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आधुनिकविज्ञान

                                                                -:दो शब्द :-   

          भूकंप बाढ़ आँधी तूफानों की तरह ही महामारियों के वेग को  घटाया तो जा नहीं सकता है |अपने बचाव का रास्ता खोजा जा सकता है ऐसी सभी प्राकृतिक घटनाओं के एक बार प्रारंभ हो जाने के  बाद इन्हें रोका जाना मनुष्य के बश की बात नहीं  होती है |इसलिए इनसे बचाव के लिए दो बातें आवश्यक होती हैं पहली बात तो ऐसी महामारियों के विषय में पूर्वानुमान लगाया जाए और पहले से उचित एवं स्वास्थ्य के अनुकूल दिनचर्य्या बनाकर संभावित संक्रमण से बचने का प्रयास किया जाए | दूसरी बात इस बात का अनुमान लगाए जाने की आवश्यकता है कि  महामारी की संक्रामकता पर प्रतिरोधक क्षमता का कितना प्रभावपड़ सकता है | क्या प्रतिरोधक क्षमता के बलपर महामारी काल में भी संक्रमित होने से बचा जा सकता है | यदि ऐसा संभव है तो प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले वाले खान पान रहन सहन आदि को चिन्हित करके ,आवश्यक औषधियाँ वैक्सीन आदि बनाकर शरीरों को ही इतना प्रतिरोधक क्षमता संपन्न बना लिया जाए कि महामारियों से डर डर कर जीना ही न पड़े | और न ही लॉक डाउन लगाकर संपूर्ण काम काज ही ठप्प करना पड़े | अभी तक किए गए वैज्ञानिक अनुसंधानों से ये काम तो आज के बहुत पहले भी किया जा सकता था |महामारियाँ तो आती जाती रहती ही हैं और भविष्य में भी आती जाती रहेंगी और वे इसी प्रकार की संक्रामकता से संपन्न होंगी | इसलिए महामारियाँ शुरू होने के बाद हम कुछ करेंगे उससे अच्छा है तैओयरी तो पहले से करके रखी जाए ताकि महामारी से जूझती जनता को संक्रमित  होने से ही  बचाया जा सके | वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा आजतक कम से कम इतना तो कर ही लिया जाना चाहिए था | यदि इतना भी नहीं किया जा सका तो बीते सैकड़ों वर्षों के वैज्ञानिक अनुसंधानों से ऐसा किया क्या गया जो महामारी से बचाव में सहायक हो जबकि ऐसे विषयों पर वैज्ञानिक अनुसंधान हमेंशा चला करते हैं | उनके संचालन में भारी भरकम  धनराशि जो खर्च होती है वह जनता के द्वारा टैक्स रूप में सरकारों को दी जाती है | इतना सब होने के बाद भी कोरोना महामारी से जनता को स्वयं जूझना पड़ा है | वैज्ञानिक अनुसंधानों की कमजोरियों की कीमत जनता को जान देकर चुकानी पड़ी है | महामारी के समय कुछ निराधार बातों अंदाजों अटकलों के अतिरिक्त चिकित्सावैज्ञानिक ऐसा कुछ भी प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं हो सके जिससे जनता को कुछ मदद मिल सकी हो या उसे  देखकर यह विश्वास हो सके कि वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी का सामना काने के लिए पहले से कुछ तैयारी करके रखी भी गई थी |

      वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया से जुड़े लोग जिन बिषयों में अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा स्वयंकुछ कर नहीं पा रहे हैं किसी अन्य विधा से किसी दूसरे को भी कुछ करने नहीं देते सीधे कह देते हैं ये विज्ञान सम्मत नहीं है |

     भारत के प्राचीन विज्ञान से संबंधित अनुसंधानों को  ही लें पूर्वानुमान लगाने की दिशा में वे कितने भी सही सटीक क्यों न घटित हों उनके विषय में सीधे बिना सोचे ही कह  दिया जाता है कि ये अंध विश्वास है | यह रूढ़िवादिता है यह पाखंड है आदि आदि और भी बहुत कुछ !सरकारें भी इसी भावना से आजादी से आजतक ऐसे विषयों से संबंधित अनुसंधानों  की उपेक्षा करती रही हैं | यदि किसी विद्वान् ने व्यक्तिगत संघर्ष करके ऐसे विषयों से संबंधित अनुसंधानों को जनता की मुसीबत में मदद करने लायक बनाया भी तो सरकारें उन स्थापित वैज्ञानिकों की सहमति के बिना किसी दूसरी वैज्ञानिक विधा को प्रोत्साहित नहीं करती हैं |इसलिए किसी भी अनुसंधान पद्धति से किए गए अनुसंधान यदि सही और जनता की मदद करने में सक्षम भी हों  तो भी अनुसंधान जगत में  वैज्ञानिकों का प्रभुत्व होने के कारण सरकारों के सामने उन्हें प्रमाणित करना बहुत कठिन हो जाता है |क्योंकि जिस वैज्ञानिक विधा को जिसने पढ़ा ही न हो उसका मूल्यांकन यदि उसी से करवाया जाए तो ऐसे लोग उस अनुसंधान का मूल्याङ्कन करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं |

         सोचा यह जाना चाहिए कि आधुनिक विज्ञान तो अभी आस्तित्व में आया है | भारत की प्राचीन वैज्ञानिक अनुसंधान विधाके द्वारा ही पहले सारे काम काज संचालित होते रहे हैं उससे किए गए अनुसंधान  महामारी  मौसम मानसून एवं प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान लगाने में अत्यंत प्राचीनकाल से ही सक्षम माने  जाते रहे हैं |उस विधासे किए गए अनुसंधान उस समय की शासन द्वारा बनाई जाने वाली नीतियों के निर्धारण में भी महत्वपूर्ण सहयोगी होते रहे हैं | 

        सरकारों के द्वारा संचालित संस्कृत विश्वविद्यालयों का यह कर्तव्य था कि वे अनुसंधान पूर्वक इन विषयों को सरकारों के सामने रखते और कोरोना महामारी के समय वे  अच्छी भूमिका निभाते तो भी सरकारों को ऐसे विषयों की विशेषता समझ में आ सकती थी किंतु संस्कृति विश्व विद्यालयों को न जाने किसका शाप लगा है कि भ्रष्टाचार के कारण ऊपर से नीचे तक योग्य लोग योग्य पदों तक पहुँच ही नहीं पाते हैं | जो पहुँचते हैं उनमें ऐसी योग्यता नहीं होती कि वे उन पदों की गरिमा के अनुकूल कुछ करने लायक हों | महामारी ने वहां के भ्रष्टाचार को भी उजागर किया है | जो यह कहा करते हैं कि ऐसी ऐसी यज्ञें हैं जिन्हें करने से उस देश को महामारी से मुक्त किया जा सकता है या रखा जा सकता है | सरकारें उनसे पूछें कि कोरोना महामारी में लाखों लोग संक्रमित हुए और लाखों लोगों की मृत्यु हुई महामारी से समाज की सुरक्षा करने के लिए आपने अपनी योग्यता का परिचय क्यों नहीं दिया !इसी प्रकार से जो ज्योतिष विषय के रीडर प्रोफेसर लोग कक्षाओं में क्षेत्रों महामारी  एवं प्राकृतिक घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने की विधि पढ़ाते हैं उनकी परीक्षा लेते और उन्हें पास फेल करते हैं उन्हीं बिषयों में पीएचडी  करवाते हैं उन्हीं को रीडर प्रोफेसर आदि पदों पर नियुक्त किया जाता है जिन्हें सरकारें भारी भरकम  वेतन देती हैं | ज्योतिष के ऐसे रीडर प्रोफेसरों से यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि कोरोना महामारी का पूर्वानुमान लगाकर सरकारों को सूचित करने में वे यदि अयोग्य नहीं थे तो असफल क्यों हुए ?

      कुल मिलाकर आजादी से आज तक सरकारों और स्थापित वैज्ञानिक शोधकर्ताओं के ध्यान न देने से वर्तमान समय में  अनुसंधान पद्धति वर्गविशेष की हठवादिता में कैद सी होकर रह गई है |उसमें संकीर्णता का ताला सा लगा दिया गया है |  अब जो अनुसंधान आधुनिकपद्धति के द्वारा किए जाते हैं उन्हें  ही वैज्ञानिक अनुसंधानों के रूप में मान्यता मिलती है उन्हीं अनुसंधानों को सरकारें भी प्रोत्साहित किया करती हैं उन्हें ही अनुसंधान करने के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाए जाते हैं |यदिइतना ध्यान भारत के प्राचीन विज्ञान से संबंधित अनुसंधानों को भी दिया  जाता तो मुझे विश्वास है कि कोरोना महामारी से इतना बड़ा नुक्सान न होता तथा बचाव और अच्छे ढंग से किया जा सकता था | 

                                                                              भूमिका 

    बिडंबना की बात यह है कि भारत के प्राचीन वैज्ञानिक अनुसंधान कितने भी सही एवं सटीक घटित क्यों न घटित होते रहें फिर भी उन्हें प्रमाणित करवाने के लिए भारत  के प्राचीन वैज्ञानिकों को भी अपने महत्वपूर्ण अनुसंधान लेकर उन्हीं लोगों के दरवाजे पर जाना  पड़ता हैजिनके विषय में यह तय होता है कि वे मानेंगे नहीं क्योंकि इस विज्ञान को वे मानते ही नहीं हैं |इसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त द्वारा प्राचीन वैज्ञानिक विधा से किए गए अनुसंधानों को बड़ी आसानी से नकार दिया जाता है |

      आधुनिक विज्ञान में पूर्वानुमान  लगाने कोई  के  लिए  कोई वैज्ञानिक  विकसित ही नहीं  की जा सकी  है और भारत के प्राचीन विज्ञान की उपेक्षा कर दी जाती है |  प्राचीनविज्ञान की उपेक्षा का ही परिणाम यह है कि  विगत दस वर्षों में जितनी भी प्राकृतिक आपदाएँ घटित हुई हैं उनमें सेअधिकाँश  घटनाओं के बिषय में भी पूर्वानुमान नहीं  लगाया जा सका है |     

        उपग्रहों रडारों की मदद से बादलों या आँधी तूफानों की जो जासूसी कर भी ली जाती है उससे बादलों की गति एवं दिशा का अनुमान करके उनके दूसरे स्थान पर पहुँचने के बिषय में जो अंदाजा लगा लिया जाता है | इस जासूसी  प्रक्रिया में किसी प्राकृतिक विज्ञान का उपयोग ही नहीं किया जाता है जिसके आधार पर प्रकृति के स्वभाव का अध्ययन किया जा सके जबकि महामारियाँ प्रकृति की प्रवृत्ति बिगड़ने पर पैदा होती हैं | 

      ऐसे अंदाजे तो जीवन के सभी क्षेत्रों में चलते हैं नहरों में पानी छोड़ा जाता है | ट्रेन किसी गंतव्य के लिए  भेजी जाती है ये कब कहाँ पहुँचेगें इसका अंदाजा सबको होता है जैसे ये कभी कभी आकस्मिक बाधाओं के कारण अपने गंतव्य तक अनुमानित समय पर नहीं पहुँच पाते हैं उसी प्रकार से हवाओं के बदल जाने से मौसम संबंधी लगाए गए तीर तुक्के भी गलत होते देखे जाते हैं जिनके लिए जलवायु परिवर्तन को दोषी ठहरा दिया जाता है |

     इसलिए सरकारों को यह सच स्वीकारने का साहस करना चाहिए कि उनके पास अभी तक मौसम एवं महामारियों को समझने का विज्ञान नहीं है इसलिए ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है | ऐसी घटनाएँ जो नुकसान करना होता है पहले झटके में ही कर देती हैं इसलिए पूर्वानुमान  पता  हुए बिना इनसे बचाव के लिए अग्रिम तैयारियाँ चाहकर भी कैसे कर सकती हैं | यदि सरकारें करना चाहें भी तो ये तैयारियाँ बिल्कुल उस प्रकार की होंगी जैसे कोई दुश्मन देश किसी पर हमला कर उस देश पर कब्ज़ा करते हुए आगे बढ़ता जा रहा हो और उस देश का शाशक अपने सैनिकों को भागने के लिए साधन उपलब्ध करवाने  में लगा हो | दूसरी बात किसी व्यक्ति को कोई लाठी डंडों से अक्सर पीट देता हो जिससे उसे चोट लग जाती हो और पिटने वाला व्यक्ति पीटने से लगने वाली चोटों को ठीक करने के लिए मल्हम लगाकर अपने घाव ठीक करके अपने को योद्धा समझ रहा हो और कुटाई करने वाले पर विजय प्राप्त करने का भ्रम पाल कर बैठा हो या उसे पराजित कर दिया है ऐसा समझ रहा हो | 

                                                     महामारी और जनता की अपेक्षाएँ 

   महामारी तो भूकंप आँधीतूफ़ान बाढ़ आदि की तरह एक हिंसक प्राकृतिक आपदा होती है जिससे बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो जाने का भय होता है इसीकारण ऐसी प्राकृतिक आपदाओं सेबचाव के लिए जनता चिंतित  रहती है | 

     इसलिए जनता को समस्या महामारी से नहीं होती है अपितु महामारी से जब मनुष्य संक्रमित होने लगते हैं या भारी संख्या में लोगों की मृत्यु होने लगती है उससे जनता अधिक भयभीत हो जाती है | ऐसेसंकट काल में मदद की आशा से जनता अपने वैज्ञानिकों एवं  सरकारों की ओर बड़ी आशा से देखती है | 

      जनता की वैज्ञानिकों से यह अपेक्षा नहीं होती है कि वे अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों से  महामारी भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ आदि की प्राकृतिक आपदाओं को रोक दें अपितु जनता तो यह अपेक्षा रखती है ऐसी महामारियों से जनता को जूझना कम से कम पड़े और वैज्ञानिक कोई न कोई प्रयास करके ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से जनता की सुरक्षा करते रहें | 

      प्राकृतिक घटनाएँ आती और जाती रहें उनसे मानवता को यदि कोई कष्ट न हो तो उसे  संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधानों की आवश्यकता ही  क्या है | कोरोना जैसी महामारी भी आती और चली जाती जनता संक्रमित न होती या कम होती और स्वस्थ जाती !मृत्यु से बचाव हो जाता तब तो पता ही नहीं चलता कि महामारी आई भी थी कि नहीं भारी संख्या में मनुष्यों के संक्रमित होने और मरने से ही महामारी के विषय में अनुभव हो पाता है | 

       इसलिए महामारियाँ अन्य प्राकृतिक घटनाओं की तरह ही हमेंशा से आती जाती रही हैं और उनसे जनता पीड़ित होती रही है ऐसी महामारियों से जनता को पीड़ित होने से बचाया जा सके इसके लिए वैज्ञानिकअनुसंधानों  की परिकल्पना की गई है | महामारियों के विषय में इतने लंबे समय से वैज्ञानिकअनुसंधान किए भी जाते रहे हैं |कोरोना महामारी से जूझती जनता को आज तक किए गए उन वैज्ञानिकअनुसंधानों के द्वारा क्या और कितनी मदद मदद ऐसी पहुँचाई जा सकी है जो वैज्ञानिकअनुसंधानों के बिना संभव न था |यदि ऐसे वैज्ञानिकअनुसंधान अभीतक किए न गए होते तो महामारी में जनता और अधिक संक्रमित हो जाती एवं मृत्युसंख्या भी बहुत अधिक बढ़ सकती थी |अकारण बिना किसी साक्ष्य के यह सोच लेना  ठीक नहीं होगा |

      वैज्ञानिकअनुसंधानों की सार्थकता सिद्ध करने हेतु  जनता एवं सरकारों के लिए यह जानना बहुत आवश्यक है कि जनताअपने खून पसीने की कठिन कमाई से टैक्स रूप में जो धन सरकारों को देती है उसका कुछ अंश ऐसे अनुसंधानों पर भी खर्च होता होगा | वह जिस उद्देश्य से खर्च किया जाता है उसे पूर्ण करने में ये वैज्ञानिकअनुसंधान कितने प्रतिशत सफल होते हैं और उनके द्वारा ऐसी प्राकृतिक घटनाओं से मानवता को बचा पाना कितना संभव हुआ है | 

           महामारी बढ़ने का कारण महामारी की संक्रामकता थी या लोगों में प्रतिरोधक क्षमता की कमी  !

      भूकंप बाढ़ आँधी तूफानों की तरह ही महामारियों के वेग को  घटाया तो जा नहीं सकता है |अपने बचाव का रास्ता खोजा जा सकता है ऐसी सभी प्राकृतिक घटनाओं के एक बार प्रारंभ हो जाने के  बाद इन्हें रोका जाना मनुष्य के बश की बात नहीं  होती है |इसलिए इनसे बचाव के लिए दो बातें आवश्यक होती हैं पहली बात तो ऐसी महामारियों के विषय में पूर्वानुमान लगाया जाए और पहले से उचित एवं स्वास्थ्य के अनुकूल दिनचर्य्या बनाकर संभावित संक्रमण से बचने का प्रयास किया जाए | दूसरी बात इस बात का अनुमान लगाए जाने की आवश्यकता है कि  महामारी की संक्रामकता पर प्रतिरोधक क्षमता का कितना प्रभावपड़ सकता है | क्या प्रतिरोधक क्षमता के बलपर महामारी काल में भी संक्रमित होने से बचा जा सकता है | 

     महामारीकाल में देखा गया कि बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी था जिसने परिस्थितिबशात मॉस्क नहीं लगाया !दो गज दूरी का पालन भी नहीं किया !पूरी तरह से संक्रमितों के संपर्क में रहा !जिसने जहाँ जैसे हाथों से जो कुछ भी दिया उसने वैसे ही बिना सैनिटाइज किए हाथों से खा भी लिया | कुल मिलाकर कोरोना नियमों का किसी भी प्रकार से पालन नहीं किया इसके बाद भी ये वर्ग संक्रमित नहीं हुआ | इस वर्ग के शरीरों में ऐसी क्या विशेषता थी कि प्रकुपित होकर भी इस वर्ग का कुछ बिगाड़ नहीं पाई | 

     ये वर्ग या तो संक्रमित नहीं हुआ और यदि संक्रमित हुआ भी तो उसे  पता ही नहीं लगा या थोड़ा बहुत पता भी लगा तो घर ही में सामान्य काढ़ा आदि पीकर स्वस्थ हो गया !कुछ लोगों को अस्पताल जाना भी पड़ा तो वहाँ चिकित्सा का लाभ लेकर स्वस्थ हुए और घर लौट आए |अपेक्षाकृत कुछ लोग गंभीर रूप से बीमार हुए उनमें से कुछ लोगों की दुर्भाग्य पूर्ण मृत्यु भी हुई है |

      ऐसी परिस्थिति में जो वर्ग संक्रमित नहीं  हुआ और जो वर्ग बहुत अधिक संक्रमित हुआ उन दोनों वर्गों में ऐसी क्या विशेषता या कमी थी कि महामारी का प्रभाव दोनों पर पड़ा किंतु दोनों वर्गों पर उसके परिणाम अलग अलग प्रकार के अर्थात एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत दिखाई पड़े | 

       ऐसे संक्रमित खाद्य पदार्थों को सभी लोग एक जैसा खा  पी रहे थे एक जैसी हवा में साँस ले रहे थे इसके बाद भी उनमें से कुछ प्रतिशत लोग संक्रमित हुए एवं कुछ प्रतिशत लोगों की मृत्यु हुई जबकि कुछ प्रतिशत लोग पूरी तरह  स्वस्थ बने रहे |

    महामारीजनित संक्रमण अपना प्रभाव सब पर एक समान रूप से डाल रहा था !इसलिए महामारी संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण में विद्यमान थी |अतः खाने पीने की सभी वस्तुएँ महामारी के  बिषैलेपन से प्रदूषित हो चुकी थीं |हवा पानी यहाँ तक कि वृक्ष बनौषधियाँ तक सभी  महामारी से  संक्रमित थे | 

      इसलिए सिद्धांततः संक्रमण का प्रभाव सभी पर लगभग एक जैसा दिखाई पड़ना चाहिए था किंतु ऐसा न दिखाई पड़ने का कारण क्या था | एक जैसे वातावरण और खान पान का अनुपालन करते हुए कुछ लोग तो भयंकर रूप से संक्रमित हुए उनमें से कुछ तो इतने अधिक संक्रमित हो गए कि उनकी मृत्यु हो गई जबकि बहुत लोगों के शरीरों पर महामारी का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा | इतने बड़े अंतर का कारण क्या हो सकता है | 

    मेरे बिचार  से उस बचाव के लिए जिम्मेदार निश्चित कारण को अवश्य खोजा जाना चाहिए | जिसे अपनाकर  महामारी मुक्त समाज का निर्माण किया जा सके | क्योंकि महामारियाँ तो हमेंशा आती और जाती रहती हैं भविष्य  में भी आती जाती रहेंगी ये तो प्राकृतिक घटनाएँ हैं इन्हें तो रोका नहीं जा सकता है अपने शरीरों में ही ऐसी प्रतिरोधक क्षमता  तैयार की जा सकती है जो महामारियों का सामना करने में सक्षम हो | 

       भूकंप रोकना संभव नहीं है इसलिए भूकंपरोधी भवन बनाकर अपना बचाव कियाजा सकता है | महामारी के विषय में भी वैज्ञानिक अनुसंधानों से ऐसे किसी महामारी कवच का आविष्कार किया जाना चाहिए जो भविष्य में आने वाली महामारियों से बचाव करने में सक्षम हो | 

                                प्रतिरोधक क्षमता के निर्माण के लिए क्या किया जाए ! 

          इतनी भयंकर महामारी सारे विश्व को पीड़ित करती रही फिर भी जिन शरीरों को संक्रमित नहीं कर सकी उन शरीरों में ऐसी क्या विशेषता थी |वह खोजी जानी चाहिए !यदि थी तो वह विशेषता क्या थी इसके साथ ही वह जन्मजात  थी या फिर उनके द्वारा जाने अनजाने में अपनाए गए स्वास्थ्य के अनुकूल  आहार विहार खानपान रहन सहन एवं समय समय पर ली जाने वाली विशिष्ट स्वास्थ्य सुविधाओं  का सेवन करने से उनके शरीर महामारी का सामना करने में सक्षम हो गए थे | 

     मैंने सुना है कि  स्वास्थ्य के अनुकूल अपनाए जाने वाले आहार विहार रहन सहन एवं समय समय पर ली जाने वाली विशिष्ट स्वास्थ्य सुविधाओं  का सेवन कर  लेने से  शरीरों में प्रतिरोधक क्षमता का ऐसा निर्माण संभव है उससे महामारी जैसी  भयंकर आपदा से बचाव हो सकता है |

      ऐसी परिस्थिति में बरबस ध्यान उस अत्यंत साधन संपन्न वर्ग की ओर चला जाता है जिसके यहाँ बच्चों के गर्भ में पहुँचने से पहले ही उस दंपति  को स्वास्थ्य सुरक्षा के घेरे में ले लिया जाता है और उसी समय से दंपति को चिकित्सकों की गहन देखरेख में रखा जाने लगता है और उसे समय समय पर संभावित संतान को स्वस्थ और बलिष्ट बनाने के लिए औषधियों का सेवन कराया जाने लगता है उस प्रकार के टीके लगाए जाने लगते हैं | बच्चे के गर्भ में आने के बाद वहाँ भी वही प्रक्रिया  लगातार जारी रखी जाती है | प्रसव के समय सावधानी बरतने के लिए बच्चे का जन्म भी चिकित्सकों के द्वारा करवाया जाता है उसके बाद वही चिकित्सकीय सघन सावधानी  बरती जाती है भविष्य में स्वास्थ्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बच्चे को समय पर सारे टीके लगवाए जाते हैं | बच्चे को क्या खाने को देना है क्या नहीं पूरा डाइट चार्ट बनाया जाता है उसके अनुशार भोजन दिया जाता है | सारे जीवन के लिए फैमिली डॉक्टर रखने वाला यह वर्ग चिकित्सकों की सलाह पर अच्छे अच्छे टॉनिक पीता है ,आयरन कैल्शियम आदि का संतुलन बनाकर चलता है | दूध घी फल फूल मेवा आदि स्वास्थ्य के अनुकूल शक्तिवर्द्धक  खान पान अपनाने वाले वातानुकूलित सुख सुविधापूर्ण रहन सहन में रहने वाला साधन संपन्न वर्ग नियमानुसार तो प्रतिरोधक क्षमता से  संपन्न होना चाहिए था इसलिए संक्रमित होने से इसका बचाव होना ही चाहिए था | 

      इस वर्ग ने सबसे अधिक कोविड नियमों का पालन भी किया है उसे बाहर निकलने की कोई मज़बूरी नहीं थी नौकरों से सामान  मँगाने से लेकर चिकित्सकों के द्वारा बताई जा रही विधि का पालन करते हुए उसका उपयोग करने वाला वर्ग ही सबसे अधिक संक्रमित हुआ है | 

     दूसरी ओर इसके बिल्कुल विपरीत साधन विहीन गरीबी में जीवन जीने वाला वर्ग, अपनी अपनी मजबूरियों के कारण  कोविड नियमों का  बिल्कुल पालन न कर पाने वाले  वर्ग को छोटे छोटे बच्चों के साथ कोविदकाल में ही महानगरों से पलायन करना पड़ा उन्हें जहाँ जो जैसे हाथों से दिया लिया गया खाते पीते पैदल चले गए ! रास्ते में कई प्रसव भी हुए उस समास सबसे अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है किंतु इन परिस्थितियों में वह संभव न था |घनी बस्तियों के छोटे छोटे घरों में रहने वाले साधन विहीन लोगों में दो गजदूरी संभव न थी मॉक्स धारण करना संभव न था , उन परिस्थितियों में भोजन के लिए सावधानी भी नहीं बरती जा सकती थी |   गरीबों ग्रामीणों मजदूरों श्रमिकों झुग्गी झोपडी वालों को उनके छोटे छोटे बच्चों को बिना मॉस्क के बिना शोशल डिस्टेंसिंग के ही भोजन के लिए दिन दिन भर लाइनों में लगना पड़ता था | शहरों में सब्जी एवं फल विक्रेता रेड़ी पटरी वाले पूरे कोरोना काल में गली गली में जा जाकर सब्जी फल आदि बेचते रहे | गरीबों ग्रामीणों साधन विहीनों में प्रतिरोधक क्षमता पर्याप्तहोने का कारण क्या था ?गरीबों के तो बचपन में लगाए जाने वाले टीके भी पर्याप्त नहीं लगे होते हैं | इन्हें नमक रोटी मुश्किल में मिलती है |  कोविड नियमों का  बिल्कुल पालन न करने पर भी ये वर्ग प्रायः स्वस्थ बना रहा | 

     इसी प्रकार से  मंदिरों के पुजारियों में, साधु संतों में ,रिक्सा चालकों में,दिल्ली में धरना पर बैठे किसानों में,कुछ प्रदेशों में हुई चुनावी रैलियों की भारी भीड़ों में महामारी का उतना दुष्प्रभाव नहीं दिखाई पड़ा जितना कि कोविड नियमों का संपूर्ण रूप से पालन करने वाले लोगों पर पड़ा है | 

     दूसरी तरफ दिल्ली मुंबई में कोई चुनाव नहीं था कोई कुंभ मेला नहीं था !अन्य स्थानों की अपेक्षा ऐसे नगरों के लोग भी अधिक साधन संपन्न एवं सतर्क थे इसके बाद भी यहाँ कोरोना संक्रमितों की संख्या सबसे अधिक रही !इसका सुनिश्चित कारण क्या हो सकता है | 

    ऐसी परस्पर विरोधी परिस्थितियों केपैदा होने का कारण प्रतिरोधक क्षमता की न्यूनाधिकता को मान भी लिया जाए तो जिनमें प्रतिरोधक क्षमता जितनी कम रही वे उतने अधिक संक्रमित हुए ऐसा कहा जासकता है | जिसमें जितनी अधिक रही उसका उतना अधिक बचाव हो गया है | 

      इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग महामारी से संक्रमित हुए या  मृत्यु हो गई उसका प्रमुख कारण महामारी न होकर अपितु  उनमें प्रतिरोधक क्षमता की कमी थी और जिनका बचाव हो गया उसका कारण उन पर महामारी का प्रभाव नहीं पड़ा हो ऐसा नहीं है अपितु उनमें प्रतिरोधक क्षमता का पर्याप्त मात्रा  में होना है | 

      ऐसी परिस्थिति में वैज्ञानिक अनुसंधानों का उद्देश्य महामारी समेत समस्त प्राकृतिक आपदाओंको घटित होने से रोकना नहीं अपितु उनसे जनता का अधिक से अधिक बचाव करना है | चिकित्सकों के द्वारा बचाव के लिए यदि कोविड नियमों के अच्छी तरह से पालन को एवं पर्याप्त प्रतिरोधक क्षमता को आवश्यक समझा गया है तो जो साधन संपन्न लोग अधिक संक्रमित हुए यदि उनमें प्रतिरोधक क्षमता की कमी थी तो उसका कारण अवश्य खोजा  जाना चाहिए ताकि भविष्य में आने वाली महामारियों से प्रतिरोधक क्षमता के बलपर जनता की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए | 

   भूकंप के झटकों से  कुछ घर  गिर जाएँ और बाकियों पर कोई प्रभाव न पड़े !इसके लिए भूकंप को उतना जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए जितना  कि भवनों के निर्माण में बरती गई कमजोरी और लापरवाही होती है | 

   इसी प्रकार से  महामारियों से  उतना नुक्सान नहीं होता है जितना कि उनसे बचाव के लिए मजबूत जानकारी का अभाव है | जनता को यह पता लगना चाहिए कि महामारी के इस डरावने समय में जिनपर महामारी का कोई प्रभाव पड़ा ही नहीं  उन शरीरों में ऐसी क्या विशेषता थी कि वे महामारी का सामना करने में सक्षम हो सके |  

                                             तीसरीलहर की भविष्यवाणी या अफवाह !

      वैज्ञानिकों के द्वारा जितनी जोर शोर से तीसरी लहर की भविष्यवाणी की जा रही है उससे इस बात पर विश्वास कर ही लिया जाना चाहिए कि हमारे विद्वान महामारी वैज्ञानिकों ने महामारी का पूर्वानुमान लगाने की क्षमता विकसित कर ली है | 

   महामारी की तीसरी लहर के आने की  भविष्यवाणी हमारे वैज्ञानिक लोग यदि इतने विश्वास पूर्वक कर लेने लगे हैं तो इसके लिए उनके पास कोई वैज्ञानिक आधार  भी होगा और महामारी शुरू एवं समाप्त होने के कारण भी पता होंगे | महामारी से संक्रमित लोगों की संख्या अचानक घटने बढ़ने का कारण भी पता होगा और इसका पूर्वानुमान भी पता होगा !यदि ऐसा है तो महामारी के आने जाने के विषय में या महामारी से संक्रमितों की संख्या घटने बढ़ने के विषय में भी उनके द्वारा सही एवं  सटीक भविष्यवाणी की जा सकती थी |

      इसीलिए ऐसी भविष्यवाणियाँ हमारे विद्वान महामारी वैज्ञानिकों के द्वारा  समय समय पर की भी जाती रही हैं जो लगातार गलत होती रही हैं | विभिन्न महामारी वैज्ञानिकों के द्वारा  समय समय पर की गई उन भविष्यवाणियों में परस्पर पर्याप्त मतभिन्नता देखी जाती रही है कई बार तो वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियाँ एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत जाती रही हैं | यदि पूर्वानुमान लगाने का कोई न कोई निश्चित वैज्ञानिक आधार था तो पूर्वानुमानों  में इतना अंतर नहीं होना चाहिए था | यदि परस्पर विरोधी बातों को भी पूर्वानुमान मन ही लिया जाएगा तो पूर्वानुमान लगाने की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी क्योंकि कोई न कोई बात तो सही होनी ही होती है | 

     यदि पूर्वानुमान  लगाने के लिए  कोई विज्ञान  विकसित  ही नहीं किया जा सका है तो महामारी की तीसरी लहर आने की बात करने का अफवाहें फैलाना नहीं तो और क्या है आखिर तीसरी लहर से संबंधित भविष्यवाणियों का वैज्ञानिक आधार क्या है | जिसके विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा  कहा गया है कि यह आएगी अवश्य किंतु  इसके घटित होने के समय में पर्याप्त मतभेद है | कुछ वैज्ञानिकों  के द्वारा तीसरी लहर अक्टूबर नवंबर में  आने की बात कही गई है तो कुछ ने सितंबर अक्टूबर में आने की बात कही है जबकि कुछ ने अगस्त सितंबर में ही आने की बात कही है | जुलाई के प्रथम सप्ताह में ही कुछ वैज्ञानिक तो कहने लगे हैं कि तीसरी लहर आ चुकी है | 

      इसी प्रकार से इससे कौन कितना प्रभावित होगा इसकी  भविष्यवाणी  करते हुए कुछ वैज्ञानिकों ने बच्चों के लिए विशेष खतरा बताया है तो कुछ वैज्ञानिकों ने इस  बात  का खंडन किया  है |  कुछ ने इसकी बहुत भयंकरता की बात कही है जबकि कुछ ने सामान्य रहने की बात कही है और  कुछ वैज्ञानिकों का तो अनुमान है कि महामारी निश्चित आएगी जबकि कुछ का कहना है कि ठीक ढंग से कोविड नियमों का पालन किया जाए  और वैक्सीन की दोनों डोज लगवा ली जाए तो महामारी नहीं भी आ सकती है | 

       वैज्ञानिकों के द्वारा बताए जा रहे ऐसे भिन्न भिन्न अनुमानों में महामारी की तीसरी लहर को लेकर अनिश्चितता साफ झलक रही है | ये अनुमान जिस जनता को महामारी की तीसरी लहर के विषय में कुछ समझाकर सावधान करने के लिए बोले जा रहे हैं | वह जनता ऐसी बातों से केवल इतना समझ सकी है कि दूसरी लहर के विषय में पूर्वानुमान के नाम पर वैज्ञानिकों के द्वारा पहले से कुछ बताया नहीं जा सका था | इसलिए अबकी बार तीसरी लहर के विषय में पूर्वानुमान बताने के नाम पर  होड़ सी लगी हुई है | 

      इन  पूर्वानुमानों में  वैंज्ञानिकों के द्वारा  दोनों बातें कह दी गई हैं बच्चों को अधिक खतरा है और बच्चों को अधिक खतरा नहीं भी है |तीसरी लहर आ भी सकती है और तीसरी लहर नहीं भी आ सकती है | यदि तीसरी लहर आ गई तो भविष्यवाणी करने वाले वैज्ञानिकों को सही मान लिया जाएगा और यदि तीसरी लहर नहीं आई तो उन वैज्ञानिकों को सही मान  लिया जाएगा जिन्होंने कहा है कि ठीक ढंग से कोविड  नियमों का पालन किया जाए  और वैक्सीन की दोनों डोज लगवा ली जाए तो महामारी नहीं भी आ सकती है | 

     कुल मिलाकर कोरोना महामारी की तीसरी लहर को लेकर जितनी  भी संभावित  परिस्थितियाँ हैं वे सभी बोल दी गई हैं | उनमें से कोई न कोई तो सही निकलेगी ही वह भी किसी वैज्ञानिक के द्वारा ही की गई होगी | अंततः वैज्ञानिक अनुसंधानों की भविष्यवाणी सत्य तो हो सकती है किंतु  बिचारणीय विषय यह है कि ऐसे अनुसंधानों से जनता को आखिर मिला क्या  है| यह स्थिति  केवल तीसरी लहर की ही नहीं है अपितु संपूर्ण कोरोना काल में वैज्ञानिक अनुसंधान जनित वक्तव्यों से जनता इसीप्रकार से भ्रमित होती रही है | जो जनता की कठिनाइयाँ कम करने की अपेक्षा उन्हें बढ़ाने में अधिक सहायक होती रही हैं | 

      वर्तमान समय की ही परिस्थिति पर यदि बिचार किया जाए तो महामारी के विषय में  सभीप्रकार से सावधानी तो बरती ही जानी चाहिए किंतु तीसरी लहर आने के विषय में इतनी बड़ी भविष्यवाणी जनता के हित में कितनी आवश्यक थी | इसका कोई मजबूत आधार होता तब तो ऐसा करना कुछ प्रतिशत तक आवश्यक मान भी लिया जाता | यद्यपि तब भी ऐसा करने से बचा जाना चाहिए था क्योंकि महामारी से निपटने के लिए आवश्यक तैयारियाँ सरकार  को करनी थीं तो सरकार करती रहती जनता को इस तनाव से तब  तक बचाया जाना चाहिए था जब तक कि जनता को  बताया  जाना आवश्यक न होता | 

     वर्तमान समय प्रत्येक वर्ग कोरोना के कहर से बुरी तरह टूट चुका है अब कुछ उत्साह बढ़ने का अवसर था तब तीसरी लहर  की भविष्यवाणी कर दी गई !इससे जनता कम से कम एक वर्ष के लिए फिर चिंता में पड़ गई |   



 कोरोना महामारी है  या विज्ञान को चुनौती ! 

       कोरोना महामारी  समझने एवं इसका पूर्वानुमान लगाने में असफल रहे वैज्ञानिकों का बचाव् करने से ज्यादा  जनता के बचाव के बिषय में  चिंता की जानी चाहिए जो कोरोना जैसी महामारियों से अकेली जूझ रही है | इस संकट काल में उन वैज्ञानिक अनुसंधानों से जनता को कोई विशेष मदद नहीं मिल सकी जिन पर उसकी खून पसीने की कमाई से टैक्स रूप में सरकार को दिया गया धन खर्च किया जाता है | सरकारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि जनता से टैक्स रूप में प्राप्त किया धन जिस पर जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए खर्च करती हैं उस उद्देश्य को हासिल करने में वे कितने प्रतिशत सफल हो पाती हैं | 

     कोरोना महामारी के बिषय में भी इस बात पर ईमानदारी से रिसर्च की जानी चाहिए कि स्वास्थ्य संबंधी जिन वैज्ञानिक अनुसंधानों पर जनता का इतना धन हमेंशा खर्च किया जाता रहता है वे वैज्ञानिक अनुसंधान हमेंशा चला करते हैं | वे वैज्ञानिक अनुसंधान कितने प्रतिशत सार्थक हैं या सही दिशा में जा रहे हैं इसका वास्तविक  परीक्षण दो समय ही हो पाता है पहला तो प्राकृतिक आपदाओं के समय और दूसरा महामारियों के समय !ऐसे अवसरों पर वे अनुसंधान जितने प्रतिशत काम आ पाते हैं वे उतने प्रतिशत सफल मान लिए जाते हैं | 

      प्राकृतिक आपदाओं और महामारियों के बिषय में जनता को दो प्रकार से ही मदद पहुँचाई जा सकती है एक तो ऐसी घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान लगाकर पहले से सावधान कर दिया जाए दूसरा ऐसी घटनाओं का  स्वभाव एवं उसकी आक्रामकता के वेग  को समझकर उसके बिषय में बचाव के लिए उचित सलाह दी जाए एवं सरकारों को भी समय से जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिल सके | 

      भूकंपों आँधीतूफानों एवं भीषणबाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं या महामारियों का पहला धक्का ही सबसे अधिक विध्वंसक होता है उससे जनता का कैसे अधिक से अधिक बचाव किया जाए इसका उपाय खोजना ही वैज्ञानिक अनुसंधानों का उद्देश्य होता है | इसके लिए ऐसी घटनाओं का सटीक पूर्वानुमान लगाया जाना  पहले आवश्यक होता है | इसके साथ ही मौसम संबंधी सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में भी सटीक पूर्वानुमान लगा लिया जाना चाहिए | भूकंप  आदि सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ महामारियों की सूचकमानी जाती रही हैं |इसलिए मौसम का सही सही अध्ययन किए बिना महामारियों के बिषय में किया गया कोई भी अनुसंधान संपूर्ण हो ही नहीं सकता है वह अधूरा ही रहेगा |  

     प्राकृतिक बिषयों में स्वाभाविक अनुसंधानों की बहुत बड़ी आवश्यकता है  प्राकृतिकआपदाओं और  महामारियों जैसी इतनी बड़ी बड़ी घटनाएँ अचानक घटित होने लगती हैं जिनकी किसी को कानों कान भनक तक नहीं होती है ऐसी प्राकृतिकआपदाओं पहला धक्का लगते ही बहुत कुछ नष्ट हो जाता है वैज्ञानिक जब तक संभलते हैं तब तक उनके प्रयासों की आवश्यकता ही समाप्त हो चुकी होती है फिर तो जो लोग स्वस्थ रहते हैं वे अपने अपने घर जाते हैं जो घायल होते हैं वे अस्पताल ले जाए जाते हैं और जिनकी दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु हो जाती है उनकी अंत क्रिया करने के लिए उनके घर वाले उन्हें ले जाते हैं इसमें वैज्ञानिक अनुसंधानों कर्ताओं की भूमिका ही क्या बचती है |सरकारें बचाव कार्यों में लग जाती हैं  वैज्ञानिक माने जाने वाले लोग उस प्रकार की घटनाओं के बिषय में मीडिया पर कुछ मनगढ़ंत कहानियाँ सुनाने लग जाते हैं जिनका आजतक सच्चाई से कोई संबंध सिद्ध ही नहीं हो सका है |वैज्ञानिकों के द्वारा  महामारियों या प्राकृतिक आपदाओं का कोई न कोई नाम रख दिया जाता है कितने वर्ष बाद ऐसी घटना घटित हुई है यह बता दिया जाता है ऐसी घटनाएँ अभी और भी घटित होती रहेंगी ये बता दिया जाता है ऐसी घटनाओं के घटित होने का कारण जलवायु परिवर्तन है यह बता दिया  जाता है और जलवायु परिवर्तनके कारण घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना संभव होता ही नहीं है यह सबको पता है | कुल मिलाकर  प्राकृतिक आपदाओं और  महामारियों के विषय में वैज्ञानिकों की अपनी क्या भूमिका है वह भी तो सामने लाया जाना चाहिए | 

    वर्तमान समय में प्रचलित वैज्ञानिक अनुसंधानों से जुड़े लोग जिन बिषयों में अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा स्वयं कुछ कर नहीं पा रहे हैं कोई दूसरा किसी अन्य विधा से करे तो उसे करने नहीं देते सीधे कह देते हैं ये विज्ञान सम्मत नहीं है विज्ञान वह जो जिन बिषयों में खुद कुछ कर नहीं पाया वो किसी दूसरी विधा  का मूल्याङ्कन करने में कैसे सक्षम हो सकता है | सरकारें उनकी सहमति के बिना किसी दूसरी वैज्ञानिक विधा को प्रोत्साहित नहीं करती हैं | 

     ऐसी परिस्थिति में विगत दस वर्षों में जितनी भी प्राकृतिक घटनाएँ घटित हुई हैं उनमें से किसी के बिषय में भी पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका है | उपग्रहों रडारों की मदद से जो बादलों या आँधी तूफानों की जासूसी कर भी ली जाती है उसी के आधार पर उसकी गति एवं दिशा का अनुमान करके उनके दूसरे स्थान पर पहुँचने के बिषय में जो अंदाजा लगा भी लिया जाता है उसमें ऐसे किसी प्राकृतिक विज्ञान का उपयोग ही नहीं किया जाता है जिसके आधार पर प्रकृति के स्वभाव का अध्ययन किया जा सके जबकि महामारियाँ प्रकृति की प्रवृत्ति बिगड़ने पर पैदा होती हैं | 

     इसलिए सरकारों को ऐसे विज्ञान की खोज करनी चाहिए जो प्रकृति के बनते बिगड़ते स्वभाव को समझने में सक्षम  हो उसके आधार पर प्राकृतिक घटनाओं एवं महामारियों के बिषय में पूर्वानुमान लगाने में सक्षम हो |ताकि ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधान मुसीबत के समय जनता के  काम आ सकें | 

       सरकारों के द्वारा स्वीकृत वर्तमानवैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति में यदि इस प्रकार की क्षमता है उसके आधार पर वह कोरोना महामारी का पूर्वानुमान लगाने में या महामारी के स्वभाव को समझने में सफल  हुई है तब तो ठीक है और यदि ऐसा नहीं किया जा सका है या वर्तमानवैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति में ऐसा कर पाने की क्षमता ही नहीं है तो विज्ञान के नाम पर ढोए जाने वाले किसी अनुपयोगी बिषय की अपेक्षा इसके वास्तविक विज्ञान के खोजे जाने का खुला विकल्प खोजा चाहिए अर्थात किसी बिषय के प्रति ऐसा कोई पूर्वाग्रह न हो कि इस बिषय को ही विज्ञान माना जाएगा अपितु जिन भी बिषयों के द्वारा प्रकृति के स्वभाव को समझा जा सके उसके अनुशार मौसम एवं महामारी समेत समस्त प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में सही सटीक पूर्वानुमान लगाया जा सके | उसी से संबंधित अनुसंधानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि संकटकाल में जनता के काम आ सकें ! 


  महामारी  और विज्ञान की विफलता        

                                            महामारी विज्ञान में वैज्ञानिकता की खोज !

                                               महामारी को समझने में चूक गया विज्ञान 

      कोरोना महामारीमें सभी प्रकार से बहुत बड़ा नुकसान हुआ है स्वास्थ्य संकट पैदा हुआ जीवन संकट पैदा हुआ व्यापार बर्बाद हुआ शिक्षा चौपट हुई कुल मिलाकर बहुत बड़ी चोट पड़ी है जो दशकों तक भुलाई नहीं जा सकेगी | महामारी से बचाव के लिए जो उपाय बताए जा रहे हैं जो औषधियाँ दी जा रही हैं जो वैक्सीन आदि दी जा रही हैं हमें नहीं पता कि वे कितने कारगर हैं किंतु स्वास्थ्य संबंधी हर परिस्थिति में साथ देने वाले चिकित्सकों की बातों पर विश्वास करना हमारा कर्तव्यऔर मजबूरी दोनों ही है क्योंकि स्वास्थ्य संबंधी कभी भी कोई संकट काल उपस्थित होने पर हमें रोगमुक्त होने की आशा से जाना उन्हीं के पास पड़ता है चिकित्सा के नाम पर वे हमें रोगमुक्त करने के लिए संपूर्ण प्रयास करते हैं उनकी चिकित्सा का परिणाम कैसा भी हो | वे प्रयास कर सकते हैं करते हैं बाक़ी किसे स्वस्थ होना है किसे नहीं होना है किसे मृत्यु को प्राप्त होना है ये परिणाम उस व्यक्ति के अपने व्यक्तिगत समय या भाग्य के आधार पर प्राकृतिक रूप से सुनिश्चित होता है जहाँ किसी का बश नहीं चलता है |उसे प्रभावित करने की क्षमता मनुष्य में कुछ तो होती होगी किंतु कितनी होती है ये किसी को नहीं पता है |

      कुल मिलाकर जो होना था वह तो हो ही गया जो रहा बचा वो भी हो जाएगा !जो होगा वह सहने के लिए हम विवश हैं | हमें महामारी के बिषय में हमें कुछ पता ही नहीं है इसलिए हमारे पास उससे भयभीत होकर भाग खड़े होने का भी तो विकल्प नहीं है भागकर आखिर कहाँ जाएँगे | चिकित्सकीय अनुसंधानों की दृष्टि से अत्यंत उन्नत सफलता का शिखर चूम रहे राष्ट्र भी तो आज औरन की तरह ही हैरान परेशान और विवश हैं चिकित्सकों की भी वही विवशता है | हमारे प्रिय चिकित्सकों को भी  इस महामारी के संकट काल में हमारे लिए अपने जीवन दाँव पर लगाने पड़े हैं | सरकारों में सम्मिलित या प्रतिपक्षी राजनेताओं समाज सुधारकों  स्वयंसेवियों ने भी मानवता की रक्षा करने में कोई कोर कसर छोड़ी नहीं है यदि हम कुछ नकारात्मक संदेशों की ओर न जाएँ तो सबने समाज की बहुत सेवा की है | इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं किया जाना चाहिए और न ही उससे कुछ हासिल होने वाला ही है | 

      महामारी के बिषय में  पूर्वानुमान लगाने में या महामारी को ठीक ठीक प्रकार से समझने में हमसे कहीं कोई चूक हुई है या नहीं इस बिषय में परिवार भावना से आत्ममंथन किया जाना चाहिए सभी के उपयोगी बिचार स्वीकार किए जाने चाहिए और चिंता इस बात की की जानी चाहिए कि महामारी जैसी परिस्थितियों को समझने में हम कितना सक्षम हैं अपनी वैज्ञानिक क्षमता के आधार पर महामारी से निपटने के लिए ऐसा और क्या किया जा सकता था जो हम नहीं कर पाए यदि वो किया जा सका होता तो क्या और अधिक बचाव हो सकता था  या हमारी वैज्ञानिक  क्षमताएँ इतनी ही थीं महामारी के वेग को कम करने में हम इससे अधिक कुछ कर ही नहीं सकते थे | यदि ऐसा भी है तो भी यह सोचा जाना चाहिए कि हम क्यों नहीं कर सकते थे हमारे पास ऐसी वैज्ञानिक क्षमता का अभाव है या हमसे कोई वैज्ञानिक चूक हुई है |हमें उस वास्तविक कारण को खोजना चाहिए जिसके कारण इतनी बड़ी  महामारी पर किसी भी प्रकार से अंकुश लगाने में हम पूरी तरह असफल रहे | महामारी काल में हमें अपनी एवं अपनों की जिंदगी ईश्वर के भरोसे छोड़नी पड़ी या फिर संपूर्ण रूप से महामारी के समक्ष आत्म समर्पण कर देनापड़ा | 

     ऐसे समय में हमारे उन वैज्ञानिक अनुसंधानों की क्या भूमिका थी जिन्हें जनता से लिए गए टैक्स के धन से सरकारें लगातार चलाया करती हैं जनता की इतनी बड़ी मुसीबत के समय में उन वैज्ञानिक अनुसंधानों से जनता को कितनी मदद पहुँचाई जा सकी है |यह सोचने का बिषय है |  

   महामारी यदि प्राकृतिक परिस्थितियों का आश्रय लेकर आयी थी तब तो प्रकृति का अनुसंधान लगातार चला करता है उपग्रह रडार या वायु प्रदूषण करने वाले न जाने कितने यंत्रों को कहाँ कहाँ तैनात कर रखा होगा उनसे इतनी बड़ी महामारी के वायु मंडल में व्याप्त होने के क्या कोई संकेत नहीं मिले | 

       इतनी बड़ी महामारी का पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पाया इतने सतर्क वैज्ञानिक अनुसंधानों के बाद भी किसी को कानों कान भनक नहीं लगी ! यदि यह महामारी किसी देश के द्वारा निर्मित थी तो हम भी तो प्रभुता संपन्न देश हैं हमारे पास भी तो एक से एक योग्य वैज्ञानिक हैं हमारे यहाँ भी वैज्ञानिक अनुसंधानों पर सरकारें पानी की तरह पैसे बहाती हैं | ऐसी परिस्थिति में किसी देश के द्वारा रची गई इतनी बड़ी हिंसक गतिविधि का अनुमान क्यों  नहीं  लगाया जा सका !उचित तो ये था कि अपनी वैज्ञानिक क्षमता के द्वारा अपना बचाव करने में हमें सक्षम होना चाहिए था दूसरी बात हमें अपना बचाव करते हुए उस देश को उसी भाषा में जवाब दिया जाना चाहिए था ताकि भविष्य में इस प्रकार की हरकत करने में वह डरता !महामारी जैसी घटनाऍं वास्तव में यदि किसी एक देश के अधीन हैं तब तो हमें हमेंशा उससे डर डर कर जीना होगा | हम अपने स्वस्थ रहने के लिए किसी दूसरे देश के अधीन इतना अधिक क्यों हैं ऐसे तो वो जब जिसे परेशान  करना चाहेगा कर सकता है |इसीलिए तो पूर्वज कह गए थे कि अपने सुख का स्विच हमें पडोसी के घर में कभी नहीं लगाना चाहिए और यदि लगाना ही पड़े तो यह सोचकर लगाया जाए कि इस सुख रूपी बल्व को ऑन ऑफ करने के लिए पडोसी स्वतंत्र है | हम उसे अपनी इच्छा के अनुशार चलने के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं | इसलिए महामारी आदि सभी स्वास्थ्य संबंधी संभावित परिस्थितियों से अपना बचाव करने में हमें अपने को ही सक्षम बनानेका लक्ष्य लेकर  हमें वैज्ञानिक अनुसंधान करने होंगे | 

 विनम्र निवेदन    

9454410600

                महामारियों के बिषय में मैं पिछले लगभग तीस वर्षों से अनुसंधान कार्यकरता आ रहा हूँ मेरे जीवन में महामारियाँ कभी आयी नहीं थीं इसलिए इनका परीक्षण करने का कभी अवसर मुझे नहीं मिल सका था यही कारण है कि अपने अनुसंधान  के आधार पर महामारियों के बिषय में निश्चित तौर पर कुछ कह पाना मेरे लिए संभव न था | यद्यपि प्राकृतिक परिवर्तनों एवं मौसमी घटनाओं का अत्यधिक असंतुलन महामारियों की ओर इशारा करता आ रहा था | इसके आधार पर मुझे किसी महामारी के आने का अँदेशा सन 2008 से ही था उसके आधार पर मैं प्राकतिक परिस्थितियों पर लगातार नजर बनाए हुए था | सन 2016 से मैं इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने लगा था कि प्राकृतिक वातावरण को अपने आगोश में लेती जा रही महामारी आगामी तीन से चार वर्षों में मानवजाति को अपनी चपेट में ले लेगी अपने अनुसंधान के आधार पर मेरा ऐसा अनुमान था किंतु अपनी बात को भारत सरकार तक पहुँचाने के लिए मैंने वे संपूर्ण प्रयास किए जहाँ तक मैं प्रयत्न पूर्वक पहुँच सकता था | जिम्मेदार अनुसंधानकर्ता होने के नाते मैं मीडिया के किसी माध्यम को महामारी के आगमनसंबंधी यह डरावनी बात बताकर मैं आत्मीय समाज को पहले से भयभीत नहीं करना चाहता था | इसलिए मेरा उद्देश्य था कि सरकार के जिम्मेदार लोगों से मिलकर अपनी बात उन तक पहुँचाऊँ जो इस बिषय में कुछ प्रभावी कदम उठा सकते हों | 

    इसी क्रम में सरकारी तंत्र यह कहकर टाल देता रहा कि तुम्हारी बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है मैं जो आधार दे भी रहा था उनकी जानकारी के अनुशार उन्हें वे वैज्ञानिक नहीं लग रहे थे ! क्योंकि वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधान प्रणाली की महामारी तक पहुँच संभव ही नहीं है | इसलिए सरकारी तौर पर जिसे विज्ञान के रूप में स्वीकार किया गया है उसमें महामारी को समझने की क्षमता नहीं है और जिस वैज्ञानिक अनुसंधानप्रणाली के द्वारा महामारी के रहस्य को समझा जा सकता है उसे वे विज्ञान नहीं मानते !उन्हीं के पास सरकारों ने ऐसे बिषयों पर निर्णय लेने के अधिकार दे रखे हैं फिर भी जिस किसी भी तरह से भारत सरकार के विभिन्न विभागों तक मैंने अपनी बात पहुँचाई |  कुछ सांसदों मंत्रियों मुख्यमंत्रियों तक पहुँच बनाकर अपनी बात पहुँचाने का प्रयास किया !डॉक से कुछ पत्र प्रधान मंत्री जी को भी भेजे किंतु वहाँ से भी कोई उत्तर नहीं आया ! भारत सरकार में प्रधानमंत्री जी तक अपनी बात पहुँचाने के लिए मैंने इंटरनेट के लगभग सभी माध्यमों का उपयोग किया किंतु वहाँ से भी कोई सदाशयता नहीं दिखाई गई और न ही मेल पर भेजे गए मेरे अनेकोंपत्रों में से किसी एक का भी उत्तर देने की आवश्यकता ही समझी गई | 

    इसी बीच सन 2019 में चीन में महामारी का प्रवेश पहचाना जा चुका था जबकि अन्यदेशों में सामान्य लक्षणों के के कारण उनकी पहचान नहीं की जा  सकी थी वे इसे मनुष्यकृत मानकर चीन की ओर ही ताकते रहे तब तक उनके अपने अपने देश कोरोना संक्रमण की चपेट में आने लगे | महामारी के विषय में वैज्ञानिक अनुसंधानों की दृष्टि से संपूर्ण विश्व  की स्थिति इतनी बदतर थी कि महामारी के बिषय में विशेषज्ञ माने जाने वाले किसी कोकुछ पता ही नहीं था !

     कुलमिलाकर अत्यंत उन्नत विज्ञान के इस युग में समाज जिन वैज्ञानिकों पर आँख मूँदकर भरोसा करता रहता है वही समाज महामारी जैसी आपदाओं पर लगातार अनुसंधान करने वाले अपने वैज्ञानिकों की ओर बड़ी आशा भारी दृष्टि से देख जा रहा था कि इतनी बड़ी महामारी के अकस्मात् आगमन पर हमारे वैज्ञानिक क्या  कहते हैं किंतु वैज्ञानिक समुदाय या तो मौन था या फिर जो बोल रहा था उसका आधार न तो वैज्ञानिक था और न ही तर्कसंगत था | वैज्ञानिक समुदाय महामारी के बिषय में कुछ भी बता पाने में असमर्थ था केवल अँधेले में तीर तुक्के लगाए जा रहे थे | असहाय जनता महामारी से अकेली जूझ रही थी |जनता अपने वैज्ञानिकों से जानना चाहती थी -      "महामारी प्रारंभ कैसे हुई कहाँ हुई क्यों हुई होने का कारण क्या था इसके लक्षण क्या हैं विस्तार कितना है प्रसार माध्यम क्या है विस्तार  कितना  है अंतरगम्यता कितनी है ये कम कब होगा समाप्त कब होगा संक्रमण से खतरा अधिक किस को है संक्रमण से बचाव करने के लिए क्या किया जाना चाहिए !महामारीजनित संक्रमण पर तापमान घटने एवं बढ़ने का  क्या प्रभाव पड़ेगा !वर्षाऋतु में इसका स्वरूप कैसा होगा ?वायु प्रदूषण बढ़ने का प्रभाव इस पर क्याअसर होगा ? महामारीसे बचने के लिए क्या खाना हितकर होगा कैसे रहना हितकर होगा !आदि प्रश्नों का उत्तर जाने की समाज  में जिज्ञासा थी किंतु ऐसे  प्रश्नों का प्रमाणित  उत्तर देने वाला दूर दूर तक कोई नहीं था |  महामारी के बिषय में केवल आशंकाएँ व्यक्त की जा रही थीं | एक से एक पढ़े लिखे लोग महामारी के बिषय में कुछ पता  पर भी विज्ञान के नाम पर तरह तरह की अफवाहें फैलाए जा रहे थे | 

       विशेषज्ञ लोगों को पता था कि महामारी का सामना करने लायक हमारे पास कुछ भी नहीं है पहले से कोई इंतजाम न होने के कारण इसमें अधिक संख्या में लोग मारे  जा सकते हैं इसलिए ऐसे समय में जनता की मदद करने लायक हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं अब तो जो करना है वो महामारी ही करेगी | अब तो कुछ पता हो न हो किंतु इतनी बड़ी मुसीबत के समय में वैज्ञानिक कुछ बोलते एवं सरकारें कुछ करते दिखना चाहती थीं  | उस बोलने और करने से परिणाम क्या निकलेगा हमारी समझ में इसका  अनुमान किसी को नहीं था | 


 महामारी और वैज्ञानिक अनुसंधान 

      विज्ञान में प्रकृति या शरीर की वर्तमान अवस्था को समझने की अत्यंत उत्तम क्षमता है वातावरण में  चुके किसी वायरस को पहचानने  क्षमता है उससे संक्रमित हुए रोगियों को चिन्हित करने की क्षमता है वायरस किस किस प्रकार से शरीर को नुक्सान पहुँचा रहा है उसका मनुष्य शरीर के किस किस अंग पर कितना अधिक दुष्प्रभाव पड़ रहा है वो देखने में कैसा है उसका वजन कितना है उसकी व्याप्ति कहाँ कहाँ तक है उसका प्रवेश वस्तुओं के अंदर है या नहीं केवल बाहरी भाग पर ही है पशुओं पक्षियों आदि समस्त जीव जंतुओं पर उसका प्रभाव किस किस प्रकार से पड़ता है| पेड़पौधे नदी कुऍं आदि उस महामारी के बिषाणु से कितने दुष्प्रभावित हैं|ऐसी और भी बहुत सारी  बातों के बिषय में परीक्षण पूर्वक पता लगाया जा सकता है किंतु यह सारी परीक्षण प्रक्रिया करने में इतना अधिक समय लग जाता है कि तब तक महामारी बिकराल रूप ले चुकी होती है दूसरी बात यह जानकारी इतनी मजबूत या स्थायी नहीं होती  है जिसे यह मान लिया जाए कि इस बिषय में ऐसा ही होगा क्योंकि संभव ऐसा भी  कि जो जानकारी अभी मिली है वो कल गलत निकल जाए क्योंकि उसका कोई मजबूत आधार नहीं होता है | जो अनुमान आशंकाएँ संभावनाएँ किसी मजबूत आधार पर आधारित न हों उन्हें जनता तक पहुँचाने से बचा जाना चाहिए क्योंकि उनसे जनता का तनाव बढ़ता है तनाव से वीपी शुगर जैसे रोग बढ़ने लगते हैं उससे हृदय रोग की संभावनाएँ बनने लगती हैं | ऐसी परिस्थिति में चिकित्सा कर रहे चिकित्सकों को कहना पड़ता है कि ऐसे रोग महामारी के कारण फैल रहे होते हैं जबकि इस प्रकार के रोग उन अफवाहों के कारण फैल रहे होते हैं जोअज्ञान के कारण फैलाई गई होती हैं | 

      आजकल तो ऐसा प्रायः सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं के समय में होने लगा है जिस जगह पर एक भूकंप आ जाता है वहाँ जो नुक्सान होना होता है वह तो हो ही जाता है उससे लोग डरे सहमे तो होते ही हैं उसी समय यदि यह कहा जाता है कि अभी ऐसा झटके और लगेंगे या यहाँ इससे बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है|इसलिएअपने अपने घरों से निकलकर लोग खुली जगहों पर आ जाएँ किंतु कब तक के लिए खुली जगहों पर आ जाएँ !यदि यही नहीं बताना है तो ऐसेवैज्ञानिक अनुसंधानों से लोगों को मदद कैसे पहुंचे जा सकती है क्योंकि यह तो उन्हें भी पता है कि भूकंप के बाद कई बार कुछ और झटके भी लगते देखे जाते हैं | 

    महानगरों में विशेषकर घनी बस्तियों में ऊँची ऊँची बिल्डिंगों के बीच जो पार्क होते हैं ऐसी परिस्थितियों के लिए तो वे भी सुरक्षित नहीं होते हैं | ऐसी परिस्थिति में छोटे छोटे बच्चों एवं परिवार के वृद्धों रोगी सदस्यों को लेकर अधिक समय के लिए घर छोड़ना संभव नहीं हो पाता है इसलिए उन झूठी अफवाहों के कारण उन्हें डर डर कर जीने के लिए विवश होना पड़ता है |

    ऐसा आजकल प्रायः सभीप्रकार की प्राकृतिकआपदाओं या महामारियों के समय में किया जाने लगा है |एक भूकंपआ जाए तो भूकंप  की अफवाहें आँधी तूफ़ान आवे तो उसकी अफवाहें  कि अभी और आँधी तूफ़ान आते रहेंगे अधिक वर्षा बाढ़ होने लगे तो उसके विषय की अफवाहें बार बार फैलाई जाने लगती हैं|जिनका कोई वैज्ञानिक आधार न होने के कारण केवल भय पैदा करने के उद्देश्य से ऐसा बोलना ठीक नहीं है | 

                        

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मुश्किल है कोरोना की भविष्यवाणी !-1008

  09 May 2020- कोरोना का जवाब विज्ञान है नौटंकीनहीं, महामारी पर गलत साबित हुई केंद्र सरकार see... https://caravanmagazine.in/health/surge-in-covid-cases-proves-centre-wrong-pandemic-response-marked-by-theatrics-not-science-hindi 06 Jun 2020 -गणितीय मॉडल विश्लेषण में खुलासा, मध्य सितंबर के आसपास भारत में कोरोना महामारी हो जाएगी खत्म see...  https://www.amarujala.com/india-news/covid-19-pandemic-may-be-over-in-india-around-mid-september-claims-mathematical-model-based-analysis 18 Jun 2020 - कोविड-19 के लिए केवल गणितीय मॉडल पर नहीं रह सकते निर्भर : Iकोविड-19 महामारी की गंभीरता का अंदाजा लगाने के लिए अपनाए जा रहे बहुत से गणितीय मॉडल भरोसेमंद नहीं हैं।इस तरह के अनुमान के आधार पर नीतिगत फैसले लेना या आगे की योजनाएं बनाना बहुत खतरनाक हो सकता है। इसलिए इनसे बचना चाहिए।यह लेख राजेश भाटिया ने लिखा है। वह डब्ल्यूएचओ के साउथ-ईस्ट एशिया रीजनल ऑफिस में संचारी रोग विभाग के डायरेक्टर रह चुके हैं।इसकी सह लेखिका आइसीएमआर-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी की डायरेक्टर प्रिया अब्राहम हैं। लेख में कह...