्य और कुछ में कम होती है | प्रत्येक वर्ष के बारिश संबंधी महीनों के कुछ सप्ताहों और उनके कुछ दिनों में इसी प्रकार का क्रम घटित होते देखा जाता है | यही क्रम सभी प्रकार की मौसम संबंधी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में घटित होते देखा जाता है | प्राकृतिक घटनाओं का वेग कम और अधिक होना तो उनके संचार क्रम में सम्मिलित ही है | इसलिए ऐसा होते रहना स्वाभाविक ही है |इसी प्रकार प्रत्येक महीने में कुछ दिनों तक चंद्रमंडल का घटते जाना उसके बाद बढ़ने लगना एक निश्चित समय के बाद फिर कम होना प्रारंभ होता है | ग्लोबलवार्मिंग जैसी दीर्घावधि प्राकृतिक अवस्था भी इसी प्राकृतिक क्रम का ही तो अंश है | इसीलिए एक निश्चित अवधि तक बढ़ना एवं उसके बाद कम होना प्रारंभ होता जाएगा | यही तो समय प्रेरित प्रकृति क्रम है |
समय के परोक्ष प्रभाव की समझ के अभाव में जलवायुपरिवर्तन जैसा भ्रम कल्पित बेचैनी बढ़ा रहा है ऐसी मिथ्या धारणा पालकर लोग स्वयं भी डर रहे हैं दूसरों को भी डरवाते देखे जा रहे हैं | आज के सौ वर्ष बाद ऐसा होगा दो सौ वर्ष बाद वैसा होगा |उससे तापमान बढ़ जाएगा सूखा पड़ेगा अकाल पड़ेगा आँधी तूफ़ान आएँगे ऐसा वो लोग करते हैं जो चार दिन पहले के मौसम संबंधी पूर्वानुमान सही नहीं बता पाते हैं | जिनकी बताई गई मानसून संबंधी तारीखें प्रतिवर्ष गलत होती हैं वे आज के सौ दो सौ वर्ष बाद जलवायुपरिवर्तन के कारण घटित होने वाली घटनाओं के विषय में किस आधार पर ऐसी बातें बोल रहे होते हैं | ये उस प्रकार की अज्ञानजनित परिकल्पना है कि सूर्योदय होते समय जितना तापमान था उसके छै घंटे बाद यदि इतना बढ़ गया तो उसके बारह घंटे बाद न जाने कितना बढ़ जाएगा आदि आदि | हमें याद रखना चाहिए कि समय के प्रभाव के बिना प्रकृति में इतना बड़ा बदलावहो ही नहीं सकता है | वैसे भी जिस समय के प्रभाव से जलवायुपरिवर्तन जैसा इतना बड़ा बदलाव प्रकृति में हो जाएगा उस समय का प्रभाव उसी अनुपात में जीवन पर भी तो पड़ेगा | अतएव समय प्रभाव से होने वाले जलवायुपरिवर्तन जनित घटनाओं को सहने की क्षमता समय उसी अनुपात में प्राणियों को भी देगा | इसी क्रम से सृष्टि का संचालन हमेंशा से होता चला आ रहा है | उसे समझने की आवश्यकता है |
समय के स्वभाव के अनुशार यह उतार चढ़ाव प्रकृति से लेकर जीवन तक सभी प्रकरणों में दिखाई पड़ता है |प्रत्येक महीने में चंद्रमा पंद्रह दिन बढ़ता और पंद्रह दिन घटता है | समय के प्रभाव से यही क्रम प्रकृति से लेकर जीवन तक हमेंशा से चला आ रहा है | जीवन में स्वास्थ्य ,सम्मान,संपत्ति ,सुख दुःख एवं पद प्रतिष्ठा का घटना बढ़ना इसी के उदाहरण हैं | मित्रों शत्रुओं की संख्या घटना बढ़ना ,मित्रों शत्रुओं में मित्रता एवं शत्रुता की भावना का घटना बढ़ना आदि इसी के उदाहरण हैं | पति पत्नीआदि संबंधों में प्रेम भावना का घटना बढ़ना भी इसी समय प्रभाव की देन है | समय के स्वभाव में बदलाव लाकर हम इस घटने बढ़ने की प्रक्रिया को अपनी सुविधा के अनुसार किसी एक विंदु पर रोककर अपनी इच्छा से उसका संचालन करना चाहते हैं |
इसीलिए हमारे चिंतन में बैठे जलवायु परिवर्तन जैसे भय से हम केवल प्राकृतिक घटनाओं के विषय में ही नहीं यह सोच सोच कर भयभीत हैं कि आज के सौ दो सौ वर्ष बाद प्रकृति में कैसी कैसी भयावह घटनाएँ जलवायु परिवर्तन के कारण घटित हो सकती हैं अपितु समय की समझ के अभाव में यह विपरीत चिंतन हमारे जीवन को स्वस्थ शांत एवं सहनशील नहीं बनने दे रहा है |हम निरंतर भय के वातावरण में जीवन जीने के लिए विवश हैं |
इसी जीवन संबंधी जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य ,सम्मान,संपत्ति ,सुख दुःख एवं पद प्रतिष्ठा का घटना बढ़ना हम सह नहीं पा रहे हैं | मित्रों शत्रुओं की संख्या घटना बढ़ना ,मित्रों शत्रुओं में मित्रता एवं शत्रुता की भावना का घटना बढ़ना आदि हम से सहा नहीं जा रहा है |हम जीवन संबंधी सारी परिस्थितियाँ प्राकृतिक वातावरण अपने अनुकूल रखना चाहते हैं | हमें दिन पसंद है तो हम रात नहीं होने देना चाहते हैं दिन ही रखना चाहते हैं | इसी विपरीत चिंतन के कारण आशंकाओं में हम अनगिनत एक से एक बड़े अपराध करते देखे जा रहे हैं समाज अपराधी होता जा रहा है किंतु हम जीवन संबंधी जलवायु परिवर्तनका भय भूलने को तैयार ही नहीं हैं | इसी आशंका से हम जीवन संबंधी किसी एक अपने से विपरीत परिस्थिति से इतना अधिक उत्तेजित हो जाते हैं कि समय क्रम से आने वाले उसी परिस्थिति के दूसरे सुखद पहलू की प्रतीक्षा किए बिना उतावलेपन में कोई न कोई अपराध कर बैठते हैं कि यदि अभी इतना बुरा है तो भविष्य में और अधिक बुरा हो सकता है | जिस मित्र सगे संबंधी मित्र पत्नी आदि से कभी बहुत अधिक स्नेह मिला करता था | जिस समय प्रवाह के साथ आज वह कम हुआ है उसी के साथ कल फिर परिवर्तन होगा उसके साथ भावनाएँ फिर बदलेंगी फिर आपस में अधिक स्नेह स्थापित होगा | ऐसा सोचने और प्रतीक्षा करने के बजाय हम भविष्य भय से आशंकित होने के कारण तुरंत वाद विवाद लड़ाई झगड़ा करते हुए संबंध विच्छेद करने लगते हैं | जिससे कभी स्नेह रह चुका होता है उसे ही चोट पहुँचाने के विषय में सोचने लगते हैं | ऐसा जीवन संबंधी स्वास्थ्य ,सम्मान,संपत्ति ,सुख दुःख एवं पद प्रतिष्ठा आदि प्रत्येक परिस्थिति के विषय में सोचना चाहिए |
इसलिए हमें प्रकृति और जीवन से संबंधित विपरीत परिस्थितियों के प्रति भी सकारात्मिका सोच रखनी चाहिए | वे परोक्ष रूप से हमारे प्रकृति एवं जीवन के लिए सहायक समझकर ही समय के द्वारा कुछ कठोर निर्णय लिए जा रहे होते हैं जिनके परिणाम स्वरूप हमें प्रकृति और जीवन में कुछ सुखशांति प्रद परिस्थितियाँ मिल जाती हैं |ग्लोबल वार्मिंग और जलवायुपरिवर्तन जैसी घटनाओंको भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए |
'समय'शास्त्र का महत्त्व
समय की परोक्ष भूमिका को समझे बिना प्रत्यक्ष के आधार पर मौसम संबंधी जो भी वैज्ञानिक अनुसंधान किए जाते हैं या पूर्वानुमान लगाए जाते हैं उनका सही निकलना संभव इसलिए नहीं होता है क्योंकि प्राकृतिक घटनाएँ समय के अनुशार घटित होती हैं |समय की गति कब कैसी रहेगी यदि हमें यही नहीं पता होगा तो उसके आधार पर घटित होने वाली प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकेगा |
वैज्ञानिक अनुसंधानों के इसी अधूरेपन का दंड कोरोना महामारी के समय जनता ने खूब भोगा है | महामारी संबंधित अध्ययनों अनुसंधानों में हमने प्रत्यक्ष कारण तो ग्रहण किए किंतु परोक्ष कारण भूलते रहे जबकि महामारी में सबसे अधिक भूमिका ही उनकी थी |
इसी अज्ञान के कारण इतनी उन्नत वैज्ञानिक उपलब्धियों का सहयोग पाकर भी तीन वर्ष तक समस्त विश्व को रौंदती रही महामारी के विषय में कुछ भी पता न तो लगाया जा सका है और न ही लगाया जा सकेगा | महामारी समाप्त होने पर महामारी पैदा होने एवं संक्रमितों की संख्या बढ़ने घटने के कुछ कल्पित कारण मान लिए जाते हैं एवं उस समय जो औषधियाँ चलाई जा रही होती हैं उनका महामारी समाप्त होने से कोई संबंध न होने पर भी उन्हें महामारी की औषधि होने का भ्रम पालकर उसे लेने के बाध्य होना पड़ता है |
अभी तक महामारी को समझने के लिए जो वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनायी जा रही है वह उस ताले की चाभी ही नहीं है जिसे खोलने का प्रयास किया जा रहा है | उस प्रक्रिया से महामारी सहित सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं को समझना संभव ही नहीं है | यही कारण है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना हुए लगभग डेढ़ सौ वर्ष होने जा रहे हैं उसके द्वारा अभीतक महामारी से लेकर भूकंप मौसम आँधी तूफ़ान जैसी सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का न तो सही कारण खोजा जा सका है और न ही पूर्वानुमान बताया जा सका है |
इन्हीं अधूरे अनुसंधानों का प्रतिफल है कि भूकंपों के घटित होने का कारण खोजने के लिए हम धरती के अंदर गहरे गड्ढे खोदा बंद किया करते हैं | हमें लगता है कि भूकंप में धरती काँपती है चूँकि ये रोग धरती का है तो इसके कारण भी धरती में ही होंगे | इसके परोक्ष कारणों पर अगर ध्यान दिया जाता तो यह भी सोचा जा सकता था कि किसी भय से या सर्दी में ठंडी हवाएँ लगने जैसे बाह्य कारणों से भी लोगों के शरीरों में कंपन होते देखा जाता है | ऐसे कंपन को समझने के लिए उसके पेट में छेद न करके अपितु परोक्ष विज्ञान का प्रयोग करते हुए इस बात का अनुमान लगा लिया जाता है कि उस व्यक्ति के काँपने का कारण क्या हो सकता है|भूकंपन में भी परोक्षवैज्ञानिक अनुसंधानों से मदद मिल सकती है |
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