अनुसंधानों के आधार बहुत छिछले हैं !
किसी भी घटना के विषय में किए जाने वाले अनुसंधान का उद्देश्य जिस किसी भी प्रकार से उस घटना को अच्छी प्रकार से समझना होता है |जिसके आधार पर उस घटना विषय में जो कुछ भी समझा जाए वो घटना से संबंधित लगे भी और उसके आधार पर उस घटना के भविष्य संबंधी संभावित परिवर्तनों के विषय में जो भी अनुमान या पूर्वानुमान लगाया जाए वो सही निकले |
वर्तमान समय में प्राकृतिक विषयों पर जिस प्रकार से परिणामशून्य अनुसंधान चलाए जा रहे हैं वो चिंता का विषय है भूकंप आँधी तूफ़ान सूखा वर्षा और बाढ़ जैसी घटनाओं के विषय में या फिर कोरोना जैसी महामारियों के विषय में वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर यदि इसी प्रकार की समयपासपद्धति अपनाई जाती रही तो आज के हजारों वर्ष बाद भी ऐसे अनुसंधानों से कोई सकारात्मक परिणाम निकलेगा ऐसी आशा करने का मतलब अपने को धोखा देना है | हमारे कहने का मतलब आज के हजारों वर्ष बाद भी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में वैज्ञानिक उतने ही खाली हाथ बने रहेंगे जितने आज के हजारों वर्ष पहले थे अभी हैं एवं भविष्य में भी बने रहेंगे |
शासकों को यदि ऐसा लगता है कि प्राकृतिक घटनाओं या कोरोना जैसी महामारी के कठिन काल में सरकारों के द्वारा करवाए जा रहे वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा समाज को क्या कोई मदद पहुँचाई जा सकी है तो सरकारों को चाहिए कि पिछले दो तीन दशकों में भूकंप आँधी तूफ़ान सूखा बाढ़ और कोरोनामहामारी जैसी जो भी प्राकृतिक घटनाएँ घटित हुई हैं उनके स्वभाव को समझने में उनके विषय में अनुमान या पूर्वानुमान लगाने में वैज्ञानिक अनुसंधानों का क्या योगदान रहा है और उससे समाज को ऐसी कौन सी मदद पहुँचाई जा सकी जो इनके बिना संभव नहीं थी | ऐसे अनुसंधान यदि अभी रोक दिए जाएँ तो क्या क्या नुक्सान हो सकता है | इससे भूकंप आँधी तूफ़ान सूखा बाढ़ और कोरोना महामारी जैसी घटनाओं के संकटों से जूझते समाज को और कौन कौन सी समस्याएँ अधिक सहनी पड़ सकती थीं |जनता की कौन कौन सी परेशानियाँ और अधिक बढ़ सकती थीं जिन्हें कम करने में वैज्ञानिक कितने प्रतिशत तक सफल हुए हैं | ऐसे अनुसंधानों की मदद से कितना बचाव हो सका है |कुलमिलाकर कोरोना महामारी के विषय में वैज्ञानिकों का अनुसंधानजनित अनुभव कितना उपयोगी रहा है |
जिन वैज्ञानिकों को सक्षम सुयोग्य समझकर सरकारों ने ऐसे आवश्यक अनुसंधान कार्यों को करने की बड़ी जिम्मेदारी सौंप रखी है | वे कितने प्रतिशत अपने एवं अपने अनुसंधानों के प्रति जनता के बने विश्वास को सुरक्षित रखने में कितने प्रतिशत सफल रहे हैं |जिस जनता को प्राकृतिक संकटों से राहत पहुँचाने या सुख सुविधाएँ प्रदान करने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा क्या कुछ मदद पहुँचाई जा सकी है |
सरकारों के लिए ऐसे विषयों पर अनुसंधान करना करवाना इसलिए अधिक आवश्यक हो गया है ताकि सरकारों को निर्णय सुविधा हो कि भविष्य में ऐसी घटनाओं के विषय में अनुसंधान पद्धति रही है वही सही है उसके परिणामों से सरकारें और समाज संतुष्ट है या किसी अन्य ऐसे विकल्प की आवश्यकता है जिसके द्वारा भूकंप आँधी तूफ़ान सूखा बाढ़ और कोरोनामहामारी जैसी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में और अधिक परिणामप्रद अनुसंधान किए जा सकते हों जो ऐसी घटनाओं का करते समय लिए अधिक मददगार सिद्ध हो सके | करने में सक्षम हों |
प्राकृतिक घटनाओं के कारण निर्धारण की कमजोरियाँ !
कई बार जनता जिस समय प्राकृतिक रोगों ,महारोगों या अन्य प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रही होती है | जिन वैज्ञानिकों के द्वारा उनके विषय में कभी कोई अनुमान पूर्वानुमान आदि नहीं बताया गया होता है उनके घटित होने का वास्तविक कारण क्या है यह नहीं पता लगाया गया होता है किंतु उस संकट के लिए जनता को दोषी मानकर सरकारें जनता को दंडित करने लगती हैं |
कोरोना जैसी महामारी हो डेंगू जैसे रोग या सूखा बाढ़ आँधी तूफ़ान आदि प्राकृतिक आपदाएँ या वायु प्रदूषण तापमान आदि बढ़ने की घटनाओं का वेग जब जब बढ़ता है तो जनता को उससे जूझना पड़ता है | ऐसा क्यों हो रहा है इसका उन वैज्ञानिकों के पास कोई जवाब ही नहीं होता है | इसलिए वे किसी भी घटना के लिए जिम्मेदार कोई भी तथा कथित कारण बता दिया करते हैं वो कितना सही है कितना नहीं उस कारण घटना कोई संगति बैठती नहीं इसका तर्कसंगत उत्तर खोजे बिना सरकारें उस भ्रमवश मान लिए गए मनुष्यकृत कारण को मिटाने निकल पड़ती हैं | वह जनता लिए कितना भी आवश्यक क्यों न हो |कई बार ऐसा होता है कि जिस प्राकृतिक आपदा या घटना के लिए जो कारण जिम्मेदार बताए गए होते हैं उन कारणों के समाप्त हुए बिना भी उसप्रकार की समस्याएँ या घटनाएँ शांत होते देखी जाती हैं |
साफ पानी और उसमें संभावित लार्वा मच्छर आदि बने रहने के बाद भी डेंगू जैसे प्राकृतिक रोग स्वयं ही शांत होते देखे जाते हैं |जिन बस्तियों में ऐसी परिस्थितियाँ हमेंशा बनी रहती हैं किंतु उनमें डेंगू तो हमेंशा नहीं रहता है |
ऐसे ही जलवायु परिवर्तन जैसी निरंतर चलने वाली प्रक्रिया के कारण जो घटनाएँ घटित होती होंगी वे भी निरंतर घटित होती रहनी चाहिए या दो चार वर्षों में तो घटित होती ही रहनी चाहिए किंतु ऐसा होते तो नहीं देखा जाता है |सूखा बाढ़ आँधी तूफ़ान जैसी प्राकृतिक घटनाएँ तो वर्षों दशकों शतकों के अंतराल में घटित होते देखी जाती हैं |
वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जिस दीपावली के पटाखे जलाने या पराली जलाने को जिम्मेदार बताया जाता है | ऐसे कारणों के समाप्त होने के बाद तो वायु प्रदूषण समाप्त होना चाहिए किंतु ऐसा नहीं होता है | ऐसे ही जिन देशों में दीपावली नहीं मनाई जाती है या जिन देशों में धान बोई ही नहीं जाती है या पराली नहीं जलाई जाती है वहाँ वायु प्रदूषण नहीं बढ़ना चाहिए किंतु ऐसा होते तो नहीं देखा जाता है |
ऐसे ही कोरोना महामारी जनित संक्रमण बढ़ने के लिए जिस वायु प्रदूषण जिम्मेदार बताया गया !ऐसी स्थिति में जहाँ वायु प्रदूषण अधिक रहता है वहाँ संक्रमण अधिक होना चाहिए और जहाँ कम रहता है वहाँ कम होना चाहिए और जहाँ नहीं रहता है वहाँ नहीं होना चाहिए किंतु ऐसा होते देखा तो नहीं जाता है | यहाँ तक कि सन 2020 के अक्टूबर नवंबर दिसंबर जैसे महीनों में दिल्ली जैसे महा नगरों में वायु प्रदूषण तो दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था किंतु कोरोना संक्रमण दिनों दिन कम होता जा रहा था |
कोविड नियमों के पालन में लापरवाही या भीड़ भाड़ बढ़ने को कोरोना संक्रमण बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताया जाता रहा है | ऐसी परिस्थिति में बिहार बंगाल में हुए चुनावों में या दिल्ली के किसान आंदोलन में या धन तेरस दीपावली जैसी त्योहारी बाजारों में भारी भीड़ें उमड़ीं ,वायु प्रदूषण भी खूब बड़ा हुआ था किंतु कोरोना दिनोंदिन समाप्त होता जा रहा था |
कोरोना काल में कोविड नियमों का पालन करना सबके लिए अनिवार्य बताया गया था जो इनका पालन नहीं करेंगे वे संक्रमित होंगे और जहाँ जाएँगे उन्हें भी संक्रमित करेंगे |ऐसे डरावने अनुमान पूर्वानुमान आदि बताए गए थे | इसी बीच दिल्ली मुंबई सूरत आदि शहरों से भारी संख्या में श्रमिकों का पलायन प्रारंभ हुआ जहाँ किसी भी प्रकार से कोविड नियमों का पालन संभव ही नहीं था | यह सब कुछ देखकर महामारी के वैज्ञानिक विशेषज्ञों ने न केवल बड़ी चिंता व्यक्त की अपितु ऐसे अनुमान व्यक्त किए कि ये लोग जहाँ जाएँगे वहॉं बड़ी मात्रा में संक्रमण फैलाएँगे | वैज्ञानिकों के इस प्रकार के अनुमान पूर्वानुमान आदि सुनकर सरकारों को चिंता होनी स्वाभाविक ही थी |श्रमिकों को रोकना संभव न था ये उनकी मजबूरी थी |इसलिए उन्हें जाना ही था |
कुलमिलाकर दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों से पलायित श्रमिकों या झुग्गी जोड़ी में रहने वाले लोगों के यहाँ ध्वस्त होते नियमों को देखकर उन्हें लगता है कि वैज्ञानिकों के कथनानुसार तो इनमें से अधिकाँश लोग संक्रमित हो सकते थे किंतु ऐसा नहीं हुआ | कोविड नियमों का पालन न करने वाले वाले उनमें से किसी पलायित श्रमिक को जुकाम भी नहीं हुआ उस समय बार बार दिए जाने वाले वैज्ञानिक वक्तव्यों से जनता का विश्वास उठना स्वाभाविक ही है |
सबसे बड़ी समस्या तब होती है जब किसी एक ही संकट के विषय में एक ही समय में दिए गए वैज्ञानिकों के अनुसंधानात्मक बयान एक दूसरे के बिल्कुल बिरुद्ध होते हैं | वैज्ञानिकबयानों में इतनी अधिक भिन्नता होती है | ऐसे समय में जनता को निर्णय करना कठिन होता है कि उनमें से किसे सच माना जाए !ऐसे में भ्रमित जनता उन दोनों को न मानकर और अपनी सुविधानुशार चलने लगती है |
प्राकृतिक घटनाओं विषय में वैज्ञानिकों के अनुमानों पूर्वानुमानों में कुछ भिन्नता तो चलती है किंतु दिए जाने वाले वक्तव्यों में यदि इतना बड़ा अंतर होता रहेगा तब तो ठीक नहीं है | बिचार यदि एक दूसरे के विरोधी होने लगें तो कठिनाई होनी स्वाभाविक है |अपनी अपनी कल्पनाएँ अपना अपना रिसर्च और अपने अपने दावे होंगे तब तो उनमें सही क्या है जनता उसका निराकरण कैसे कर पाएगी | जो चीज जनता के लिए की जाती है वही जनता की समझ में न आवे तो उसका औचित्य क्या बचता है | किसी एक ही घटना के विषय में प्रत्येक वैज्ञानिक की इसीलिए तो परिस्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि अनुसंधान जिस आवश्यकता की पूर्ति के लिए किए जा रहे होते हैं उनका उस आवश्यकता से कोई संबंधी ही नहीं रह जाता है | संकट से जूझती जनता को ऐसे अनुसंधानों से सहयोग की अपेक्षा होती है उस समय चर्चा अनुसंधान पद्धति पर होने लगती है उन दोनों में सच कौन बोल रहा है चर्चा इस पर होती है | मूल बात पीछे छूट जाती है |
दृश्यपद्धति आधारित अनुसंधान
प्राकृतिक क्षेत्र से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर जिस प्रत्यक्ष दृश्य पद्धति को अपनाया जाता है इसमें समस्याओं के समाधान कम प्रश्न ज्यादा खड़े हो जाते हैं इसीलिए इस क्षेत्र में परिणामप्रद अनुसंधान कम और काल्पनिक कहानियाँ अधिक दिखाई पड़ती हैं |
वैज्ञानिकअनुसंधानों के विषय में ऐसी मान्यता है कि वे किसी न किसी सिद्धांत पर आधारित होते हैं और उन्हें तर्क की कसौटी पर कसा जा सकता है |यह पद्धतिदृश्य लक्षणों पर आधारित होती है इसलिए इसमें समस्त प्राकृतिक घटनाओं के दृश्य कारणों को ही सम्मिलित किया जाता है | उनके आधार पर समस्त प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान लगाए जाते हैं वे उनके कारण दिखाई पड़ रहे होते हैं लक्षण दिखाई पड़ते हैं तो उनके आधार पर जोअनुमान या पूर्वानुमान लगाए जाते हैं वे भी प्रत्यक्ष रूप से सही होते दिखाई पड़ने चाहिए | ऐसा होने पर ही इस दृश्य पद्धति की सच्चाई प्रमाणित हो सकेगी | इसके अतिरिक्त इस बात का परीक्षण करने के लिए कोई उपयुक्त आधार नहीं है कि यह दृश्य अनुसंधान पद्धति कितनी विश्वास करने योग्य है |
प्राकृतिक घटनाओं के विषय में या महामारी के विषय में जो भी अनुसंधान किए जाते हैं उनके द्वारा जो अनुमान या पूर्वानुमान लगाए जाते हैं गणना करने के लिए जो मॉडल बनाकर यह तय किया जाता है कि किस प्रकार की प्राकृतिक घटना कब घटित होगी ,वर्षा होगी किस दिन नहीं आँधी तूफान किस दिनआएँगे किस दिन नहीं भूकंप किस दिन आएँगे किस दिन नहीं ,महामारी कब घटित होगी कब नहीं ,महामारी की कौन सी लहर किस दिन से शुरू होगी किस दिन समाप्त होगी आदि जिन भी प्राकृतिक घटनाओं आपदाओं एवं महामारियों के विषय में जिस
वैज्ञानिक पद्धति से जिस समय अनुमान या पूर्वानुमान आदि लगाए जा रहे होते हैं उस समय यदि कुछ कमी लगती है उसी समय पूरा कर लिया जाना चाहिए जब अच्छी प्रकार विश्वास हो जाए कि हम जो बोलने जा रहे हैं वह सही होगा तभी उसे घोषित किया जाना चाहिए | ऐसा करने के बाद पहली बात तो उसे सही ही निकलना चाहिए और यदि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है तो सही निकलेगा भी ,फिर भी यदि की गई भविष्यवाणी एक आध बार गलत भी निकल जाए तो अपनी बात बदलने का प्रयास न करके अपितु अपनी गलती स्वीकार की जानी चाहिए |इसके साथ ही किस गलती के कारण ऐसा हुआ है इसके विषय में अनुसंधान होना चाहिए ,ताकि इस प्रकार की गलती दूसरी बार न हो |
कोरोना महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाओं एवं प्राकृतिक आपदाओं के विषय में लगाए जाने वाले अनुमानों पूर्वानुमानों की प्रक्रिया में जो गलतियाँ हो जाती हैं उनका प्रभाव उन अनुमानों पूर्वानुमानों पर भी पड़ता है इसलिए उनके द्वारा की गई भविष्यवाणियाँ गलत निकल जाती हैं उनके द्वारा बताए गए अनुमान गलत निकल जाते हैं जो ऐसे संकट काल में समाज के लिए अत्यंत दुःखप्रद होते हैं | उन गलतियों को छिपाने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं उनसे और बड़ा भ्रम पैदा होता है |
दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों से पलायित श्रमिकों के द्वारा कोविड नियमों का पालन बिल्कुल नहीं किया जा सका फिर भी वे जहाँ कहीं पहुँचे वहाँ कुशल ही रहे | उन्हें किसी प्रकार की संक्रमण जैसी कोई परेशानी नहीं हुई | इसका कारण जब वैज्ञानिकों से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इसका कारण उनकी प्रतिरोधक क्षमता अच्छी थी किंतु यदि सच्चाई यही थी तब तो पहले ही यही कहा जाना चाहिए था कि कोविड नियमों के पालन की अनिवार्यता उन्हीं के लिए है जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होगी |
कई बार वैज्ञानिकों के द्वारा कोरोना महामारी की समाप्ति संबंधी भविष्यवाणियाँ बार बार की जाती रही थीं | जिनका तर्कसंगत कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता था |ऐसे काल्पनिक अनुमान या पूर्वानुमान गलत होने ही होते हैं | ऐसी परिस्थिति में जैसे ही वे गलत निकलते वैसे ही वैज्ञानिकों के द्वारा वेरियंट बदलने की घोषणा कर दी जाती रही | यदि ऐसा था भी तो भविष्यवाणी करने से पूर्व ही इस बात का अनुमान -पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाना चाहिए था | गलत भविष्यवाणी करने से अधिक अच्छा था सही की जाती भले कुछ समय बाद होती किंतु ऐसा नहीं किया जा सका |
इसी प्रकार से मौसम संबंधी अच्छी और बुरी सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के विषय में कोई भी अनुमान पूर्वानुमान लगाने से पहले मौसम संबंधी घटनाओं को प्रभावित करने वाले अलनीनो, ला-निना जलवायु परिवर्तन जैसे सभी घटकों को एक साथ सम्मिलित करके अनुसंधान कर लिए जाने चाहिए | अनुसंधानों में भले ही कुछ समय और लगे | उसके बाद मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाकर भविष्यवाणियाँ की जाएँ किंतु एक बार भविष्यवाणियाँ कर देने के बाद भविष्यवाणियों को बार बार बदला नहीं जाना चाहिए | इसके साथ ही वैज्ञानिकों के द्वारा की गई भविष्यवाणियों के गलत होने पर अलनीनो, ला-निना जलवायु परिवर्तन जैसे बहाने बनाने की प्रक्रिया ठीक नहीं हैं क्योंकि ऐसे तो प्रत्येक भविष्यवाणी संदिग्ध बनी रहेगी | आखिर समाज इस बात का अंदाजा कैसे लगाएगा कि वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि के आधार पर की गई भविष्यवाणियों में से किस भविष्यवाणी को सच माना जाए और किसको नहीं | अर्थात वैज्ञानिकों की मौसम संबंधी किस भविष्यवाणी पर अलनीनो, ला-निना जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाओं का प्रभाव पड़ेगा और किस पर नहीं |
कुल मिलाकर मौसम संबंधी घटनाओं एवं महामारियों के विषय में कोई वैज्ञानिक पद्धति न होने के कारण ही तो अनुमान पूर्वानुमान आदि गलत होने पर इम्युनिटी ,वेरियंट एवं जलवायु परिवर्तन जैसे बहानेबताने पड़ते हैं |
वर्तमान समय में प्रकृति के प्रत्येक विषय में जितने वैज्ञानिक उतनी बातें उतने बिचार उतनी कल्पनाएँ और उतनी ही कहानियाँ तैयार होती हैं|वे सारी कल्पनाएँ आधार विहीन भ्रामक एवं प्राकृतिक आपदाओं तथा महामारी जैसे प्राकृतिक संकटों से हैरान परेशान जनता को भयभीत करने वाली होती हैं |
यदि एक बार भूकंप आया तो बार बार भूकंप आने की भविष्यवाणियाँ की जाने लगती हैं | तथा आँधी तूफानों सूखा अतिवर्षा बाढ़ आदि सभी प्रकार के प्राकृतिक संकटों एवं महामारियों के समय संक्रमितों की संख्या बढ़ने पर वैज्ञानिकों के ऐसे व्यवहारों से जनता की मानसिक परेशानियाँ बढ़ जाती हैं | प्रत्यक्ष परेशानियाँ समाज देख सुन और सह ही रहा होता है |
ऐसी बातों का वैज्ञानिक आधार के कारण वैज्ञानिक अनुसंधानों पर जो कुछ भी बोला जा रहा होता है उसमें वैज्ञानिकता कम और लीपा पोती अधिक होती है | ऐसे काल्पनिक बिचारों में इतनी स्पष्टता नहीं होती कि उन्हें सुनकर कुछ समझा जा सके या उसके आधार पर कोई योजना बनाई जा सके या उनसे आपदा प्रबंधन कार्यों में कोई मदद मिल सके |
इसलिए उचित यही है कि किसी भी प्राकृतिक घटना के समय अनुमान या पूर्वानुमान जो भी लगाया जाए उसका आधार यदि मजबूत न हो तो उसे बोला ही नहीं जाना चाहिए | जनता अपने वैज्ञानिकों की बातें मंत्रों की तरह से सुनती और मानती है |ऐसी स्थिति में जनता सबसे अधिक तब परेशान होती है जब विभिन्न प्राकृतिक विषयों या घटनाओं पर भिन्न भिन्न वैज्ञानिकों के द्वारा व्यक्त किए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि गलत होते देखे जा रहे होते हैं | उनके द्वारा दी जानकारियाँ गलत होते देखी जाती हैं | प्रायःप्रकृति वैज्ञानिकों के द्वारा प्राकृतिक घटनाओं विषय में दी गई जानकारियाँ गलत होती देखी जाती हैं | उनके द्वारा लगाए गए अनुमानों के विरुद्ध घटनाएँ घटित होते देखी जा रही होती हैं | परिस्थिति इससे भी अधिक तब बिगड़ जाती है जब एक ही घटना के विषय में एक ही समय में अलग अलग वैज्ञानिक भिन्न भिन्न माध्यमों से भिन्न भिन्न बिचार दे रहे होते हैं | कई बार उन मत मतांतरों में इतनी अधिक भिन्नता होती है कि उन्हें सुनकर जनता के लिए यह समझना कठिन होता है कि इस विषय में वैज्ञानिक कहना क्या चाहते हैं और जनता को उससे समझना क्या चाहिए और उसका अनुपालन कैसे किया जाना चाहिए |
घटनाओं के दिखाई पड़ने वाले कारण कई बार सच नहीं होते हैं !
प्रत्यक्ष दृश्य पद्धति को अपनाकर उपग्रहों रडारों की मदद से से आकाशस्थ बादलों की दिशा और गति देखी जा सकती है उसके आधार पर इस बात का अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि ये बादल कितने दिन में कहाँ पहुँच सकते हैं उसके आधार पर वर्षा होने या आँधी तूफ़ान आने के विषय में अंदाजा लगाया है यह एक प्रकार का जुगाड़ है किंतु अंदाजा लगाने की इस प्रक्रिया में घटनाओं के स्वभाव को समझने वाली ऐसी वैज्ञानिकता कहाँ है जिसके आधार पर इस बात का अनुमान लगाया जा सके कि प्रकृति में बदलाव होने का कारण क्या है ?
आकाश में अचानक बादल क्यों छा जाते हैं और पानी बरसने लगता है !इसके कुछ दिन बाद कहीं दूसरी जगह पहुँचकर बादल वहाँ बरसने लगते हैं | उसके बाद वही बादल कहीं और चले जाते हैं या फिर आकाश पूरी तरह से साफ हो जाता है | यही स्थिति आँधी तूफानों से संबंधित घटनाओं के विषय में भी देखने को मिलती है |
कई बार ऐसी वर्षा एवं आँधीतूफान जैसी घटनाएँ कई कई दिनों या सप्ताहों तक घटित हुआ करती हैं किसी किसी वर्ष ऐसी घटनाएँ बार बार घटित होती रहती हैं |कभी कभी बार यह क्रम कई कई सप्ताहों तक चल जाता है | उपग्रहों रडारों की मदद से इसे बार बार देखकर यह बताया है कि एक और तूफ़ान आ रहा हैं दो दिन बाद कह दिया जाए कि एक और तूफ़ान दिखाई है किंतु केवल देख देख कर बताते रहना ही अनुसंधानों का उद्देश्य नहीं है अपितु यह पता भी लगना चाहिए कि इस वर्ष ऐसा क्यों हो रहा है हर वर्ष तो नहीं होता है | यदि इसका कारण जलवायु परिवर्तन जैसी कोई घटना होती तब तो ऐसा प्रतिवर्ष होना चाहिए जबकि ऐसा होते देखा जाता है |
वर्षा के विषय में भी यही स्थिति होती है कि वर्षा का समय समीप आ जाने पर कहा जाता है कि परसों वर्षों होने की संभावना है |उसके बाद भी बादल बने रहने पर 72 घंटे और वर्षा होने की भविष्यवाणी कर दी जाती है | इसके बाद भी यदि वर्षा बंद नहीं हुई तो 48 घंटे और वर्षा होने की संभावना बता दी जाती है |इस प्रकार से उपग्रहों रडारों की मदद से जब तक बादल दिखाई पड़ते रहते हैं तब तक वर्षा होते रहने की भविष्यवाणी की जाती रहती है | कई कई दिनों या सप्ताहों तक चलने वाली वर्षा में कभी पहले से यह नहीं बताया जाता है कि आगामी सप्ताह की इतनी तारीख से वर्षा प्रारंभ होकर दस या बारह दिनों तक लगातार वर्षा होती रहेगी | उसके बाद आसमान साफ हो जाएगा |
वास्तव में ऐसी भविष्यवाणियों का आधार यदि विज्ञान है तो 72 घंटे ,48 घंटे आदि बार बार करने का क्या मतलब तब तो अनुसंधान के आधार पर शुरू में ही यह क्यों नहीं बता दिया जाता है कि इतने दिनों तक वर्षा होगी |यदि बादलों को देख देखकर ही बताते रहना है कि अभी और वर्षा होगी और जब बंद हो जाएगी तब भविष्यवाणियों के नाम पर कह दिया जाएगा कि अब वर्षा बंद हो जाएगी तो इसमें वैज्ञानिक अनुसंधानों का योगदान क्या है और इसमें विज्ञान की उपयोगिता ही कहाँ बचती है | जिस मौसमविज्ञान का मौसम से कोई संबंध ही सिद्ध नहीं होता है उसे मौसम विज्ञान कहना कितना उचित है |
हाथीविज्ञान और हाथियों के विषय में जानकारी
सुनने में तो यही लगता है कि हाथी को ठीक ठीक प्रकार से समझने की विद्या को ही हाथी विज्ञान कहा जाता होगा किंतु यह भी तो पता लगना चाहिए कि इससे हाथी के विषय में ऐसी नई जानकारी क्या मिली है जो इस विज्ञान के बिना संभव न थी और वह सही भी है या नहीं इसका भी निश्चय होना चाहिए |
कुछ नेत्रहीन लोग जिन्होंने हाथियों को पहले कभी देखा सुना नहीं था जो हाथियों के विषय में कुछ भी नहीं जानते थे ऐसे नेत्रहीन लोगों के समूह में एक हाथी लाकर खड़ा कर दिया जाए और उनसे पूछा गया कि इसे देखकर यह बताओ कि हाथियों के शरीर की बनावट कैसी होती है | यह सुनकर नेत्रहीन लोग हाथों से टटो टटो कर हाथी के आकार प्रकार का पता लगाने लगे |इस क्रम में जिसका हाथ हाथी की पूछ पर पड़ाउसे लगा कि हाथी पतला लंबा बिल्कुल सर्प की तरह होता है |हाथी के पैरों पर जिसका हाथ पड़ा उसे हाथी मोटे खंभे की तरह समझ में आया ! जिसका हाथ पेट पर पड़ा उसे हाथी तो पहाड़ की तरह लगा |जिसका हाथ हाथी के मुख में पड़ा उसे हाथी किसी कीचड़ युक्त दलदली कंदरा की तरह लगा | कुलमिलाकर हाथी के जिस अंग पर उनमें से जिस व्यक्ति का हाथ अंग पर पड़ा वे हाथी का आकार प्रकार उसी हिसाब का समझने लगे|
इस प्रकार से उन दृष्टिहीनों की हाथी विषयक रिसर्च संपन्न हुई और उनके हाथी विषयक अलग अलग अनुभवों को 'हाथीविज्ञान' नाम से एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर दिया गया |किसी बड़े आयोजन में किसी प्रसिद्ध पुरुष से इस किताब का लोकार्पण करवा दिया गया |इसे हाथीविज्ञान के नाम से पाठ्यक्रम में सम्मिलित करके पठन पाठन एवं छात्रों से रिसर्च करवाया जाने लगा |पी एच डी,डीलिट आदि डिग्रियाँ दी जाने लगीं | ऐसे रिसर्चों से बने हाथी वैज्ञानिकों को हाथी विषयक जानकारी कितनी हो सकी होगी ये कल्पना का विषय है |
'हाथीविज्ञान' पढ़ लिखकर तैयार हुए वैज्ञानिकों के गाँव में एक बार पागल हाथी घुस आया और तरह तरह के उपद्रव करने लगा | घबड़ाए हुए लोग बड़ी आशा से उन हाथी वैज्ञानिकों के पास बचाव की उम्मींद लेकर पहुँचे | वैज्ञानिकों का समूह उनके साथ हाथी के पास पहुँचा तो उन्हें और कुछ तो समझ में आ नहीं रहा था वे जिधर हाथी को जाते देखें उधर के विषय में अंदाजा व्यक्त करने लगते !हाथी किसी का घर गिराने लगे तो कहने लगें कि लग रहा है कि यह अब और अधिक आक्रामक हो रहा है | यह कुछ और गिरा सकता है | ऐसे ही और भी तरह तरह के अंदाजे लगाते जा रहे थे |हाथी को जो जो कुछ करते देखते हाथीवैज्ञानिक उसीप्रकार की भविष्यवाणी करने लगते | उनके अंदाजे में और समाज के अंदाजे में कोई अंतर ही नहीं था | महामारी या मौसम संबंधी अनुसंधानों में भी तो इसी प्रकार से हाथीविज्ञान की तरह ही न केवल अनुमान पूर्वानुमान आदि व्यक्त किए जाते हैं अपितु उपाय भी ऐसे ही किए जाते हैं और दावे भी ऊटपटाँग किए जाने लगते हैं |
एक बार ग्रीष्मऋतु में गर्मी से व्याकुल एक हाथी आराम करने के उद्देश्य से किसी पेड़ के नीचे आया और आराम करने के उद्देश्य से पेड़ की छाया में जैसे ही बैठने लगा, उसी समय पेड़ पर से एक शरारती बंदर हाथी की पीठ पर कूद गया |उसकी पीठ से छलाँग लगाकर फिर वापस पेड़ पर चला गया |वहाँ पेड़ पर बैठे अपने बंदर मित्रों से कहने लगा -"देख मैंने ऐसी लात मारी कि हाथी सह नहीं पाया और चुपचाप बैठ गया है| तू कहे तो एक लात और मारूँ सह नहीं पाएगा भाग खड़ा होगा तो दूसरे बंदरों ने कहा अच्छा मार कर देख |यह सुनकर जैसे ही बंदर दोबारा हाथी की पीठ पर कूदा तो हाथी ने अपनी सूँड से पकड़ लिया और जैसे ही रगड़ा तो वह बंदर रोने पीटने चीखने चिल्लाने लगा |
कोरोना महामारी की दूसरी लहर में इसी प्रकार की गलतफहमी का शिकार वैज्ञानिक शासक प्रशासक आदि सभी हो गए थे | सितंबर 2020 के बाद जनवरी 2021 बिना किसी औषधि या वैक्सीन के ही संक्रमितों की संख्या स्वतः दिनोंदिन कम होती जा रही थी |जिसमें किसी की कोई भूमिका न होने के बाद भी उसीबंदर वाली शरारती उछलकूद प्रारंभ हो गई | महामारी को पराजित कर देने या उसे भगा देने या उस पर विजय प्राप्त कर लेने के बड़े बड़े दावे किए जाने लगे ,जबकि ऐसा उनके पास था क्या जिसके बलपर कोरोना को पराजित कर देते ,फिर दावे करने में क्या जाता है| जब पेड़ के नीचे हाथी बैठने लगा था तो बंदर ने उसकी पीठ पर लात मारकर उसे बैठा देने का श्रेय ले ही लिया था | यदि पकड़ में न आता तो उसका दावा पक्का हो जाता !
ऐसी ही तरह तरह के दावे सुनकर मार्च अप्रैल 2021 में कोरोना ने जो कहर बरपाया था ,उसे समाज शायद कभी भूल पाए |कोरोना मतवाले हाथी की तरह रौंदता रहा कोरोना को पराजित करने के दावे करने वाले लोग हाथी वैज्ञानिकों की तरह मूकदर्शक बने रहे | जो जो होता जा रहा था वो वो बताते जा रहे | कोरोना पर विजय पा लेने के दावे अब कहीं नहीं सुनाई पड़ थे | महामारी को पराजित करने या उसे जीतने या उसपर विजय प्राप्त करने के दावे करने वाले लोग पूरी तरह शांत थे |
इसी प्रकार से किसी गाँव के एक छोर पर एक घना जंगल था उस जंगल से निकलकर हाथियों का झुंड कई बार गाँव में घुस आता था और काफी नुक्सान कर जाया करता था | इससे परेशान होकर लोग हाथी वैज्ञानिकों के पास गए तो उन्होंने गाँव वालों से कैमरे लगाने को कहा | उनकी सलाह मानकर गाँव के जिस ओर जंगल था उस ओर कैमरे लगा दिए गए फिर जब हाथियों का झुंड गाँव की ओर आता दिखाई पड़ता था तो गाँव वाले इकट्ठे होकर हाथियों को जंगल में खदेड़ आया करते थे | जिससे गाँव वालों का हाथियों से होने वाले नुक्सान से बचाव हो जाता था | एक दिन हाथी किसी दूसरे छोर से गाँव में घुस आए उधर कैमरे थे नहीं जब तक गाँव वाले सँभलते तब तक काफी नुक्सान चुका था |
यह सब देखकर हाथीवैज्ञनिकों को समझ में आया कि किसी समस्या से पीड़ित समाज को यदि किसी जुगाड़ से कुछ राहत मिल भी जाए तो ये नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी जुगाड़ किसी समस्या का स्थाई समाधान नहीं हो सकता है और घटनाओं को किसी भी माध्यम से प्रत्यक्ष घटित होते देखकर उसके विषय में कुछ अंदाजे लगा लेने वाले हाथीवैज्ञनिकों को विज्ञान सम्मत अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लेने वाला वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता है |
ऐसे ही एक बार कुछ बाढ़वैज्ञानिक नदी की बाढ़ पर रिसर्च करने के उद्देश्य से नदी को पार करने लगे कि नदी में कहाँ कितना गहरा है |इस विषय में उन्हें कुछ पता ही नहीं था | वे डंडे से टटो टटो कर आगे बढ़ते जा रहे थे उनका पैर जब किसी गहरे गड्ढे में पड़ता तब वे बाढ़पूर्वानुमान के नाम पर शोर मचाने लग जाते कि इसके आगे बहुत गहरा है धीरे धीरे गहराई और बढ़ती चली जाएगी | अभी हम नदी में इतने कदम चले हैं तब गहराई इतनी है दस फिट आगे बढ़ते बढ़ते गहराई इतनी और बढ़ सकती है और बीस फिट में उतनी आदि बाढ़ की अधिकता के कारण गहराई इसी क्रम में आगे और बढ़ती चली जाएगी | यह भविष्यवाणी करते समय ही उनका पैर अचानक किसी ऊँची चट्टान पर पड़ गया जहाँ पानी बहुत कम रह गया वे सब ख़ुशी के मारे चिल्ला उठे कि अब आगे नदी में बाढ़ बिल्कुल नहीं है हमलोगों ने नदी को पराजित कर दिया है और इसकी गहराई को जीत लिया है| नदी की बाढ़ डर कर भाग गई आदि आदि |
ऐसी वीरोक्तियों से अपना मनोबल बढ़ाते हुए वे कुछ समय के लिए वे अपने को बाढ़वैज्ञानिक या बाढ़योद्धा मानने लगते ,इसी क्रम में अगले ही क्षण नदी के अंदर कोई गहरा गड्ढा आया उसमें पैर चला गया और स्वयं बहने लगे गए |किसी ने पूछा यह क्या हो गया!तो कहने लगे कि जलवायु परिवर्तन के कारण नदी अपना स्वरूप बदल रही है ये बाढ़ का नया वैरियंट लगता है | यदि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव ऐसे ही बढ़ता गया तब के सौ दो सौ वर्ष बाद नदियाँ बचेंगी ही नहीं नदियों में सब कुऍं कुएँ ही हो जाएँगे | इसलिए इस जलवायु परिवर्तन को रोका जाना बहुत आवश्यक है | इसके लिए वर्षा का पानी छान छान कर नदियों में जाने देना होगा ताकि नदी में धूल मिट्टी न जाए ,क्योंकि धूल मिट्टी से ही नदियों में कहीं गड्ढे तो कहीं ऊँचे बन जाते हैं |
कुलमिलाकर ऐसे हाथीवैज्ञानिकों या बाढ़वैज्ञानिकों के द्वारा किए जाने वाले रिसर्चों से हाथियों या बाढ़ को समझना कैसे संभव हो सकता है ऐसे हाथी वैज्ञानिकों और या बाढ़ वैज्ञानिकों के वैज्ञानिक रिसर्चों से हाथी या बाढ़ के विषय में कोई नई जानकारी मिलेगी ऐसी अपेक्षा तो नहीं ही की जानी चाहिए |
वैज्ञानिकवक्तव्यों में गंभीरता की आवश्यकता
महामारियों को समझने के लिए गंभीर अनुसंधान किए जाने चाहिए ताकि भविष्य में महामारी की इतनी बड़ी कीमत किसी को न चुकानी पड़े |
हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में हम जो जो कुछ कर पा रहे हैं वह मात्र एक जुगाड़ है इसमेंअभी तक विज्ञान जैसा कुछ भी नहीं है | जो महामारियों से संबंधित अनुसंधानों में किसी सहयोग लायक हो | जुगाड़ तो केवल जुगाड़ ही होता है |
हाथीवैज्ञानिकों की पद्धति से तैयार किए जा रहे भूकंपवैज्ञानिक , वर्षावैज्ञानिक, आँधीतूफ़ान वैज्ञानिक, पर्यावरण वैज्ञानिक एवं महामारी वैज्ञानिक ये अपने अपने अपने विषयों से संबंधित आपदाओं के समय कितने अनुमान पूर्वानुमान आदि पता लगा पाते हैं |
भूकंपवैज्ञानिकों की भूकंपों के समय क्या भूमिका होती है भूकंप जैसी आपदाओं के समय जनहित में उनकी भूमिका क्या होती है भूकंप आने से पहले भूकंपों विषय पूर्वानुमान आदि लगा पाना उनके बश का नहीं होता और भूकंप आने के बाद भूकंपवैज्ञानिकों की कोई भूमिका रह नहीं जाती है फिर तो आपदा प्रबंधन वाले लोग जिम्मेदारी सँभाल ही लिया करते हैं |कुल मिलाकर भूकंपवैज्ञानिकों की भूकंप जैसी घटनाओं समय में उपयोगिता क्या है ये स्वयं में शोध का विषय है|हाथीवैज्ञानिकों की पद्धति से तैयार किए जा रहे भूकंपवैज्ञानिकों की तरह ही वर्षावैज्ञानिक, आँधीतूफ़ान वैज्ञानिक, पर्यावरण वैज्ञानिक एवं महामारी वैज्ञानिक तैयार हो रहे हैं | इनसे संबंधित घटनाओं के समय जनहित में इनकी उपयोगिता क्या है |
वस्तुतः प्रत्यक्षविज्ञान के आधार पर अनुसंधान करने की प्रक्रिया होती है जो जैसा दिखाई पड़ता है उसके हिसाब से वैसा ही अंदाजा लगा लिया जाता है |इसीपद्धति से यदि मौसमवैज्ञानिक लोग भी मौसमी गतिविधियों की जानकारी जुटाते रहे तो वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान जैसी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना सैकड़ों वर्षों में भी संभव नहीं है |
इसीप्रकार का हमारा भूकंपविज्ञान, वर्षाविज्ञान,आँधीतूफ़ान विज्ञान,पर्यावरण विज्ञान एवं महामारी विज्ञान जैसे न जाने कितने ऐसे विज्ञानों की कल्पना कर ली गई है|जिनमें विज्ञान है क्या और उसका संबंध घटनाओं के साथ कैसे जोड़ा जाता है ये पता ही नहीं चलता है |तर्क की कसौटी परखरा उतरना तो दूर इसमें तर्क करने लायक कुछ होता ही नहीं है |
वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर ऐसी अवैज्ञानिक वैज्ञानिकता को स्वीकार करके मानव समाज ने सबसे अधिक धोखा अपने आपको ही दिया है यदि ऐसा न किया गया होता तो महामारी या मौसम संबंधी प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित समाज इतना बेबश कभी नहीं होता कि मौसम संबंधी प्राकृतिक आपदाओं या महामारियों के समय उसे वैज्ञानिक अनुसंधानों से कोई मदद ही न मिल पाती और प्राप्त परिस्थितियों से उसे अकेले ही जूझना पड़ता | वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर महामारी भूकंप वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान या तापमान के बढ़ने घटने के विषय में अनुसंधान संबंधी जिसप्रकार की ढुलमुल नीति अपनाई जा रही होती है या जिस प्रकार की द्वयर्थी बातें बोल बोलकर लीपा पोती की जा रही होती है | उससे अनुसंधान भावना की गंभीरता कम होती है |
ऐसे प्राकृतिक वैज्ञानिक अनुसंधानों में पारदर्शिता दूर दूर तक देखने को नहीं मिल रही है | महामारी भूकंप वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान या तापमान के बढ़ने घटने के विषय में जो पूर्वानुमान लगाए जाते हैं तार्किक कसौटी पर खरा उतरने लायक उनमें सच्चाई होती ही नहीं है | वे अँधेरे में तीर चलाए जा रहे होते हैं उनमें क्या वैज्ञानिकता है कितने तीर तुक्के हैं यह पता ही नहीं लग पाता है |उन्हें आम जनता की भाषा में अंदाजा जबकि वैज्ञानिकों की भाषा में पूर्वानुमान कहने की परंपरा है वस्तुतः दोनों एक ही हैं |
लक्ष्य का अनुगमन करने वाले हों सार्थकअनुसंधान !
उद्देश्यविहीन निरर्थक रिसर्च यदि मौसम और महामारी के क्षेत्र में भी ऐसे ही चलते रहे तो इन क्षेत्रों से पीड़ित लोगों को आज के हजारों वर्ष बाद भी वैज्ञानिक अनुसंधानों से कभी कोई मदद कभी नहीं मिल पाएगी | एक तरफ वैज्ञानिक अनुसंधान होते रहेंगे दूसरी तरफ प्राकृतिक आपदाएँ और महामारियाँ घटित होती रहेंगी तीसरी बात समाज महामारियों और प्राकृतिक आपदाओं से समाज यूँ ही पीड़ित होता रहेगा |
वर्तमान समय में कोरोना महामारी से जूझती जनता को कुछ ऐसे ही निरर्थक रिसर्चों को सहना पड़ा है जिनमें वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर केवल अँधेरे में तीर चलाए जा रहे थे | जिन्हें महामारी के बिषय में कुछ भी पता ही नहीं था वे भी महामारी पर बिजय प्राप्त कर लेने के दावे करते देखे जा रहे थे | उनसे यह कौन पूछे कि महामारी को परास्त करने लायक आपके पास है क्या , जिसके बल पर कोरोना को पराजित करने की बातें कर रहे थे | कोरोना महामारी से निपटने लायक तैयारियाँ अभी तो बिल्कुल न के बराबर थीं इससे शासकों को अभी से यह लक्ष्य बनाकर चलना चाहिए कि भविष्य में जब कभी कोई महामारी आएगी उस समय महामारी प्रारंभ होने से पहले ही उसके बिषय में न केवल पूर्वानुमान लगा लिया जाएगा अपितु चिकित्सकीय दृष्टि से भी तब तक इतनी तैयारियाँ तो कर ही ली जाएँगी जिससे महामारियों से होने वाला जनधन का नुक्सान कम से कम हो |उस समय तक वैज्ञानिक अनुसंधानों से कुछ तो मदद मिल सके |
घटनाओं को घटित होते देखकर उसके आधार पर भविष्यके विषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है | इसके लिए घटनाओं के प्रारंभ होने का समय कारण स्रोत और शुरुआत अतीत से शुरू होनी चाहिए | वर्तमान से होते हुए भविष्य के लिए मजबूत प्रतीकों के साथ इस सार्थक अनुसंधान यात्रा को आगे बढ़ना चाहिए | वैज्ञानिक रिसर्चों के नाम पर हमारे द्वारा कई बार कुछ ऐसे भ्रम पाल लिए जाते हैं जिनका न तो कोई वैज्ञानिक आधार होता है और न ही कोई सच्चाई होती है |
वर्तमान समय में मौसम और महामारी संबंधी पूर्वानुमान के लिए किए जाने वाले अनुसंधानों के नाम पर एक ऐसे ताले को खोलने का प्रयास किया जा रहा है जिसकी अपनी चाभी तो खो गई है दूसरी चाभियों से उसे खोलने का प्रयास किया जा रहा है किंतु ताला खुल नहीं पा रहा है | जिसको खोलने में असफल रहने के कारण लोगों को यहाँ भी जलवायु परिवर्तन की बू आने लगी है इसलिए वे ताले को ही खराब बताने लगे हैं | किसी का ध्यान इस ओर नहीं जा रहा है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम ताला खोलने के लिए जिस चाभी का प्रयोग कर रहे हैं वो चाभी ही गलत हो |
यही स्थिति मौसम विज्ञान और महामारी से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधानों की है मौसम पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई उपयुक्त वैज्ञानिक प्रणाली खोजी ही नहीं जा सकी है जिससे यह पता लगे कि मानसून कब आएगा !इसी दुर्बलता के कारण हम कभी कहते हैं कि मानसून अपने समय से आगे पीछे आने लगा है तो कभी कहते हैं कि मौसम चकमा दे गया है तो कभी कहते हैं कि चक्रवात चुपके चुपके से आने लगे हैं |कई बार जलवायु परिवर्तन होने की बात करके अपना पीछा छोड़ाना पड़ता है |कोरोना स्वरूप बदल रहा है | ये सब सुनकर लगता है कि जैसे घटनाएँ हमें परेशान करने के लिए स्वयं ही जानबूझ कर ऐसे षड्यंत्र करने लगी हैं |
यही स्थिति महामारी विज्ञान की है कभी हम इसे घटते बढ़ते तापमान के साथ जोड़ते हैं तो कभी मौसम के साथ कभी वायु प्रदूषण के साथ तो कभी कोविड नियमों का पालन करने न करने के साथ जोड़कर कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ने घटने की बातें करने लगते हैं |कभी कभी तो कोरोना के स्वरूप बदलने की बातें करने लगते हैं |
वस्तुतः कोरोना स्वरूप नहीं बदल रहा होता है अपितु वह कोरोना के स्वरूप में होने वाला स्वाभाविक परिवर्तन है जो हमारे अज्ञान के कारण हमें समझ में नहीं आ रहा है | किसी कली का खिलकर फूल बनना एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैपरंतु जिसे इसप्रक्रिया का ज्ञान न हो उसे इससे आश्चर्य हो सकता है | यद्यपि ऐसे प्राकृतिक परिवर्तन तो प्रत्येक वस्तु में हमेंशा से होते रहे हैं |जिनके संभावित परिवर्तनों से समाज परिचित रहा है | इसीलिए समाज स्वयं घटनाओं के विषय में आगे से आगे अनुमान लगा लिया करता है |
जिन परिवर्तनों से हम परिचित नहीं होते वहाँ परिवर्तन होता देखकर हमें आश्चर्य सा लगता है जैसा कोरोना महामारी के समय हुआ है |किसी को जुकाम होता है तो खाँसी होने की भी संभावना रहती ही है | ये तो स्वाभाविक परिवर्तन हैं |
इसलिए हमें वैज्ञानिक अनुसंधानों के उद्देश्यों को याद रखना चाहिए कि हमारा लक्ष्य केवल प्राकृतिक घटनाओं के विषय में आँकड़े जुटाना ,घटनाओं का संग्रह रखना या किस घटना ने कितने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है या कहाँ कितने सेंटीमीटर बारिश हुई है यह बताना मात्र नहीं है और न ही तूफानों के नाम तय करना है | सारी प्राकृतिक घटनाओं को जलवायु परिवर्तन के मत्थे मढ़ देना भी नहीं है ,क्योंकि ऐसा कह देने का मतलब ही ऐसी अनुसंधान प्रक्रिया में असमर्थता व्यक्त कर देना है |
इसलिए जलवायु परिवर्तन जैसी कोई घटना यदि घटित हो भी रही हो तो उसके पूर्वानुमान लगाने की जिम्मेदारी भी तो उन्हीं मौसम वैज्ञानिकों की है |फावड़ा चलाने वाले की कमर कोई दूसरा व्यक्ति पकड़कर नहीं खड़ा होता है उसे भी सँभाल कर रखने की जिम्मेदारी भी फावड़ा चलाने वाले की ही होती है |इसलिए जलवायु परिवर्तन हो या वेरियंट बदले इसका पूर्वानुमान लगाने की जिम्मेदारी तो उन्हीं वैज्ञानिकों की है |उनमें साहस है तो जिम्मेदारी सँभालें अन्यथा पीछे हटें जलवायु परिवर्तन या वेरियंट बदलने की बातें समाज को बताकर वे क्या सिद्ध करना चाह रहे हैं |
इसीलिए मौसमवैज्ञानिक जो भी मौसमसंबंधी भविष्यवाणियाँ करते हैं उनका कोई सुदृढ़ वैज्ञानिक आधार हो ऐसा संभव ही नहीं है क्योंकि भविष्य संबंधी घटनाओं को देखने की आधुनिक विज्ञान के पास कोई वैज्ञानिक प्रणाली ही नहीं है | वहाँ तो घटती हुई घटनाएँ देखकर अंदाजे लगाए जाते हैं | यदि वे तीर तुक्के सही निकल जाते हैं तब तो भविष्यवाणी और यदि गलत निकल गए तो जलवायु परिवर्तन |
इसमें विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से आज के सौ दो सौ वर्ष बाद की घटनाओं के विषय में भविष्यवाणियाँ वही वैज्ञानिक लोग कर रहे होते हैं जिनके द्वारा दो चार दिन पहले के विषय में की गई मौसम संबंधी भविष्यवाणियाँ गलत होते देखी जा रही होती हैं, मानसून आने जाने की तारीखें हर वर्ष गलत होती हैं |अब तो ऐसा लगने लगा है कि मध्यावधि दीर्घावधि जैसे मौसम पूर्वानुमान हमेंशा गलत होने के लिए जाते हैं क्योंकि वे तो कभी सही हुए ही नहीं |जिन मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में दस पाँच दिन पहले बताए गए पूर्वानुमान सही नहीं निकलते उन्हीं वैज्ञानिकों के द्वारा आज के दो सौ वर्ष बाद के विषय में जो मौसम संबंधी डरावनी बातें बोली जा रही होती हैं | वे जलवायु परिवर्तन जैसी बातें कितनी सही हो सकती हैं उन अफवाहों का जनता के मानस पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है |
महामारीविज्ञान का मतलब क्या ?
आधुनिक विज्ञान ,परंपराविज्ञान या कुछ और !
वैज्ञानिक अनुसंधानों से क्या कुछ मिला अपने कोरोना पीड़ितों को ?
प्राचीन काल में आधुनिक युग की तरह यंत्र नहीं थे,इसप्रकार के उन्नत साधन नहीं थे जैसे कि इस समय में हैं |रोगों के परीक्षण के लिए जाँच की ऐसी व्यवस्था नहीं थी !बचपन से लगाए जाने वाले टीकों की जानकारी नहीं थी |दूरसंचार की ऐसी व्यवस्था नहीं थी कि चीन में फैले कोरोना के विषय में सबको एक साथ तुरंत पता लग जाता |चिकित्सा वैज्ञानिक अनुसंधान संबंधी विचार विमर्श एक दूसरे देश के वैज्ञानिकों से ले दे पाते |महामारी संक्रमितों की घटती बढ़ती संख्या या नए वेरियंट आने की जानकारी एक दूसरेसे आदान प्रदान कर पाते | यातायात के इतने तीव्रगामी साधन नहीं थे जिससे महामारी से बचाव के लिए यंत्र आवश्यक उपकरण एवं औषधियों का एक दूसरे स्थान या देश में इतनी जल्दी लाना ले जाना संभव होता | रिसर्च की ऐसी सुविधा भी उस समय वर्तमान समय की तरह विकसित नहीं थी|चिकित्सा के लिए उपयोगी अब की तरह अत्याधुनिक संसाधन नहीं थे |
महामारियाँ तो प्राचीनकाल में भी आती ही रही होंगी |लोग तब भी संक्रमित होते रहे होंगे और उनमें से बहुत लोगों की मृत्यु भी हो जाती रही होगी इसके बाद भी बड़ी मात्रा में लोगों का बचाव तब भी होता रहा होगा | क्रमशः बढ़ती रही जनसंख्या इस बात का प्रमाण है| वैसे भी प्राचीनकाल में किसी महामारी से कोई बहुत बड़ा जन संहार हुआ हो ऐसा वर्णन प्राचीनग्रंथों में कहीं नहीं मिलता है|
दूसरी ओर वर्तमान समय में चिकित्सा से संबंधित सभी क्षेत्रों में जब सराहनीय प्रगति हुई है |चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान एक से एक उन्नत सफलता के शिखर चूम रहे हैं| एक से एक बड़े रोगों की जाँच करने की क्षमता प्राप्त की जा चुकी है | रिसर्च पूर्वक अच्छी से अच्छी औषधियों का निर्माण संभव हो सका है |आपरेशन जैसी कठिन प्रक्रिया के द्वारा बड़े बड़े रोगों से मुक्ति दिलाई देखी जाती है |भविष्य में होने वाले रोगों से बचाव हेतु गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा के लिए प्रिवेंटिव चिकित्सा के रूप में गर्भिणी को गर्भावस्था से ही टीके लगाने का प्रबंध होता है | जन्म लेते ही शिशु के विभिन्न प्रकार के टीके लगाए जाने लगते हैं | तरह तरह के बिटामिन टॉनिक अन्य पौष्टिक पदार्थ ड्राईफ्रूट हरी सब्जियाँ फल और फलों का जूस दूध घी न जाने कितने प्रकार के पौष्टिक पदार्थ इसीलिए तो खिलाए जाते हैं | सुख सुविधा पूर्ण वातानुकूलित रहन सहन उपलब्ध करवाया जाता है |ऐसी सतर्कतापूर्ण सावधानी बरतने का संबंध इसलिए नहीं था क्योंकि उस समय उस शरीर में कोई रोग नहीं था जबकि चिकित्सा तो रोग की ही होती है |
स्वास्थ्य के अनुकूल रहन सहन खान पान चिकित्सकीय सावधानियाँ आदि बरतने की सलाह देने का उद्देश्य यही होता है कि शरीरों में प्रतिरोधक क्षमता का निर्माण होकर शरीर इतने मजबूत हो जाएँ जिससे भविष्य में संभावित रोगों से बचाव होता रहे |
स्वास्थ्य सुरक्षा के उद्देश्य से बचपन से युवा अवस्था तक जितने भी टीके लगाए गए जो टॉनिक बिटामिन आदि लिए गए उनसे निर्मित प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता महामारी के समय पड़ी उस समय यदि कहा जाए कि प्रतिरोधक क्षमता के अभाव में लोग संक्रमित हो रहे हैं ये ठीक नहीं है क्योंकि ऐसी परिस्थितियों का सबसे अधिक शिकार वो वर्ग हुआ है जिसने अपने पारिवारिक चिकित्सक इसीलिए नियुक्त कर रखे हैं कि वे समय समय पर उन्हें खान पान रहन सहन आदि की स्वास्थ्य अनुकूल सलाह देते रहें | इसके बाद भी यदि वे ऐसा नहीं कर पाए तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है |
गरीबों की प्रतिरोधकक्षमता कम हो ये बात समझ में आती भी है कि धन के अभाव में वे उस प्रकार के स्वास्थ्य अनुकूल संसाधन नहीं जुटा पाए होंगे किंतु संपन्न वर्ग के विषय में यह कहना उचित नहीं है क्योंकि वे तो स्वास्थ्य सुरक्षा के प्रति बहुत सजग रहते हैं डाइटचार्ट का अनुपालन करने का प्रयास करते हैं | इसके बाद भी उनमें प्रतिरोधक क्षमता की कमी का होना चिंताजनक इसलिए है कि उनके लिए प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने लायक उसप्रकार की उचित सलाह शुरू से ही क्यों नहीं दी गई जैसे इतने टीके लगाए जाते हैं वैसे कुछ और सही !महामारी से बचाव के लिए जो उपाय सहायक हो सकें ऐसा कुछ तो शुरू से सोचकर चला जाना चाहिए था | गरीबों, सामान्य लोगों एवं संपन्नवर्ग के लोगों में कुछ तो ऐसा अंतर होना ही चाहिए | जिसका प्रभाव महामारी काल में अलग से दिखाई पड़े |
साधन संपन्नवर्ग की अपेक्षा ग़रीबों में या सामान्य लोगों में महामारीजनित दुष्प्रभाव का प्रसार कम देखा गया जबकि साधन संपन्नवर्ग ने अन्य चिकित्सकीय सुविधाएँ अपनाने के साथ साथ कोविड नियमों का अनुपालन भी अधिक किया है इसके बाद भी उनका अधिक संक्रमित होना इसका वास्तविक कारण न पता लगाने की क्षमता का अभाव विनम्रता पूर्वक न केवल स्वीकार किया जाना चाहिए अपितु ऐसी अनुसंधानपद्धति का सृजन किया जाना चाहिए जो महामारी जैसे कठिन कालखंड में अपनी भूमिका का कुछ तो निर्वाह कर सके, जिसे अलग से पहचानना संभव हो सके | इसीलिए आवश्यक है कि महामारी को ठीक प्रकार से समझने का प्रयास किया जाना चाहिए |
महामारी संकट से बचाव के लिए आवश्यक तैयारियाँ !
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना महामारी के कारण वैश्विक समाज को अत्यंत कठिन समय बिताना पड़ा है |सरकारों ने चिकित्सकों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जनहित में समर्पण पूर्वक वसुधैव कुटुम्बकं की भावना से कार्य किए हैं फिर भी चूँकि आपदा बहुत बड़ी है इसलिए नुक्सान भी बड़ा ही होना था सो हुआ भी है |
इसमें समाज के सभी वर्गों को बहुत कुछ सहना पड़ा है किसी ने स्वप्न में भी ऐसा कभी नहीं सोचा होगा कि ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे |विशेषकर आर्थिक क्षमता विहीन मेहनत मजदूरी से जीवनयापन करने वाले सामान्यवर्ग को इस महामारी में अन्य लोगों की अपेक्षा बहुत कुछ अधिक सहना पड़ा है |इसमें भी भारतवर्ष के दिल्ली मुंबई सूरत जैसे महानगरों से श्रमिकों का पलायन अत्यंत दुखदायी रहा है|बच्चे बूढ़े महिलाएँ गर्भिणियाँ एवं आसन्न प्रसूता तथा प्रसूता महिलाओं का अपने अपने गाँवों में पहुँचने के लिए भूखे प्यासे रहकर हजारों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा है | ये अविस्मरणीय पीड़ा के दारुण दिन शायद ही कभी भूले जा सकें |
अस्पतालों में जगह नहीं थी चिकित्सकों से मिलना संभव नहीं था आक्सीजन एवं औषधियों की कमी हो गई थी | जिन देशोंप्रदेशों में ऐसा नहीं भी हुआ या आर्थिक रूप से सक्षम जो वर्ग अत्यंत सुयोग्य चिकित्सकों की देख रेख में संपूर्ण कोविड नियमों का पालन करता हुआ सघन चिकित्सा का लाभ लेते हुए भी संक्रमित हुआ उनमें से कुछ की दुर्भाग्य पूर्ण मृत्यु भी हुई है |
ऐसी परिस्थिति में समस्त पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर खुले मन से यह बिचार किए जाने की आवश्यकता है कि कोरोना महामारी आने में या महामारी से संक्रमितों की संख्या घटने बढ़ने में चिकित्सा की या चिकित्सा से जुड़े अनुसंधानों से प्राप्त अनुभवों की कोई भूमिका थी भी या नहीं !अर्थात यह सब कुछ प्राकृतिक ही था |
दूसरी बात कोरोना महामारी से बचाव हेतु जो चिकित्सकीय उपचार माध्यम अपनाए गए या जो कोविड नियम बताए गए थे | वे बचाव करने में कितने प्रतिशत सक्षम थे और उनका वैज्ञानिक आधार कितना मजबूत था |
इसी क्रम में यह जानना बहुत आवश्यक है कि महामारी से बचाव के लिए जो कार्य सबसे अधिक आवश्यक थे |उन क्षेत्रों में वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा क्या कुछ किया जाना संभव था |पहला महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाना तथा दूसरा महामारी के स्रोत खोजा जाना एवं तीसरा बचाव के लिए उचित उपाय एवं औषधि निर्माण किया जाना आवश्यक होता है | इतनी बड़ी महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाना सबसे पहले आवश्यक था बाक़ी बातें उसी के अनुशार की जा सकती थी किंतु ऐसा नहीं किया जा सका |
विशेष बात यह है कि महामारी के एक बार प्रारंभ हो जाने के बाद जो नुक्सान होना होता है वो होने ही लगता है | उस समय उसे रोकना किसी वैज्ञानिक अनुसंधान के द्वारा संभव नहीं होता है| ऐसी परिस्थिति में महामारीवैज्ञानिकों का सबसे पहला कर्तव्य इतनी बड़ी महामारी आने से पूर्व उसके विषय में पूर्वानुमान लगाना तथा उसीके आधार पर रोक थाम के उपाय एवं औषधि निर्माण करना होता है |इतनी बड़ी कोरोना महामारी आने के पहले यदि महामारी के विषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका तो रोक थाम के उपाय एवं औषधि निर्माण आदि कैसे संभव था | इसलिए महामारी से निपटने की वैज्ञानिक तैयारियों पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है | महामारी और परिणामप्रद प्रयास !
चिकित्सा सिद्धांत ही है कि किसी भी रोग से निपटने के लिए उस रोग के स्रोत,लक्षण,प्रकृति, संक्रामकता एवं उसकी परिवर्तनशील प्रवृत्ति को पहले से पहचानना आवश्यक होता है तभी उस पर अंकुश लगाया सकता है किंतु कोरोना महामारी के समय में चिकित्सावैज्ञानिकों से ऐसी कोई मदद नहीं मिल सकी |
महामारी के लिए वैज्ञानिकों ने मौसम संबंधी जिन प्राकृतिक घटनाओं को जिम्मेदार माना है उनके विषय में सही एवं सटीक पूर्वानुमान लगाने वाले वैज्ञानिकों की आवश्यकता थी किंतु मौसमवैज्ञानिकों के द्वारा इस प्रकार की मौसम संबंधी जानकारियाँ उपलब्ध नहीं करवाई जा सकीं |
महामारी संबंधित संक्रमण बढ़ने घटने के लिए समय समय पर जिस वायुप्रदूषण ,तापमान आदि को जिम्म्मेदार बताया गया था उस वायुप्रदूषण एवं तापमान के बढ़ने घटने का कारण आज तक नहीं खोजा जा सका है इसीलिए वायुप्रदूषण और तापमान बढ़ने घटने के विषय में पूर्वानुमान लगाया संभव ही नहीं है|
ऐसी परिस्थिति में यदि वास्तव में वायुप्रदूषण और तापमान बढ़ने घटने का प्रभाव कोरोना संक्रमितों पर पड़ता है तो इनका पूर्वानुमान लगाए बिना इसके प्रभाव से बढ़ने वाली महामारी संक्रमितों की संख्या बढ़ने घटने के विषय में पूर्वानुमान लगाना कैसे संभव है |
ऐसे ही कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा सूखा वर्षा बाढ़ आदि मौसमी घटनाओं को महामारी संक्रमितों की संख्या बढ़ने घटने के लिए जिम्मेदार बताया गया था | यदि महामारी का स्रोत इन्हीं मौसमी घटनाओं में छिपा था तो इन मौसमी घटनाओं के घटित होने के कारण एवं स्रोत पहले से पता होने चाहिए थे | उसके आधार पर पहले तो ऐसी मौसमी घटनाओं के विषय में सही सही पूर्वानुमान पता होने चाहिए थे किंतु ऐसी प्राकृतिक घटनाओं के न तो कोई निश्चित स्रोत खोजे जा सके हैं और न ही इस विषय की कोई निश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया ही खोजी जा सकी है |
ऐसी परिस्थिति में सूखा वर्षा बाढ़ जैसी मौसमसंबंधी प्राकृतिक घटनाओं का प्रभाव यदि कोरोना संक्रमण पर पड़ता भी हो तो भी महामारी संक्रमितों की संख्या बढ़ने घटने के विषय में पूर्वानुमान इसलिए नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार माने जाने वाली मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने की विधि अभी तक नहीं खोजी जा सकी है |मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में भी तोकिसी एक जगह बादल वर्षा आँधी तूफ़ान आदि देखकर उसी के आधार परआगे का अंदाजा लगाया जाता है जिसके गलत निकलने पर इसके जलवायु परिवर्तन को कारण मान लिया जाता है |
कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी जैसी बड़ी घटनाओं के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार कारण बताया गया है | यदि यह सही माना जाए तो इसके लिए आवश्यक है कि महामारी को समझने के लिए पहले जलवायु परिवर्तन को ठीक ठीक प्रकार से समझा जाना चाहिए | जलवायु परिवर्तन होने के वास्तविक कारण एवं इसके स्रोत पहले खोजे जाने चाहिए |इसके लिए जलवायुपरिवर्तनजनित मौसमसंबंधी घटनाओं के विषय में पहले पूर्वानुमान लगाया जाना चाहिए जो अभी तक संभव नहीं हो पाया है |
इसके बिना महामारी के प्रारंभ और समाप्त होने एवं महामारी जनित संक्रमण के अचानक बढ़ने और घटने के विषय में कोई पूर्वानुमान लगाना संभव ही नहीं है | संभवतः यही कारण रहा है कि कोरोना महामारी के विषय में जिस भी वैज्ञानिक के द्वारा जो भी अनुमान या पूर्वानुमान लगाए जाते रहे वे कभी सही निकलते नहीं देखे गए !क्योंकि ऐसे पूर्वानुमान लगाने के पीछे कोई तर्कसंगत वैज्ञानिक आधार नहीं था | प्रत्यक्ष रूप से जो देखा जाता रहा उसी के अनुशार भविष्य से संबंधित अंदाजा लगा लिया जाता रहा|ऐसे निराधार अंदाजे गलत निकलने पर महामारी का स्वरूप परिवर्तित हो जाने की बात कही जाती रही है |
जनता को पहले से पता ही है कि जो रोग निश्चित हैं उनके लक्षण निश्चित हैं इसके बाद भी उन रोगों की भी प्रकृति परिवर्तित होती देखी जाती है | इसलिए कहा जा सकता है कि स्वरूप परिवर्तन तो सामान्य रोगों में भी होते देखा जाता है ,किंतु उसका अनुमान चिकित्सकों को पहले से ही पता होता है| ऐसे रोगों की चिकित्सा पद्धति एवं औषधियाँ निश्चित हैं इसलिए परंपरागत रोगों से प्रायः सभी चिकित्सक परिचित होते ही हैं और उसकी परिणामप्रद चिकित्सा वे हमेंशा से करते चले ही आ रहे हैं | जिसके लिए समस्त समाज उनके बहुमूल्य योगदान का ऋणी है | इसीलिये तो समाज उन्हें भगवान् का दूसरा स्वरूप मानता है |
महामारियों के समय होने वाले महारोगों में अप्रत्याशित आक्रामक ,बिषैले बदलाव अचानक बड़े वेग से होने लगते हैं | उनका अनिश्चित स्वभाव होता है अनिश्चित लक्षण होते हैं | ये बहुत घातक होते हैं सोचने समझने एवं बचाव के उपाय करने के अवसर ही नहीं देते हैं | ये बहुत हिंसक होते हैं | इन्हें समझना अत्यंत कठिन काम होता है |महामारियों को समझने के लिए इसीलिए तो अलग से अनुसंधानों की आवश्यकता पड़ी | सामान्य चिकित्सा पद्धति के द्वारा महामारियों को समझना संभव नहीं है |
ऐसी परिस्थिति में महामारी के स्वरूप बदलने की बात कहकर अपना नौसिखियापन प्रदर्शित किया जाना इस अवसर पर उचित नहीं है जबकि महामारी से जूझता समाज जिस समय बड़ी आशा से उन लोगों की ओर देख रहा है कि वे कोई उपाय करके हमें महामारी से मुक्ति दिलाएँगे उस समय वे बता रहें हैं कि कोरोना स्वरूप बदल रहा है | अचानक महामारी का स्वरूप यदि बदल भी रहा है तो इसमें नया क्या है |ये तो साधारण सी बात है कि शत्रु सैनिकों के साथ युद्ध करते समय शत्रु तो तरह तरह की पैंतरेबाजी दिखाता ही है किंतु देशभक्त सैनिकों के पास उसके सभी पैंतरेबाजी की काट होती है | युद्ध क्षेत्र में शत्रु का सामना कर रहे सैनिकों का ध्यान शत्रु की प्रत्येक चाल पर होता है और उसे उसकी प्रत्येक चाल का अनुमान होता है ,तभी वह युद्ध जीतने के लक्ष्य को पूरा कर पाता है |
इसलिए शत्रु कितना भी स्वरूप परिवर्तन क्यों न करे उनके स्वरूप परिवर्तनों को गिनने की अपेक्षा उनके हर स्वरूप को समझने उसका पूर्वानुमान लगाने की योग्यता होनी चाहिए एवं उस षड्यंत्र को असफल करते हुए उस पर विजय प्राप्त कर लेना ही श्रेष्ठ का कर्तव्य होता है | युद्ध क्षेत्र में तो जय पराजय दो ही विकल्प होते हैं |सैनिक देश और समाज का स्वाभिमान होता है | महामारी के रणस्थल में मोर्चा सँभाले हुए चिकित्सा वैज्ञानिक ही हमारे सैनिक होते हैं |
जनता को बार बार यह बताया जाना कितना उचित था कि कोरोना स्वरूप बदल रहा है| ऐसी वेरियंटबदलने जैसी कच्ची बातें बोलकर समाज का मनोबल गिराना ठीक नहीं है | महामारी पीड़ित जनता ने तो सारी जिम्मेदारी वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं पर सौंप रखी है | यह कर्तव्य वैज्ञानिकों का है कि वे ऐसे कठिन समय में जनता के विश्वास पर पैसे खरे उतरें और महामारी जैसे कठिन काल में जनता कीअधिक संभव मदद कर सकें |
युद्ध की तरह ही रसोई निर्माण करते समय उसकी किसी भी कमी के लिए संपूर्ण रूप से रसोइए को जिम्मेदारी लेनी पड़ती है | गाड़ी ड्राइव करने वाला ड्राइवर ,पायलट जैसे लोगों को अपने अपने क्षेत्रों में संपूर्ण जिम्मेदारी लेकर चलना पड़ता है |अपने अपने क्षेत्रों की संभावित प्रत्येक परिस्थिति का अनुमान पूर्वानुमान एवं उससे बचाव करने की संपूर्ण जिम्मेदारी सैनिकों
इसीप्रकार से चिकित्सकीय अनुसंधानों का नेतृत्व करने वाले चिकित्सावैज्ञानिकों का यह कर्तव्य होता है कि महामारी के संभावित स्वरूपों का उन्हें न केवल अनुमान होना चाहिए अपितु उनसे बचाव के लिए अग्रिम इंतिजाम भी होने चाहिए |
जहाँ तक बात महामारी के स्वरूप परिवर्तन की है तो जो होना है वो तो होगा ही किंतु ऐसा होता क्यों है उसका भी कुछ न कुछ प्राकृतिक कारण (स्रोत )अवश्य रहा होगा |वैज्ञानिक लोग महामारी को यदि मनुष्यकृत मानते हैं तो उन्हें मनुष्यों के उस प्रकार के आचरण बताने चाहिए जिनके कारण महामारी का स्वरूप बदल जाता है | वैज्ञानिक लोग यदि इस महामारी को प्राकृतिक मानते हैं तो महामारी का स्वरूप बदलने से पहले उसके कुछ चिन्ह तो प्राकृतिक वातावरण में उभरते होंगे ही प्राकृतिक दृष्टि से उस प्रकार के बदलावों को खोजा जाना चाहिए | इस प्रकार से महामारी के उस स्रोत को खोजा जाना चाहिए जो महामारी से संबंधितपरिवर्तनों के लिए जिम्मेदार हो | महामारी के कारण खोजना अनुसंधान कार्य के लिए आवश्यक है ताकि दूसरी बार जब वैसा होने लगे तब उसके आधार पर पूर्वानुमान लगाया जा सके कि अब महामारी का स्वरूप बदलने वाला है | इससे उस पर अंकुश लगाने के लिए पर्याप्त प्रयास के लिए समय मिल सकता है | वैसे भी महामारी के स्वरूप परिवर्तित होने की बात हो या जलवायु परिवर्तन की इससे संबंधित वैज्ञानिकों को तो संपूर्ण अनुमान होना ही चाहिए यही तो उनकी वैज्ञानिक विशेषज्ञता है |कुल मिलाकर महामारी से निपटने में अपनी ऐसी कमजोरियाँ निरंतर खटकती रही हैं |
महामारी के स्रोत समझने की आवश्यकता !
किसी भी रोग से संक्रमित हुए रोगियों को रोग मुक्ति दिलाने के लिए रोग के स्वभाव एवं स्रोत को समझना अत्यंत आवश्यक माना जाता है | स्रोत पता हो तो उसी के आधार पर कोरोना जैसी महामारी के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |ऐसा करके ही भावी रोगों या महारोगों से बचाव के लिए आगे से आगे उपाय किए जा सकते हैं | यदि महामारियों के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान ही पता नहीं होंगे तो उससे बचाव के लिए आगे से आगे उपाय कैसे किए जा सकेंगे | रोगों के स्रोत पता किए बिना महामारी जनित रोगों की चिकित्सा करना भी संभव नहीं है |इसलिए महामारी से बचाव हेतु एवं संक्रमितों को संक्रमण से मुक्ति दिलाने के लिए महामारी का स्रोत पता किया जाना अत्यंत आवश्यक है|रोग को समझे बिना उसकी चिकित्सा कैसे संभव है|इसीलिए कोरोना महामारी के समय में भी रोग के स्रोत को समझने का प्रयत्न किया गया है |
3 जनवरी 2021को प्रकाशित एक लेख में अमेरिका के एक वैज्ञानिक के द्वारा साफ-साफ कहा गया है -"अगर कोविड-26 और कोविड-32 से बचना है तो कोविड-19 की उत्पत्ति जानना बेहद जरूरी है। दरअसल, वैज्ञानिक का दावा है कि अगर इस वायरस के बनने का पता नहीं लग पाया तो पूरी दुनिया 2026 और 2032 में एक बार फिर महामारी की चपेट में होगी।"
इससे सतर्कता बरतते हुए 13 अक्टूबर 2021 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कोविड-19 के स्रोत के अध्ययन और भावी महामारियों की रोकथाम के लिए एक विशेषज्ञ समूह को जिम्मेदारी सौंपी है | बताया जाता है कि यह समूह महामारी फैलाव की वजह बनने वाले नए रोगाणुओं के मूल स्रोतों की भीपड़ताल करेगा|ये समूह कोविड-19 महामारी के लिये ज़िम्मेदार कोरोनावायरस SARS-CoV-2 सहित अन्य रोगाणुओं का अध्ययन करेगा |
विश्व स्वास्थ्य संगठन के 'वैज्ञानिक परामर्शदाता समूह' (SAGO) के प्रस्तावित सदस्यों को महामारी विज्ञान, पशु स्वास्थ्य, मरीज़ों के उपचार, विषाणु विज्ञान, जैविक सुरक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और जीनोमिक्स जैसे क्षेत्रों में उनकी विशेषज्ञता के आधार पर चुना गया है | इन विशेषज्ञों के चयन के दौरान भौगोलिक व लैंगिक विविधता का भी ध्यान रखा गया है.इस समूह में 26 वैज्ञानिक अनेक देशों से हैं यूएन स्वास्थ्य एजेंसी के प्रमुख टैड्रॉस एडहेनॉम घेबरेयेसस ने जिनीवा में अपनी नियमित पत्रकार वार्ता के दौरान इस आशय की घोषणा की है | “SAGO, विश्व स्वास्थ्य संगठन को SARS-CoV-2 सहित, महामारी और वैश्विक महामारी की आशंका वाले उभरते और फिर से उभर रहे रोगाणुओं के स्रोतों के अध्ययनों के लिये एक वैश्विक फ़्रेमवर्क विकसित करने पर परामर्श देगा.”
यूएन स्वास्थ्य की तकनीकी प्रमुख डॉक्टर मारिया वान कर्कहॉव ने कहा कि दुनिया को भावी बीमारियों के लिये बेहतर ढँग से तैयारी रखनी होगी.इससे नए कोरोनावायरस के स्रोतों के बारे में जानकारी जुटाने का प्रयास किया जाएगा
महामारी को लेकर शुरुआत में दो तरह के दावे किए गए। पहला यह कि चमगादड़ में पाए जाने वाले कोरोनावायरस से यह 96 फीसदीमिलता-जुलता है। दूसरा यह कि वायरस सी-फूड मार्केट से फैला। अहम बात यह है कि दोनों ही अवधारणाएं एक-दूसरे के उलट थीं।मार्च-अप्रैल 2021 तक पूरी दुनिया और वैज्ञानिक यही मानते रहे कि SARS-CoV-2 वायरस जानवरों और मनुष्यों के बीच संपर्क से फैला। इसके पीछे तर्क दिया गया कि चमगादड़ से कोरोनावायरस की दूसरी प्रजाति के वायरस से इंसान संक्रमित हो गए।इस कनेक्शन के पीछे किसी भी तरह का तर्क नहीं दिया गया। इस बीच यह भी कहा गया कि कोरोना वायरस लैबमेड हो सकता है। इसे वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में तैयार किया गया। हालांकि, डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के बाद इस अवधारणा को भी खारिज कर दिया गया |
ऐसी परिस्थिति में इसे प्राकृतिक महामारी माने जाने का ही विकल्प बचता है |इस दृष्टि से अनुसंधान किए जाए पर भी अभी तक कोई तर्कसंगत स्वीकार करने योग्य तथ्य प्रस्तुत नहीं किए जा सके हैं |जो इस अनुसंधान के लिए आवश्यक हैं |
कोरोना को यदि प्राकृतिक रूप से पैदा हुआ माना जाए तो कोरोना महामारी के प्रारंभ होने से पहले प्रकृति में ऐसे कौन से परिवर्तन सन 2019 में दिखाई दिए जो अन्य वर्षों में नहीं देखे जाते रहे हैं | इसी प्रकार से बिना किसी मनुष्यकृत प्रत्यक्षकारण के कोरोना संक्रमितों की संख्या अचानक बढ़ने या फिर बिना किसी प्रयास के अचानक कम होने के लिए जिम्मेदार ऐसे कौन से प्राकृतिक कारण खोजे जा सके हैं|उनके भविष्य में कभी भी प्राकृतिक वातावरण में दिखाई पड़ने पर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब कोई महामारी प्रारंभ होने वाली है या फिर अब महामारी की कोई नई लहर आने वाली है या फिर आई हुई लहर जाने वाली है |
किसी भी वैज्ञानिक अनुसंधान से अभी तक महामारी जैसे महारोग की प्रकृति और स्रोत को समझना अभी तक संभव नहीं हो पाया है महामारी की लहरें बार बार आने और जाने के कारणों को समझना अभी तक संभव नहीं हो पाया है | इसीलिए संक्रमित हुए रोगियों को रोग मुक्ति दिलाने के लिए रोग के स्वभाव एवं स्रोत को समझना अत्यंत आवश्यक होते हुए भी संभव नहीं हो पाया है |
मौसम और महामारी के प्राकृतिक इतिहास पर आधारित अनुसंधान !
महामारी या मौसम से संबंधित अनुमान पूर्वानुमान आदि के विषय में अनुसंधानों की प्रक्रिया में प्रायः जितने भी मॉडल बनाए जाते हैं उनमें तर्कसंगत वैज्ञानिक चिंतन का नितांत अभाव होता है|उसमें ऐसी किसी वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग ही नहीं होता है जो भविष्य की घटनाएँ देखने में सक्षम हो फिर उसके द्वारा मौसम या महामारी से संबंधित घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना कैसे संभव है |यही कारण है कि पिछले कुछ दशकों में जितनी भी मौसम संबंधी प्राकृतिक घटनाएँ एवं कोरोना जैसी महामारी घटित हुई है उसके विषय में सही सही अनुमान या पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पाया है | जो लगाए भी गए वे गलत निकलते चले गए | इसका सबसे बड़ा कारण इस अनुसंधान प्रक्रिया में विज्ञान भावना का अभाव है |इसमें तो विभिन्न यंत्रों के द्वारा या वैसे ही घटनाओं की जासूसी की जाती है| ऐसे विषयों में किए जाने वाले अनुसंधानों की पद्धति विज्ञान पर आधारित न होकर अपितु प्राकृतिक इतिहास पर आधारित होती है |
अनुसंधान की प्रक्रिया इस प्रकार की है कि अतीत में जहाँ जो कुछ जिस प्रकार का घटित हुआ था, भविष्य में भी वहाँ उसी प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ घटित हो सकती हैं |उसी के आधार पर भविष्य को लेकर कुछ कल्पनाएँ करके अंदाजे लगा लिए जाते हैं |वे अंदाजे यदि सही निकलते हैं तब तो उन्हें वैज्ञानिक अनुसंधानों की श्रेणी में रख लिया जाता है यदि वे गलत निकल जाते हैं अर्थात जैसा कहा गया यदि वैसा घटित नहीं होता है तब तो विज्ञान को विफल मान लिया जाता है जबकि अंदाजा लगाने की इस पद्धति में विज्ञान का कहीं उपयोग ही नहीं हो रहा होता है तो वो विफल कैसे माना जा सकता है |
किसी एक क्षेत्र में वर्षा बादल आँधी तूफ़ान आदि उपग्रहों रडारों की मदद से देखकर उनकी गति और दिशा के अनुशार उनके दूसरी जगहों पर पहुँचने के लिए यदि कोई अंदाजा लगा लिया जाता है तो इसमें विज्ञान का उपयोग ही कहाँ होता है | ऐसे तो मानव जीवन के दैनिक व्यवहारोंसे संबंधित हर विषय में भविष्य को लेकर कुछ अंदाजे लगाए जाते हैं वे कल्पनाश्रित तो होते हैं किंतु उनका कोई तर्कसंगत वैज्ञानिक आधार नहीं होता है|
जिस प्रकार से कोविड-19 के फैलने में मौसम की भूमिका की दृष्टि से वुहान और चीन के अन्य इलाक़ों में कोविड-19 के संक्रमण के आंकड़ों के अध्ययन से ये निष्कर्ष निकाला गया था कि सूखे और ठंडे मौसम में नए कोरोना वायरस का प्रकोप ज़्यादा तेज़ी से फैलता है. लेकिन, ये निष्कर्ष जिन मॉडलों के आधार पर तैयार किए गए थे, वो उस समय के आंकड़े थे. तब, ये महामारी दुनिया में इतने बड़े पैमाने पर नहीं फैली थी. इसके अलावा कोई महामारी किस तरह की जलवायु में ज़्यादा या कम फैलती है, इससे जुड़े अध्ययन पूरी तस्वीर नहीं पेश करते |
भारत में कोविड-19 की महामारी का प्रकोप बसंत के दौरान शुरू हुआ था. लेकिन, गर्मी के महीनों में ये लगातार बढ़ती रही और ये सिलसिला मॉनसून के समय में भी जारी रही है. ऐसे में इस महामारी के प्रकोप और जलवायु के बीच संबंध को और बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें कुछ सवाल उठाने होंगे. जैसे कि इस महामारी के मौजूदा दौर में हम वायरस के प्रकोप पर बदलते मौसम के प्रभाव के बारे में क्या जानते हैं और कितना जानते हैं? और सवाल ये भी बनता है कि इस महामारी के बाद के दौर के हालात में आख़िर क्या हो सकता है?
कोविड-19 की महामारी के शुरुआती दौर में SARS Cov-2 वायरस पहले पहल इंसानों तक पहुंचा, और पहले दक्षिणी पूर्वी एशिया, और उसके बाद यूरोप और अमेरिका तक फैल गया. तब तक हमें इस वायरस के प्रकोप के किसी ख़ास सीज़न से संबंध के बारे में क़तई जानकारी नहीं थी. नए कोरोना वायरस और मौसम के ताल्लुक़ का पता लगाने के लिए दो पैमाने इस्तेमाल किए गए थे. पहले तो इसकी तुलना फ्लू के वायरस और सीज़न के बीच संबंध के साथ की गई. इसके अलावा कोरोना वायरस परिवार के दो अन्य विषाणुओं OC43 और HKU1 के मौसमी प्रकोप की तुलना, इस नए वायरस की बुनियादी प्रजनन क्षमता (R0) के साथ की गई. इन्हीं दो मॉडलों के आधार पर पूरी दुनिया के नौ देशों में नई महामारी के प्रकोप का आकलन किया गया था.
इसके अलावा वायरस के संक्रमण को लेकर जो
शुरुआती कंप्यूटर मॉडल बनाए गए थे, उन्होंने ये निष्कर्ष निकाला था कि हवा
में नमी से महामारी के सीमित या व्यापक होने पर असर पड़ सकता है.ये आकलन
न्यूयॉर्क में महामारी के प्रकोप के आंकड़ों के आधार पर लगाए गए थे.)
हालांकि, बाद में महामारी के विस्तार को लेकर बनाए गए इन मॉडलों ने भी यही
निष्कर्ष निकाला था कि नए कोरोना वायरस पर मौसम का बेहद मामूली असर पड़ता
दिख रहा था.|
इस बारे में कंप्यूटर मॉडलों का आकलन है कि नया कोरोना वायरस अभी इंसानी
सभ्यता का हिस्सा बना रहेगा. और वायरस के प्रकोप की भविष्यवाणी करने वाले
ये कंप्यूटर मॉडल ये भी कहते हैं कि अगले कुछ वर्षों में कोविड-19 की
महामारी दोबारा क़हर बरपा सकती है. कुछ कंप्यूटर मॉडलों के मुताबिक़, वर्ष
2025 में कोविड-19 की वापसी हो सकती है. इन कंप्यूटर मॉडलों में वायरस के संक्रमण पर सीज़न के प्रभाव का आकलन
शामिल नहीं किया गया है.|
कुल मिलाकर ऐसे आधारविहीन अंदाजों पर विश्वास करके भविष्य को लेकर मौसम एवं महामारी के विषय में कोई सुदृढ़ धारणा नहीं बनाई जा सकती है क्योंकि इनके आधार इतने दुर्बल होते हैं कि जिनके सच होने की संभावना ही नहीं होती है |
जिन प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान लगाने के लिए वैज्ञानिक लोग अनुसंधानों से संबंधित जो मॉडल बनाते हैं उनसे अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना तो संभव नहीं होता है अपितु उन्हें घटित हो रही प्राकृतिक घटनाओं में फिट कर दिया जाता है जैसी जैसी घटनाएँ घटित होती जाती हैं वैसे वैसे मॉडल चलते जाते हैं | जैसे ही वे मॉडल घटनाओं के साथ फिट होने बंद हो जाते हैं वैसे ही या तो वैरियंट बदल जाने की बात कहकर छोड़ दिया जाता है या फिर जलवायु परिवर्तन की बात कह दी जाती है | कोरोना महामारी या उसकी लहरों के आने जाने के विषय जितने भी अंदाजे लगाए जाते रहे वे सब के सब गलत निकलते रहे |
कानपुर आई आई टी के एक वैज्ञानिक साहब मनींद्र अग्रवाल जी कोरोना की किसी लहर के विषय में अंदाजा लगाकर पहले तो कोई कोई तारीख बता देते रहे फिर महामारी जैसे जैसे घटती या बढ़ती रही वैसे वैसे उस तारीख को आगे पीछे खिसकाते रहे | कई 15 -20 दिन भी आगे पीछे करके अपने उस तथाकथित मॉडल को कोरोना महामारी की लहरों के साथ बार बार फिट करते देखे गए | ऐसी क्या मजबूरी थी और ऐसे मॉडलों की आवश्यकता ही क्या थी जिनसे घटनाओं का कोई संबंध ही न बैठता हो |
वैज्ञानिक मॉडलों से इन घटनाओं के विषय में क्यों नहीं लगाए जा सके पूर्वानुमान ?
सामान्य रूप से सर्दी गर्मी वर्षात तीन प्रकार के ही ऋतुप्रभाव देखने क मिलते हैं इसमें तीन ही प्रकार की घटनाएँ देखने को मिल सकती हैं सर्दी की ऋतु में ठंढक कम होगी मध्यम होगी या अधिक होगी ऐसा ही गर्मी वर्षा आदि का प्रभाव भी तीन प्रकार का ही दिखाई पड़ता है | इसमें अनुमान और पूर्वानुमान लगाना बहुत आसान इसलिए होता है क्योंकि सर्दी में होगी ठंढक ही गर्मी तो होगी नहीं ,ठंढक कम होगी या मध्यम या फिर अधिक कुछ भी हो सकती है | ऐसी परिस्थिति में यह अनुमान पूरी तरह सही निकलता है कि इस समय से उस होगी |यह भविष्यवाणी कर देने के बाद सर्दी कम ज्यादा जो भी होती है वह उसी भविष्यवाणी के अनुरूप सिद्ध कर जाती है थोड़ा बहुत कम या अधिक भी होता है तो वह भी उसी भविष्यवाणी के दायरे में सम्मिलित मान लिया जाता है ,क्योंकि ऐसी भविष्यवाणियाँ करने वाले लोग ही उनका परीक्षण करने की जिम्मेदारी उठा रहे होते हैं वही बताते हैं कि इस वर्ष की सर्दी गर्मी वर्षा आदि ने कितने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है |
वैज्ञानिकों के हिसाब से तो हर ऋतु प्रतिवर्ष रिकार्ड तोड़ रही है | सभी ऋतुओं में वैज्ञानिकों की भूमिका वर्तमान समय में यही रह गई है कि ये रिकार्ड तोड़ने वाली बात और जलवायु परिवर्तन की बात और उसके प्रभाव न बताने हों तो कुछ दूसरी मौसम विज्ञान की भूमिका दिखाई ही नहीं देती है |जलवायु परिवर्तन के कारण आज के सौ दो सौ वर्ष बाद मौसमसंबंधी घटनाएँ कैसी कैसी घटित होंगी इस बात की भविष्यवाणी वे लोग कर रहे होते हैं जो चार दिन पहले की मौसम संबंधी सही भविष्यवाणियाँ करने का साहस कभी नहीं जुटा सके इसके अतिरिक्त आज तक मानसून आने जाने की सही तारीखें नहीं खोज पाए | ऐसे लोगों के द्वारा भविष्य में की जाने वाली मौसमसंबंधी भविष्यवाणियाँ कितनी विश्वसनीय हो सकती हैं |
ऐसी भविष्यवाणियों का परीक्षण यदि आम जनता की दृष्टि से किया जाए तो लगता है कि मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा मौसम संबंधी अनुसंधानों की वास्तविक परीक्षा तो तब होगी जब मौसम संबंधी अचानक कुछ ऐसी घटनाएँ घटित हों जो सर्दी गर्मी वर्षा आदि की तरह पूर्व निर्धारित न हों |
ऐसी परिस्थिति में वैज्ञानिकों के पास प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने की यदि वास्तव में कोई वैज्ञानिक विधि है तो सर्दी गर्मी वर्षा आदि क्रम से अलग हटकर घटित होने वाली संभावित घटनाओं के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा पूर्वानुमान लगाए जाएँ और वे सही निकलें किंतु व्यवहार ऐसा कुछ घटित होते नहीं देखा जाता है | ये कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं जो घटनाएँ तो घटित हुई हैं किंतु उनके विषय में या तो पूर्वानुमान नहीं बताए जा सके या फिर गलत निकल गए |
2005 में मुंबई में भीषण बाढ़ आई थी !16 जून 2013 को केदारनाथ जी में भयंकरसैलाव आया उसमें हजारों लोग मारे गए !16 जून, 2013 को उत्तराखंड में आई भीषण जलप्रलय की। लाखों श्रद्धालुओं की आस्था के प्रतीक तीर्थस्थल केदारनाथ और इसके आसपास भारी बारिश, बाढ़ और पहाड़ टूटने से सबकुछ तबाह हो गया और हजारों लोग मौत के आगोश में समा गए थे।इनमें से किसी घटना के बिषय में मौसमवैज्ञानिकों के द्वारा कोई पूर्वानुमान नहीं बताया जा सका था |
नवंबर सन् 2015 में चैन्नई में भीषण बाढ़ आई थी !सितंबर 2014 में मूसलाधार मानसूनी वर्षा के कारण भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर ने अर्ध शताब्दी की सबसे भयानक बाढ़ आई। यह केवल जम्मू और कश्मीर तक ही सीमित नहीं थी अपितु पाकिस्तान नियंत्रण वाले आज़ाद कश्मीर, गिलगित-बल्तिस्तान व पंजाब प्रान्तों में भी इसका व्यापक असर दिखा। 8 सितंबर 2014 तक, भारत में लगभग 200 लोगों तथा पाकिस्तान में 190 लोगों की मृत्यु हो चुकी है।450 गाँव जल समाधि ले चुके थे ।इनमें से किसी भी बाढ़ के बिषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका था |
सितंबर 2019 में बिहार में आई भीषण बाढ़ के बिषय में कोई पूर्वानुमान बताने में मौसम विभाग असफल रहा था !मौसम पूर्वानुमान बताने वाले लोग कुछ बता ही नहीं पा रहे थे और जो बता रहे थे वो गलत होता जा रहा था तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने पत्रकारों से बात करते हुए स्वीकार किया कि मौसम विभाग वाले लोग कुछ बता ही नहीं पा रहे हैं वर्षा के बिषय में वे सुबह कुछ कहते हैं दोपहर में कुछ दूसरा कहते हैं और शाम होते होते कुछ और कहने लगते हैं | पत्रकारों ने पूछा तो इस बाढ़ के बिषय में आप जनता से क्या कहना चाहेंगे तो नीतीश जी ने कहा कि मेरा मानना है कि हथिया नक्षत्र के कारण यह अधिक बारिश हो रही है |स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे जी ने भी पत्रकारों के पूछने पर यही कहा कि हथिया नक्षत्र के कारण ही अधिक बारिश हो रही है |
28 जून 2015 को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी की वाराणसी में सभा होने वाली थी किंतु भीषण वर्षा के कारण उस सभा को रद्द करना पड़ा | इसके बाद मौसम विभाग से पूर्वानुमान पूछकर 16 जुलाई 2015 को वही सभा वर्षा से निपटने की अधिक तैयारियों के साथ निश्चित की गई सरकारी मौसम भविष्य वक्ताओं से भी सलाह ली गई थी उन्होंने कहा था कि 16 जुलाई को वर्षा की संभावना नहीं है किंतु मौसम विभाग की भविष्यवाणी गलत हुई और उस दिन इतनी भयंकर बारिश हुई कि प्रधान मंत्री जी की वह सभा भी रद्द हुई !दोनों सभाओं के आयोजन पर खर्च की गई भारी भरकम धनराशि मौसम विभाग की भविष्यवाणी गलत होने के कारण निरर्थक चली गई |
इसी समय में 13 अप्रैल 2016 से असम आदि पूर्वोत्तरीय प्रदेशों में भीषण वर्षा और बाढ़ का भयावह दृश्य था त्राहि त्राहि मची हुई थी |यह वर्षा और बाढ़ का तांडव 60 दिनों से अधिक समय तक लगातार चलता रहा था |
सन 2016 के अप्रैल मई में घटित हुई परस्पर विरोधी इन दोनों घटनाओं के बिषय में वैज्ञानिकों से पत्रकारों ने पूछा कि इन दोनों घटनाओं के बिषय में पहले से कोई पूर्वानुमान क्यों नहीं बताया जा सका था | इस पर वैज्ञानिकों ने कहा कि असम आदि पूर्वोत्तरीय प्रदेशों में हो रही भीषण वर्षा और बाढ़ का कारण जलवायु परिवर्तन है तथा बिहार उत्तर प्रदेश राजस्थान मध्यप्रदेश महाराष्ट्र आदि में अधिक गर्मी एवं आग लगने की अधिक घटनाओं का कारण ग्लोबल वार्मिंग है | जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता |
2018 के अप्रैल मई में हिंसक आँधी तूफानों की घटनाएँ बार बार घटित हो रही थीं 2 मई 2018 की रात्रि में आए तूफ़ान से काफी जन धन हानि हुई थी | ऐसे तूफानों के बिषय में किसी को कुछ पता ही नहीं था मौसम वैज्ञानिकों को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि ऐसे बिषयों में क्या बोला जाए !इनके बिषय में कभी कोई पूर्वानुमान बताया ही नहीं जा पा रहा था वैज्ञानिक लोगों ने भविष्यवाणियाँ करने के लिए कुछ तीर तुक्के लगाए भी किंतु वे पूरी तरह से गलत निकलते चले गए !यहाँ तक कि 7 और 8 मई 2018 को उन्होंने दिल्ली और उसके आस पास भीषण तूफ़ान की भविष्यवाणी बड़े जोर शोर से कर दी यह सुन कर कुछ प्रदेशों की भयभीत सरकारों ने अपने अपने प्रदेशों में स्कूल कालेज बंद कर दिए किंतु उन दो दिनों में हवा का एक झोंका भी नहीं आया !बताया जाता है कि इस बिषय को बाद में पीएमओ ने संज्ञान भी लिया था | इसी घटना के बिषय में एक निजी टीवी चैनल के साथ परिचर्चा में मौसम विज्ञान विभाग के निदेशक महोदय डॉ.के जे रमेश जी से एक पत्रकार महोदय ने प्रश्न कर दिया कि क्या कारण है कि आपका विभाग इतने भयंकर आँधी तूफानों के बिषय में कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सका और जो लगाए भी गए वे गलत निकलते चले गए !इस पर डॉ.के जे रमेश जी ने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ऐसे तूफ़ान आ रहे हैं इसीलिए इनके बिषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पा रहा है और अचानक आ जा रहे हैं आँधी तूफ़ान पता ही नहीं लग पा रहा है | अगले दिन कई अखवारों में हेडिंग छपी थी -"चुपके चुपके से आते हैं चक्रवात !"
केरल में जब भीषण बाढ़ आई तो उसमें भी मौसम विज्ञान विभाग की ऐसी ही ढुलमुल भूमिका रही !3 अगस्त 2018 को मौसम विज्ञान विभाग की ओर से जो प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई उसमें भविष्यवाणी की गई थी कि अगस्त और सितंबर महीने में दक्षिण भारत में सामान्य वर्षा की संभावना है !जबकि 5 अगस्त से ही भीषण बारिश प्रारंभ हो गई थी जिससे केरल कर्नाटक आदि दक्षिण भारत में त्राहि त्राहि माही हुई थी | जिसके बिषय में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री जी ने स्वीकार भी किया कि यदि मौसम विभाग की भविष्यवाणी झूठी न निकली होती तो बाढ़ से जनता इतनी अधिक पीड़ित न हुई होती | इसके बिषय में मौसम निदेशक डॉ.के. जे. रमेश से एक टीवी चैनल ने पूछा तो उन्होंने कहा कि केरल की बारिश अप्रत्याशित थी इसलिए इसके बिषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका था | इसका कारण जलवायु परिवर्तन है जबकि दक्षिण भारत में 2018 के अगस्त महीने में हुई इसी भीषण वर्षा के बिषय में 2018 के अगस्त महीने का मौसम पूर्वानुमान मैंने मौसम विभाग के निदेशक डॉ.के जे रमेश जी की मेल पर 29 जुलाई 2018 को ही भेज दिया था !उसमें लिखा है कि अगस्त की एक से ग्यारह तारीख के बीच इतनी भीषण वर्षा दक्षिण भारत में होगी कि बीते कुछ दशकों का रिकार्ड टूटेगा !वर्षा का स्वरूप इतना अधिक डरावना होगा !"यह हमारी मेल पर अभी भी पड़ा है जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया था कि मेरा वर्षा पूर्वानुमान सही निकला है |
सन 2019 \2020 की सर्दियों के बिषय में मौसम विभाग की पुणे इकाई ने सामान्यसे कम सर्दी का अनुमान व्यक्त किया था लेकिन सर्दी ने तो सौ साल के रिकार्ड तोड़ दिये। इस पर पत्रकारों ने मौसम विभाग की उत्तर क्षेत्रीय पूर्वानुमान इकाई के प्रमुख डॉ. कुलदीप श्रीवास्तव से पूछा कि सर्दी की दस्तक से पहले मौसम विभाग ने कहा था कि इस साल सर्दी सामान्य से कम रहेगी,लेकिन सर्दी ने तो सौ साल के रिकार्ड तोड़ दिये। पहले मानसून और अब सर्दी का पूर्वानुमान भी गलत साबित हुआ क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि कड़ाके की ठंड मौसम की चरम गतिविधि का नतीजा है जिसका सटीक पूर्वानुमान लगाना संभव ही नहीं है |मौसम के इस तरह के अनपेक्षित और अप्रत्याशित रुझान का सटीक पूर्वानुमान लगाने की तकनीक दुनिया में कहीं भी नहीं है।सर्दी ही नहीं, अतिवृष्टि और भीषण गर्मी जैसी मौसम की चरम गतिविधियों का दीर्घकालिक अनुमान संभव ही नहीं है।मौसम की चरम गतिविधियों के दौरान, मौसम का मिजाज तेजी से बदलने की प्रवृत्ति प्रभावी होने के कारण अल्पकालिक अनुमान भी मुश्किल से ही सटीक साबित होता है| मौसम के तेजी से बदलते मिजाज को देखते हुये चरम गतिविधियों का दौर भविष्य में और अधिक तेजी से देखने को मिल सकता है। इनकी आवृत्ति में भी तेजी देखी जा सकती है। ऐसे में बारिश के अनुकूल परिस्थिति बनने पर मूसलाधार बारिश होना या गर्मी का वातावरण तैयार होने पर अचानक तापमान में उछाल या गिरावट जैसी घटनायें भविष्य में बढ़ सकती हैं। मौसम संबंधी शोध और अनुभव से स्पष्ट है कि इस तरह की घटनाओं का समय रहते पूर्वानुमान लगाना भी मुश्किल है। ऐसे में पूर्वानुमान के गलत साबित होने की संभावना भी रहेगी।
इसके बाद एक बार फिर गलत हुई मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी !2020-21 में लानीना का प्रभाव बताकर शीतऋतु में अधिक सर्दी होने की भविष्यवाणी की गई थी किंतु अबकी बार तो जनवरी से ही तापमान बढ़ने लग गया था |
इसी प्रकार से 2021 के अप्रैल-मई में वर्षा होती रही इसलिए तापमान भी अपेक्षाकृत कम बना रहा जिसके विषय में मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा कभी कोई भविष्यवाणी नहीं की गई थी |
ऐसे ही सन 2022 के मार्च अप्रैल में हुई भीषण गर्मी के विषय में किसी मौसम वैज्ञानिक के द्वारा कभी कोई पूर्वानुमान नहीं बताया गया था |
किसी किसी वर्ष घटित होने वाली मौसम संबंधी ऐसी असंतुलित घटनाएँ ही यदि महामारी के पैदा होने का कारण हों बार बार संक्रमण घटने बढ़ने अर्थात लहरें आने का कारण भी मौसम संबंधी घटनाएँ ही रही हों जैसी कि बहुत वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त भी की है |ऐसी परिस्थिति में महामारी को समझने के लिए आवश्यक है कि पहले मौसम को समझा जाए मौसम को समझे बिना महामारी को समझना संभव कैसे हो सकता है |महामारी के स्वरूप परिवर्तनके रहस्य को समझने एवं महामारी के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए मौसम संबंधी घटनाओं के कारणों एवं इनके पूर्वानुमानों का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है | इसके बिना महामारी संबंधी अनुसंधानों को किया जाना कैसे संभव है |
इसमें सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि मौसम संबंधी ऐसी असंतुलित घटनाओं के वास्तविक कारण एवं पूर्वानुमान खोजने के कठिन कार्य से बचते हुए जो मौसम वैज्ञानिक ऐसी घटनाओं के घटित होने का कारण जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग को बता कर यह सिद्ध कर देते हैं कि इनका पूर्वानुमान लगाना एवं इनके कारण खोजना इनके रहस्य को समझना वैज्ञानिक अनुसंधानों के बश की बात नहीं है |यदि इसे सच मान भी लिया जाए तो केवल इतना पता लग जाने मात्र से इसके आधार पर महामारी को समझना कैसे संभव है और इस जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग के आधार पर महामारी के विषय में कोई पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है |
ऐसी परिस्थिति में असंतुलित मौसम संबंधी विपरीत परिणामों को समझने एवं उनसे होने वाले रोगों महारोगों की अनुसंधान प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की संभावना ही समाप्त कर दी जाती है |
तापमान
महामारी के पैदा होने और समाप्त होने में या संक्रमितों की संख्या बढ़ने और कम होने में वैज्ञानिकों के द्वारा तापमान के बढ़ने और कम होने की भी बड़ी भूमिका बताई जाती रही है |
अप्रैल मई जून आदि के महीनों में गर्मी तो हर वर्ष होती है किंतु 2016 के अप्रैल मई में आधे भारत में गरमी से संबंधित अचानक अलग प्रकार की घटनाएँ घटित होने लगीं ! जमीन के अंदर का जलस्तर तेजी से नीचे जाने लगा बहुत इलाके पीने के पानी के लिए तरसने लगे | पानी की कमी के कारण ही पहली बार पानी भरकर लातूर में एक ट्रेन भेजी गई थी |गर्मी का असर केवल जमीन के अंदर ही नहीं था अपितु वातावरण में इतनी अधिक ज्वलन शीलता विद्यमान थी कि आग लगने की घटनाएँ बहुत अधिक घट रही थीं यह स्थिति उत्तराखंड के जंगलों में तो 2 फरवरी 2016 से ही प्रारंभ हो गई थी क्रमशः धीरे धीरे बढ़ती चली जा रही थी 10 अप्रैल 2016 के बाद ऐसी घटनाओं में बहुत तेजी आ गई थी ! ऐसा होने के पीछे का कारण किसी को समझ में नहीं आ रहा था |इस वर्ष आग लगने की घटनाएँ इतनी अधिक घटित हो रही थीं इस बिषय में संबंधित वैज्ञानिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे उन्हें खुद कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था | अंत में आग लगने की घटनाओं से हैरान परेशान होकर 28 अप्रैल 2016 को बिहार सरकार के राज्य आपदा प्रबंधन विभाग ने ग्रामीण इलाकों में सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक खाना न पकाने की सलाह दी थी . इतना ही नहीं अपितु इस बाबत जारी एडवाइजरी में इस दौरान पूजा करने, हवन करने, गेहूँ का भूसा और डंठल जलाने पर भी पूरी तरह रोक लगा दी गई थी | इस बिषय में जब वैज्ञानिकों से पूछा गया कि इस वर्ष ऐसा क्यों हो रहा है और यदि ऐसा होना ही था तो इसका पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सका ?तो उन्होंने कहा कि इस बिषय में हमें स्वयं ही कुछ नहीं पता है कि इस वर्षा ऐसा क्यों हुआ !ये तो रिसर्च का बिषय है इसलिए ऐसे बिषयों पर अनुसंधान की आवश्यकता है |
सन 2019 \2020 की सर्दियों के बिषय में मौसम विभाग की पुणे इकाई ने सामान्य से कम सर्दी का अनुमान व्यक्त किया था लेकिन सर्दी ने तो सौ साल के रिकार्ड तोड़ दिये। इसके बाद एक बार फिर गलत हुई मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी !2020-21 में लानीना का प्रभाव बताकर शीतऋतु में अधिक सर्दी होने की भविष्यवाणी की गई थी किंतु अबकी बार तो जनवरी से ही तापमान बढ़ने लग गया था ऐसा होने के पीछे का कारण जब उन भविष्यवक्ताओं से पूछा गया तब उन्होंने वही जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग को कारण बता दिया था |
21अप्रैल 2020 - कोरोना ने बदला मौसम का मिजाज़! भारत में सबसे ठंडा अप्रैल, ब्रिटेन में चल रही लू ! कोरोना महामारी के बीच ब्रिटेन में गर्मी ने पिछले 361 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है. वहां अप्रैल में भीषण गर्मी और लू चल रही है.|
30 मई 2020- भारत में इस साल मई के महीने में भी गर्मी नहीं है मार्च और अप्रैल के बाद मई के महीने में भी तेज़ हवाएं चलीं और रुक-रुक कर बारिश होती रही !
19 सितंबर 2020-जिस सितंबर में मौसम करवट लेने लगता है और जाड़े की सुगबुगाहट होने लगती है, इस बारउमस भरी गर्मीहो रही है तेज धूप की चुभन और उमस पसीना पोंछने पर मजबूर कर रही है, तापमान कम होने का नाम नहीं ले रहा।
किसी किसी वर्ष में तापमान अचानक बढ़ या कम क्यों हो जाता है इसके कारण क्या हो सकते हैं तापमान के बढ़ने और घटनेके विषय में पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है | यह सबकुछ प्रमाणित रूप से जाने बिना महामारी एवं उसकी लहरों के आने जाने पर पड़ने वाले तापमान के प्रभाव को कैसे समझा जा सकता है और इसके बिना महामारी एवं उसकी लहरों के विषय में पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है |
वायु प्रदूषण -
महामारी के पैदा होने और समाप्त होने में या संक्रमितों की संख्या बढ़ने और कम होने में अनेकों वैज्ञानिकों के द्वारा वायु प्रदूषण बढ़ने और कम होने को बड़ा कारण माना जा रहा है | ऐसी परिस्थिति में वायु प्रदूषण के बढ़ने और घटने के वास्तविक कारणों को जाने बिना एवं वायुप्रदूषण के विषय में अनुमान और पूर्वानुमान लगाए महामारी पर पड़ने वाले वायुप्रदूषण के प्रभाव को कैसे समझा जा सकता है | इसके बिना महामारी विषय में किए जाने वाले अनुसंधान कितने विश्वसनीय हो सकते हैं |
12 -4 -2020 को प्रकाशित !अमेरिकी संस्थान ‘हार्वर्ड टी एच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की रिपोर्ट में ये दावा किया जा रहा है.कि अमेरिका के जिन शहरों में प्रदूषण सबसे ज्यादा था वहां कोरोना संक्रमण के सबसे ज्यादा मामले आए हैं.
2-12-2021 -जर्नल इनवायरमेंटल हेल्थ में प्रकाशित अध्ययन में वैज्ञानिकों ने संक्रामक
रोगों पर पर्यावरणीय कारकों के प्रभाव के बारे में बताया है। शोधकर्ताओं का
कहना है कि कोरोना के इस दौर में वायु-प्रदूषण का बढ़ना गंभीर समस्याओं का
कारण बन सकता है।शोधकर्ताओं का कहना है कि पिछले अध्ययनों में देखा गया था कि जिन स्थानों
पर वायु प्रदूषण का ज्यादा जोखिम था, वहां पर कोविड-19 के मामलों और मौतों
की अधिक घटनाएं सामने आईं थीं।
7-11-2020 विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो वायु प्रदूषण से कई गंभीर बीमारियों
का खतरा बढ़ जाता है। इनमें दिल की बीमारियां स्ट्रोक फेफड़ों का कैंसर
क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और तीव्र श्वसन संक्रमण
प्रमुख हैं।
महामारी को जन्म देने एवं इसके समाप्त होने में तथा संक्रमितों की संख्या कम और अधिक होने में वायु प्रदूषण की बड़ी भूमिका बताई जा रही है ऐसी परिस्थिति में महामारी से संबंधित पूर्वानुमान लगाने के लिए सबसे पहले वायुप्रदूषण पैदा होने और उसके घटने बढ़ने का कारण खोजना आवश्यक है उसी के आधार पर उससे संबंधित महामारी जैसी किसी घटना के विषय में कोई पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | अभी तो वायु प्रदूषण बढ़ता क्यों है इसका कारण खोजने में ही सबसे बड़ी समस्या पैदा हो रही है |
भारतवर्ष में दशहरे पर्व में रावण का पुतला जलाने की परंपरा है तो उस समय यदि वायु प्रदूषण बढ़ने लगता है तब तो उसका कारण रावण के पुतला जलाए जाने को बता दिया जाता है |
इसी प्रकार भारतवर्ष में दीपावली पर्व पर पटाखे फोड़ते और साँप की टिक्की जलाते हैं उस समय यदि वायु प्रदूषण बढ़ने लगता है तब तो उसका कारण पटाखे फोड़ते और साँप की टिक्की जलाने को बता दिया जाता है |
यदि वायु प्रदूषण धान काटने के समय यदि वायु प्रदूषण बढ़ने लगता है तो उसका कारण पराली जलाने को मान लिया जाता है |
यदि वायु प्रदूषण सर्दी की ऋतु में बढ़ने लगता है तो सर्दी में तापमान कम होने से हवा की गति धीमी हो जाती है जिससे प्रदूषकतत्वों का विखराव अच्छे से नहीं होता है इसलिए वायुप्रदूषण बढ़ने का कारण उसे बता दिया जाता है |
यदि वायु प्रदूषण गर्मी की ऋतु में बढ़ने लगता है तो उसका कारण तापमान अधिक होने से हवा में घुल रही गैस और हवा में तैरने वाले प्रदूषित कणों को जिम्मेदार बता दिया जाता है |
दिल्ली में कई बार भलस्वा लैंडफिल साइट को वायु प्रदूषण बढ़ने का कारण मान लिया जाता है |
वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जिम्मेदार जब कोई कारण समझ में नहीं आते हैं उस समय कुछ ऐसे कारणों की कल्पना कर ली जाती है जो हमेंशा विद्यमान रहते हैं | वाहनों से निकलता धुआँ,उद्योगों से निकलता धुआँ,ईंट भट्ठों से निकलता धुआँ,हुक्का पीने से निकलता धुआँ,निर्माण कार्यों से उठती धूल आदि को वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है | दूसरे देशों में आई आँधी को भारत में वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है !चीन के वैज्ञानिकों ने तो हेयर स्प्रे,परफ्यूम और एयर रिफ्रेसर के प्रयोग को वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताया है |
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अपर निदेशक दीपांकर शाह कहते हैं कि यह स्मॉग नहीं अपितु फॉग है | उन्होंने कहा पराली जलाने से दिल्ली में वायुप्रदूषण नहीं बढ़ता है अपितु दिल्ली की भौगोलिक स्थिति के कारण दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ता है |
कुछ रिसर्चरों का मत है कि वायु प्रदूषण क्यों बढ़ता है ये किसी को पता ही नहीं है |
11 अप्रैल 2021-फ्रेंच पोलर इंस्टीट्यूट के सहयोग से यूनिवर्सिटी ऑफ पेरिस-सैकेल और प्राकृतिक इतिहास के राष्ट्रीय संग्रहालय के वैज्ञानिकों ने करीब 20 वर्षों तक किए गए एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के जरिए किया निर्धारित है कि हर साल धूमकेतु और क्षुद्रग्रहों से हमारे ग्रह पृथ्वी पर धूल आती है। इस तरह करीब पांच हजार दो सौ टन धूल पृथ्वी पर आती है।जर्नल अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस लेटर्स में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि धरती पर हमेंशा से ही सूक्ष्म उल्कापिंड गिरते रहे हैं।
इसप्रकार से वायुप्रदूषण क्यों बढ़ता है इसका वास्तविक निश्चित कारण किसी को पता ही नहीं है जिसका उपचार किया जाए वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर केवल काल्पनिक तीर तुक्के लगाए जाते रहते हैं |
15 अक्टूबर 2018 को भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय द्वारा 'एयरक्वालिटीअर्लीवार्निंगसिस्टम' विकसित किया गया है |बताया जाता है कि इसके द्वारा वायुप्रदूषण बढ़ने के तीन दिन पहले ही वायु प्रदूषण बढ़ने का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | ऐसे दावे पहले भी किए जाते रहे हैं इतना ही नहीं अपितु समय समय पर वायु प्रदूषण बढ़ने के विषय में पूर्वानुमान भी बताए जाते रहे हैं वे सही नहीं होते हैं ये और बात है |
इसमें सबसे विशेष बात यह है कि वैज्ञानिक अनुसंधान हमेंशा चला करते हैं किंतु उनके द्वारा अभी तक इस बात का पता नहीं लगाया जा सका है कि वायु प्रदूषण बढ़ने का कारण क्या है ?वायु प्रदूषण के बढ़ने का पूर्वानुमान लगाने के लिए अभी तक कोई ऐसी प्रक्रिया प्रमाणित रूप से विकसित नहीं हो पाई है | जिसके द्वारा वायुप्रदूषण बढ़ने के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सके |
ऐसी परिस्थिति में जिस वायुप्रदूषण के विषय में अभी तक कुछ पता ही नहीं लगाया जा सका है महामारी के पैदा होने या समाप्त होने में उसकी कोई भूमिका है भी या नहीं इसका अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है | दूसरी बात जब वायुप्रदूषण के ही बढ़ने के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पाया है तब उसकेआधार पर यदि महामारी पैदाभी हुई हो या उसके आधार पर संक्रमण बढ़ता भी हो तो उसका पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है |
जलवायु परिवर्तन : आशंका या वास्तविकता
जलवायुपरिवर्तन को कुछ लोग मानते हैं कुछ नहीं मानते हैं कुछ मनुष्यकृत मानते हैं तो कुछ लोग प्राकृतिक मानते हैं कुछ लोग महामारी एवं मौसम संबंधी प्राकृतिकघटनाओं पर जलवायुपरिवर्तन के प्रभाव को भी मानते हैं | कुछ लोग जलवायु परिवर्तन को समय के साथ साथ प्राकृतिक रूप से चलने वाली प्राकृतिक घटना मानते हैं तो कुछ लोग कुछ दशकों में बढ़ती जलवायुपरिवर्तन की गति से चिंतित हैं|वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछले दो दशकों में जलवायुपरिवर्तन की रफ्तार में वृद्धि हुई है।
21अप्रैल 2020 - को प्रकाशित : कोरोना ने बदला मौसम का मिजाज़! भारत में सबसे ठंडा अप्रैल, ब्रिटेन में चल रही लू ! कोरोना महामारी के बीच ब्रिटेन में गर्मी ने पिछले 361 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है. वहां अप्रैल में भीषण गर्मी और लू चल रही है.|
22 अप्रैल 2020 - को प्रकाशित :कोरोना, सूखा और तूफान से अमेरिका खस्ताहाल ! ट्रंप पर बड़ी आफत !अमेरिका ने हाल ही में 1200 साल का सबसे भयावह सूखा देखा है. ये सूखा 18 साल तक चला. यानी साल 2000 से 2018 तक. सूखे से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ दक्षिण-पश्चिमी अमेरिका हुआ है |
5-अप्रैल-2022को प्रकाशित : लुसियाना स्टेट यूनिवर्सिटी (एलएसयू) के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए एक शोध के मुताबिक, अमेजन वर्षा वन के कई हिस्से मानवजनित जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहे हैं। रिसर्च में पाया गया है कि यहाँ रहने वाले अधिकांश पक्षियों के आकार में कमी आ रही है। इन पक्षियों के वजन में भी हर दशक में दो फीसदी तक की कमी देखी जा रही है। यह अध्ययन साइंस एडवांसेज जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
महामारी और प्राकृतिक घटनाओं के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा अभी तक जितना जो कुछ बोला जाता रहा है वह प्रायः तर्कों की कसौटी पर सही नहीं निकलता रहा है | इससे वैज्ञानिकों की बातों पर आस्था रखने वाले आम लोगों पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है इसका कारण यह भी है कि वे वैज्ञानिकों की ऐसी बातों पर बहुत अधिक ध्यान ही नहीं देते हैं | प्रबुद्ध वर्ग के जो लोग ऐसी बातों पर ध्यान देते भी हैं वे जलवायु परिवर्तन की अवधारणा को तर्क के साथ समझना चाहते हैं किंतु ऐसे विषयों में तर्कों को महत्त्व कौन देता है |
वैज्ञानिक प्रमाणिकता के अभाव में कोरी कल्पनाएँ समझकर ही तो अमेरिकी राष्ट्रपति रहे ट्रंप स्वयं भी जलवायु परिवर्तन जैसी ऐसी बातों पर विश्वास नहीं करते देखे गए |वे क्या कोई भी सजीव व्यक्ति प्रत्येक बात को तर्क के साथ समझना चाहता है |
22 मई 2020 - को प्रकाशित :कोरोना को लेकर अपने देश के वैज्ञानिकों पर भड़के ट्रंप, कही ये बातडोनाल्ड ट्रंप ने हफ्ते में दो बार कहा कि हमारे देश के वैज्ञानिकों की बात बेसिर पैर की है. उनकी बातों में कोई सबूत नहीं है|देश के कई बड़े वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की सलाह को खारिज करते हुए ट्रंप लॉकडाउन हटाना चाहते थे |
29 दिसंबर 2017 को प्रकाशित : अमेरिका के पूर्वी क्षेत्र में कड़ाके की सर्दी देखकर राष्ट्रपति ट्रंप ने मजाकिया लहजे में कहा कि धरती के बढ़ता तापमान बर्फीली हवाओं से शायद राहत दिलाएगा |
29 जनवरी 2019 को प्रकाशित : शाम में भयानक ठंड का शिकार हुए मिडवेस्ट रीजन का हवाला देते हुए ट्रंप ने ग्लोबल वार्मिंग को ताना मारते हुए उसे तेजी से वापस आने के लिए कहा है।ट्रंप ने ट्वीट किया कि, 'खूबसूरत मिडवेस्ट में ठंडी हवाओं के चलते तापमान माइनस 60 डिग्री तक पहुँच गया है। ठंड ने रिकॉर्ड तोड़ दिया है। आने वाले दिनों में और भी ठंडा होने की उम्मीद है। लोग एक मिनट के लिए भी बाहर नहीं आ पा रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के साथ यह क्या हो रहा है?ग्लोबल वार्मिंग कृपया तेजी से वापस आएँ , हमें आपकी आवश्यकता है!'
5 मई 2020 :को प्रकाशित : दुनिया के प्रमुख वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव-प्रेरित है और चेतावनी देता है कि तापमान में प्राकृतिक उतार-चढ़ाव मानव गतिविधि द्वारा बढ़ाए जा रहे हैं। इसे जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग के रूप में जाना जाता है। मानव गतिविधियों ने कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वृद्धि की है, जिससे तापमान बढ़ रहा है। चरम मौसम और पिघलने वाली ध्रुवीय बर्फ संभावित प्रभावों में से हैं।जलवायु में प्राकृतिक उतार-चढ़ाव आते हैं |
बताया जाता है कि मानवीय गतिविधियों द्वारा पर्यावरण प्रदूषित होने से जलवायु प्रभावित होती है।कुलमिलाकर जलवायु की दशाओं में यह बदलाव प्राकृतिक भी हो सकता है और मानव के क्रियाकलापों का परिणाम भी।औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्यों द्वारा उद्योगों से निःसृत कार्बन डाई आक्साइड आदि गैसों के वायुमण्डल में अधिक मात्रा में बढ़ जाने का परिणाम बताया जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन और महामारी !
सर्दी में सर्दी,गर्मी में गर्मी एवं वर्षाऋतु में वर्षा तो होगी ही किसी वर्ष कहीं कुछ कम एवं किसी वर्ष कहीं कुछ अधिक होते देखी जाती है |इसके लिए पूर्वानुमानों की आवश्यकता तो होती है किंतु इससे मौसम के क्षेत्र में बहुत कुछ बन या बिगड़ नहीं रहा होता है किंतु जब यही संतुलन बहुत अधिक बन या बिगड़ जाता है सर्दी गर्मी वर्षा आदि बहुत कम या बहुत अधिक होने लगती है तब चिंता होनी स्वाभाविक होती है क्योंकि उसके दुष्प्रभाव भी होते देखे जाते हैं उससे जन धन की हानि होते देखी जाती है | इसलिए ऐसी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान दोनों आवश्यक होते हैं कि किसी किसी वर्ष में इस प्रकार का संतुलन बिगड़ने का कारण क्या है |
सामान्य रूप से ऋतुओं के बदलते समय रोगों की अधिक संभावना इसीलिए रहती है क्योंकि उस समय प्राकृतिक वातावरण में बड़ा बदलाव हो रहा होता है | भीषण गर्मी में अचानक वर्षा होने लगना या तापमान बहुत अधिक बढ़ने लगना ,ऐसा ही सर्दी में होना और तापमान बहुत कम गिरना या बहुत अधिक गिरना,वर्षा ऋतु में वर्षा बहुत कम या बहुत अधिक होने में भी तो प्रकृति में अचानक बड़ा बदलाव हो रहा होता है |इसका भी स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है | ऋतु परिवर्तन जैसी प्रतिवर्ष घटित होने वाली सामान्य घटनाओं के घटित होने पर यदि लोगों को सर्दी जुकाम खाँसी उदरविकार डेंगू जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ती दिखाई देने लगती हैं इसका मतलब है कि प्राकृतिक घटनाओं का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है उससे तरह तरह के रोग होते देखे जाते हैं |
ऐसी परिस्थिति में भूकंप,आँधी, तूफ़ान, वर्षा, बाढ़ ,चक्रवात ,वज्रपात,वायुप्रदूषण ,तापमान आदि से संबंधित प्राकृतिक घटनाओं का प्रभाव भी तो स्वास्थ्य पर पड़ता ही होगा | उससे महामारी जनित रोगों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए पहले ऐसी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने की प्रक्रिया खोजी जानी आवश्यक है | यदि अभी तक नहीं खोजी जा सकी है तो कोरोना जैसी महामारी के विषय में कोई पूर्वानुमान लगाया जाना कैसे संभव होगा |
जलवायु में होने वाले परिवर्तन रोगाणुओं में रोगाणु वाहकों में ऐसे परिवर्तन उत्पन्न कर सकते हैं जिससे बिल्कुल नई प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिनके बारे में तो हमारे पास जानकारी भी नहीं होगी फिर उनसे निपटने के लिये औषधियों के होने का प्रश्न ही नहीं होता। ये बीमारियाँ जुकाम की तरह साधारण और कम खतरनाक भी हो सकती हैं या फिर एड्स जैसे खतरनाक भी। ये विश्व के किसी एक कोने तक ही सीमित रह सकती हैं या फिर महामारी बनकर पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले सकती हैं।जलवायु में होने वाले परिवर्तनों से ऐसे संयोग भी बन सकते हैं जिनसे बहुत कम जाने-सुनी बीमारियाँ विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या को अपनी चपेट में ले लें।
पता लगा है कि "वर्तमान समय में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) द्वारा विकसित किया जा रहा मॉडल मौसम में आने वाले परिवर्तन और रोग की घटनाओं के बीच संबंध पर आधारित है।ज्ञात हो कि ऐसे कई रोग हैं, जिनमें मौसम की स्थिति अहम भूमिका निभाती है।"कैसे भी महामारी के पैदा होने और समाप्त होने में जलवायु परिवर्तन की भी अहम् भूमिका बताई जाती रही है |विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे स्वीकार किया है |
6 दिसंबर 2020 को जिनेवा: विश्व स्वास्थ्यसंगठन (WHO) के प्रमुख टेड्रोस अधानोम घेब्रेयेससने कोरोना वायरस महामारी को लेकर बड़ा दावा किया था | एक महत्वपूर्ण घोषणा करते हुए WHO चीफ ने कहा था कि कोरोना वायरस दुनिया के लिए अंतिम महामारी संकट नहीं है. टेड्रोस ने कहा कि अगर हम जलवायु परिवर्तन का हल नहीं ढूंढ पाते, तो मानव स्वास्थ्य को बेहतर करने वाले हमारे सभी प्रयास व्यर्थ साबित होंगे |
ऐसी परिस्थिति में यदि इस बात को मान भी लिया जाए कि महामारी पैदा होने या समाप्त होने में या संक्रमितों की संख्या बढ़ने तथा कम होने में जलवायु परिवर्तन की भी भूमिका हो सकती है, तो जलवायु परिवर्तन होने का कारण क्या हो सकता है | यह प्राकृतिक है या मनुष्यकृत ! इसमें किस प्रकार के बदलाव आने पर महामारी जैसी परिस्थितियाँ पैदा हो सकती हैं |अनुसंधान पूर्वक इस प्रकार की बातों का आगे से आगे पता लगाया जाना चाहिए | महामारी को समझने के लिए जलवायु परिवर्तन का अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना सबसे पहले आवश्यक है क्योंकि महामारी पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है या नहीं किस प्रकार पड़ता है कितना पड़ता है आदि बातों का पता लगाए बिना महामारी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कैसे समझा जा सकता है | शोधकर्ताओं ने माना कि इस विषय पर बहुत कम अध्ययन हुए हैं |यह सर्वाधिक चिंता का विषय है यही ऐसी सभी समस्याओं की जड़ है |
जलवायु परिवर्तन का पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है आदि का पता किए बिना ही महामारी विज्ञान फल फूल रहा है यह महामारी संबंधी अध्ययनों की कमजोरियों को प्रस्तुत करता है |
जलवायु परिवर्तन का पूर्वानुमान लगाने की जिम्मेदारी किसकी !
21अक्टूबर 2021 दिल्ली और एनसीआर के क्षेत्रों में बढ़ते प्रदूषण पर नजर रखने और उसे नियंत्रित करने के लिए केंद्र सरकार ने वायु गुणवत्ता प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली लांच की गई है। इसके तहत दिल्ली और उसके आस-पास के 19 जिलों की वायु गुणवत्ता पर रियल टाइम नजर रखी जाएगी। इसके साथ ही किस फैक्टर के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है, उसका भी आंकलन किया जा सकेगा। यही नहीं इस सिस्टम के जरिए इस बात का भी पता चल सकेगा कि अगले 5 दिन कैसे कदम उठाए जाएं, जिससे कि प्रदूषण में कमी लाई जा सके।